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अपने – apne

October 20, 2018 By प्रस्तुत करता - पवन कुमार Leave a Comment

किसी वस्तु को अपनी इच्छानुसार उपयोग करने का अधिकार प्राप्त होने से वह अपनी कहलाती है । इसी प्रकार किसी इन्सान के जीवन में उसकी जानकारी प्राप्त करने, किसी प्रकार का दखल देने अथवा किसी प्रकार की सहायता मांगने का अधिकार प्राप्त होने से वह अपना (apne) कहलाता है । इन्सान के लिए यह बहुत गौरवशाली विषय है | क्योंकि जिस इन्सान के जीवन में जितने अधिक अपने (apne) होते हैं वह खुद को उतना ही अधिक समृद्ध एवं बलशाली समझता है । अपनों का अधिक होना इन्सान के लिए संख्या बल होता है | क्योंकि समाज में माना जाता है कि इस इन्सान की सहायता के लिए इसके पीछे इतने अधिक अपनों (apne) की संख्या उपलब्ध है ।

अपने

इन्सान को जब भी किसी प्रकार की समस्या, मुसीबत अथवा सहायता की आवश्यकता होती है वह सदैव अपनों के पास सहायता प्राप्ति की आशा में पहुंच जाता है । अपनों से सहायता प्राप्त ना होने पर आक्रोशित होना तथा उन्हें दोषी समझना उन्हें समय पर धोखा देने के लिए बेवफा समझना इन्सान का स्वभाव है । सहायता ना मिलने पर अपनों की आलोचना करना अथवा बुराई करना व्यर्थ है | क्योंकि अपनों के विषय में यह समझना आवश्यक है कि वह वास्तव में अपने हैं या अपना होने का मात्र दिखावा करते हैं । अपना कहलाने वाले इंसानों के मध्य अपनापन (apnapan) होता है | यदि अपनापन (apnapan) ना हो तो वह मात्र दिखावे के लिए ही अपने होते हैं ।

इन्सान को अपनों के विषय में अपनेपन की समीक्षा करना बहुत आवश्यक होता है । क्योंकि इन्सान अपनों की संख्या बल के कारण उत्साह में कभी-कभी अनुचित या अनैतिक कार्य करके अपने लिए समस्या अथवा मुसीबत को निमन्त्रण दे देता है । समस्या या मुसीबत में फंसकर अपनों का साथ ना मिलने पर बहुत अधिक हानि होती है जिसके लिए इन्सान सिर्फ पश्चाताप ही कर सकता है । समाज में अक्सर देखा जाता है कि आवश्यकता होने पर अपनों की भीड़ में कमी आती है । समस्या होने पर अपनों की भीड़ अत्यंत कम हो जाती है तथा मुसीबत में तो अपनों की भीड़ गायब ही हो जाती है । आवश्यकता, समस्या या मुसीबत के समय कुछ वास्तविक अपने ही साथ देते हैं जिनकी पहचान करना इन्सान के लिए अनिवार्य है ताकि गलती करने से बचा जा सके ।

इन्सान के जीवन में अपनों (apne) की चार श्रेणी होती हैं ।

  • प्रथम श्रेणी में इन्सान का परिवार होता है | जो उसे जन्म के साथ ही प्राप्त हो जाते हैं ।
  • दूसरी श्रेणी में सम्बन्धी एवं रिश्तेदार होते हैं | जिनका इन्सान एवं उसके परिवार से सम्बन्ध होता है ।
  • तीसरी श्रेणी में इन्सान के मित्र होते हैं | जिनसे वह अपनीं इच्छानुसार सम्बन्ध स्थापित करता है ।
  • चतुर्थ श्रेणी में इन्सान के पड़ोसी, कर्मचारी, व्यापारिक सहयोगी इन्सान अथवा वह जिसके पास कर्मचारी  होता है ।

हमारे कर्मचारी या जिनके पास हम कर्मचारी  हैं | यदि समय पर वेतन प्राप्त ना हो अथवा वेतन के लिए परेशान किया जाए तो सारा अपनापन (apnapan) गायब हो जाता है । कर्मचारी एवं अधिकारी अथवा मालिक के सम्बन्धों में अपनापन मात्र परिश्रम के बदले में मिलने वाला वेतन होता है | अर्थात एक दूसरे की आवश्यकता पूर्ति । हमारे सहयोगी अथवा पड़ोसी यदि इनके साथ किसी प्रकार का आदान-प्रदान ना हो तो सभी मात्र दिखावे के अपने होते हैं । हमारे मित्रगण अथवा सम्बन्धियों के मध्य भी यदि किसी प्रकार की सहायता का आदान-प्रदान नहीं होने का अर्थ है कि वह सभी सिर्फ दिखावे के अपने (apne) होते हैं । यह सभी मात्र अपने कहलाने का संख्या बल होता है ।

