किसी की त्रुटियों एवं अभाव का विवरण प्रस्तुत करना उसकी आलोचना करना होता है । आलोचना अर्थात किसी भी वस्तु, विषय अथवा व्यक्ति की गलतियों एवं कमियों का विवरण प्रस्तुत करना उसकी आलोचना कहलाता है । आलोचना समाज में बुराई की दृष्टि से देखा जाने वाला विषय है क्योंकि सम्पूर्ण समाज की दृष्टि में किसी की आलोचना करना उसे समाज की दृष्टि में ओछा प्रमाणित करना है जिससे उसकी छवि कलंकित होती है । समाज में समझा जाता है कि जब किसी इन्सान को किसी से ईर्षा होती है तो वह उसकी बुराई करके उसको हानि पहुंचाने के लिए आलोचनाओं का उपयोग करता है ।
सबसे आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि समाज द्वारा आलोचनाओं को बुरी दृष्टि देखने के पश्चात भी प्रत्येक इन्सान प्रतिदिन अनेकों बार किसी भी प्रकार किसी ना किसी की आलोचना अवश्य करता है । किसी अपने की, सम्बन्धी की, मित्र की, शत्रु की, अथवा किसी विषय या वस्तु की जैसे धर्म, राजनीती, समाज के किसी विशेष व्यक्ति की प्रत्येक इन्सान अपने वार्तालाप में आलोचना अवश्य करता है । इन्सान जब किसी दूसरे की आलोचना करता है तब उसे आलोचना करने में कोई बुराई दिखाई नहीं देती परन्तु जब उसके सन्दर्भ में कोई भी आलोचना होती है तब वह आक्रोशित अवश्य होता है ।
आलोचना करना वास्तव में कोई बुरा कार्य नहीं है क्योंकि आलोचना द्वारा किसी भी विषय, वस्तु या व्यक्ति का चरित्र स्पष्ट होता है तथा स्पष्टीकरण कभी बुरा नहीं होता । आलोचना बुरी ना होने पर भी आलोचना को बुराई की दृष्टि से देखने का मुख्य कारण है आलोचनाओं को उपयोग करने का तरीका । आलोचना दो प्रकार से कार्य करती है एक = जिसकी आलोचना होती है उसकी गलतियों एवं कमियों को स्पष्ट करती है तथा दूसरे = आलोचना करने वाले इन्सान का दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है । किसी भी आलोचना में सबसे महत्वपूर्ण तथ्य है कि आलोचना क्यों करी गई है तथा किस प्रकार करी गई है ।
आलोचना करना एवं आलोचना सुनना तथा जिसकी आलोचना होती है उसका आलोचना को समझना सभी में अंतर होता है । आलोचना इन्सान दो कारणों से करता है एक ईर्षा के कारण तथा दूसरे संवेदना के कारण । ईर्षा के कारण करी गई आलोचना दूसरे की बुराई करना है जो इन्सान अपने लाभ एवं दूसरे की हानि के लिए करता है । संवेदना के कारण करी गई आलोचना इन्सान दूसरे के प्रति संवेदनशील होकर उसे गलती करने से रोकना तथा उसकी कमियों को सुधारना चाहता है यह दूसरे इन्सान को सुधारकर उसे श्रेष्ठ बनाने का प्रयास होता है ।
आलोचना सुनने वाला इन्सान भी दो प्रकार से आलोचनाओं को सुनता है । एक आलोचना बुराई के रूप में सुनी जाती है तथा दूसरे चेतावनी के रूप में सुनी जाती है । बुराई के रूप में सुनी गई आलोचना इन्सान अपनी ईर्षालू मानसिकता के कारण सुनता है जो उसकी ईर्षालू मानसिकता को आनन्दित करती है । चेतावनी के रूप में सुनी गई आलोचना इन्सान जानकारियों में वृद्धि करने तथा अपने बौद्धिक विकास के लिए सुनता है । यह इन्सान की मानसिकता पर निर्भर करता है कि वह आलोचनाओं का किस प्रकार उपयोग करता है ।
अपनी आलोचना को समझने के भी दो प्रकार होते हैं । एक आलोचना को अपनी बुराई समझता है तथा दूसरे आलोचना को अपने लिए सावधान करने की चेतावनी समझता है । बुराई समझने पर इन्सान आलोचना करने वाले से तकरार अथवा मतभेद करने का कार्य करता है । आलोचना को सावधान करने की चेतावनी समझने पर इन्सान अपनी गलतियों एवं कमियों को सुधारकर अपने व्यक्तित्व में निखार लाता है जो उसके चरित्र को श्रेष्ठ बनाने में सहायक होती है ।
आलोचना करने, सुनने अथवा समझने वाले सभी इंसानों को कुछ तथ्यों को समझना बहुत आवश्यक है । आलोचना जब ईर्षा के कारण करी जाती है तो इन्सान की छवि एक बुरे इन्सान के रूप में उभरने लगती है । सुनने वाले आलोचना करने वाले इन्सान को ईर्षालू मानकर उससे सावधान रहते हैं तथा उससे बचने का प्रयास करने लगते हैं । आलोचना संवेदना के रूप में करना ही इन्सान के लिए सर्वोतम होता है जो उसकी छवि को एक संवेदनशील इन्सान के रूप में प्रस्तुत करती है जिसके कारण उसके सम्मान में भी वृद्धि होती है ।
आलोचना सुनकर आनन्दित होने वाले इन्सान की मानसिकता में ईर्षा में वृद्धि होने लगती है जिसके कारण उसका व्यक्तित्व खराब होने लगता है । आलोचना सुनकर वार्तालाप में भाग लेकर खुद भी बुराई करने से इन्सान की अपनी छवि भी खराब होती है इसलिए आलोचनाओं को सिर्फ चेतावनी के रूप में ही सुनना उत्तम होता है । आलोचना को चेतावनी के रूप में सुनना तथा अपनी जानकारी में वृद्धि करना तथा अपनी मानसिकता का विकास करना इन्सान के लिए सबसे श्रेष्ठ होता है ।
अपनी आलोचना को बुराई समझकर तकरार करना एक प्रकार से मूर्खता होती है । इन्सान के लिए उत्तम होता है अपनी बुराई करने वाले की मानसिकता को समझना तथा उससे सावधान रहना । किसी भी प्रकार की आलोचना हो उसमें कुछ ना कुछ सच्चाई अवश्य होती है । अपनी आलोचना की समीक्षा करना बहुत आवश्यक होता है ताकि अपनी गलतियों एवं कमियों को सुधारकर खुद को श्रेष्ठ बनाया जा सके ।
इन्सान को अपना व्यवहार, स्वभाव, आचरण, भाषा, वाणी एवं कर्म सदैव सभी उत्तम प्रतीत होते हैं । वार्तालाप करते समय कोई भी इन्सान कितने अपशब्दों का उपयोग करता है उसे स्वयं भी इसका अहसास तक नहीं होता । आलोचना करने वाले इन्सान ही त्रुटियों को स्पष्ट करते हैं । मूर्ख इन्सान अपनी आलोचना सुनते ही आक्रोशित हो जाते हैं तथा झगड़े पर उतारू हो जाते हैं । बुद्धिमान इन्सान आलोचना सुनकर उसे समझने का प्रयास अवश्य करते हैं ताकि अपनी त्रुटियों को सुधारकर अपना व्यक्तित्व सुधार जा सके । किसी भी आलोचना पर टिप्पणी करने से पूर्व यदि उसकी समीक्षा कर ली जाए तो यह इन्सान के लिए सर्वोतम एवं बुद्धिमानी का कार्य होता है ।
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