इन्सान के प्रथम श्रेणी के अपने जो उसके परिवार के सदस्य होते हैं | वह कुछ सहायता अवश्य करते हैं | परन्तु सहायता के बदले में किसी प्रकार का आदान-प्रदान ना होने पर वह भी धीरे-धीरे साथ छोड़ देते हैं । इन्सान के माता-पिता अपनी सन्तान के भविष्य के लिए सभी प्रकार के सकारात्मक कार्य करते हैं | परन्तु वह भी सन्तान से वृद्धावस्था में सेवा की अपेक्षा अवश्य रखते हैं । सन्तान के व्यवहार से माता-पिता को सेवा का विश्वास समाप्त हो जाए तो उनका भी अपनापन (apnapan) गायब हो जाता है | वह भी सन्तान का साथ छोड़ देते हैं ।

संसार में कोई भी कार्य का कारण अवश्य होता है | बिना कारण कोई भी कार्य नहीं होता । इंसानों के मध्य सम्बन्ध स्थापित करने एवं उन्हें प्रगाढ़ बनाने का कारण उनके मध्य स्वार्थ होता है । स्वार्थ के बगैर संसार में कोई भी कार्य संभव नहीं है । स्वार्थ दो प्रकार का होता है एक पक्षीय एवं दो पक्षीय । एक पक्षीय स्वार्थ सिर्फ अपने लाभ के लिए उपयोग होता है | जिसमें दूसरे इंसानों से सहायता प्राप्त करने के पश्चात वापस सहायता नहीं की जाती इसका उपयोग बेईमान इन्सान करते हैं | जिसे धूर्तता कहा जाता है । दो पक्षीय स्वार्थ आदान-प्रदान है | अर्थात सहायता लेकर वापस सहायता करना यह आपसी सम्बन्धों का मुख्य आधार है । यह दो पक्षीय स्वार्थ ही संसार का संचालन करता है | जिसमें सभी इन्सान एक दूसरे की सहायता करते हैं ।

जब हमारे किसी से सम्बन्ध होते हैं | और हम आपस में आदान प्रदान करते हैं | इस आदान-प्रदान के कारण ही आपस में अपनेपन की स्थापना होती है | अर्थात यही अपनापन होता है । यदि कोई इन्सान हमसे आदान-प्रदान नहीं करता तो आपस में अपनापन ना होने के कारण वह मात्र दिखावे का अपना (apne) होता है । किसी से सहायता मांगते समय यह समझना की प्रथम बार सहायता मांगी है | इससे आदान-प्रदान का आरम्भ होगा नादानी है । दूसरे के सहायता ना मांगने का कारण यह नहीं है कि उसे सहायता की आवश्यकता नहीं पड़ी । दूसरे इन्सान के सहायता ना मांगने के दो कारण होते हैं वह हमें सहायता के लायक नहीं समझता या वह हमसे आदान-प्रदान आरम्भ नहीं करना चाहता ताकि अधिक वापस ना करना पड़ जाए ।

किसी के अपनेपन की समीक्षा करने के लिए कि वास्तव में अपनापन है या मात्र दिखावा है | इसका एक मात्र यह मापदंड है उस पर दृष्टि रखना कि आवश्यकता होने पर वह हमसे सहायता मांगता है या नहीं । आवश्यकता, समस्या या मुसीबत सभी इन्सान के जीवन में होती है जो हमसे सहायता मांगता है वह हमें अपना समझता है तथा अपनापन आरम्भ करना चाहता है । जब हम उसकी सहायता करते हैं तो आदान-प्रदान का श्रोत आरम्भ होने से अपनापन आरम्भ हो  जाता है | तथा वह वास्तव में अपने बन जाते हैं । जब आवश्यकता होने पर भी कोई अपना हमसे सहायता नहीं मांगता तो वह हमें असक्षम समझता है या वह हमसे अपनापन आरम्भ नहीं करना चाहता । ऐसे इन्सान अपनों के लिए मात्र संख्या बल होते हैं वास्तव में वह हमसे पीछा छुड़ाना चाहते हैं ।

जीवन में अपनों का साथ बनाने के लिए आवश्यक है कि आवश्यकता के समय आगे बढ़कर सहायता का प्रस्ताव रखना । जब कोई हमसे सहायता प्राप्त करता है तो यह हमारे अपने होने का प्रमाण होता है इससे सम्बन्ध प्रगाढ़ हो जाता है । यह अपने होने तथा अपनेपन का प्रमाण पत्र होता है । कभी-कभी यह समझा जाता है कि हमारे परिवार के सदस्य हमारी सहायता नहीं करते और पराये हमारी सहायता करते हैं वास्तव में ऐसा नहीं है ।

यदि हमने अपने परिवार के सदस्यों की सहायता नहीं करी तो वह भी हमारी सहायता करने से इंकार कर देते हैं । हमने यदि पराये इन्सान की किसी प्रकार की सहायता करी है तो उनसे सहायता प्राप्त हो जाती  है । किसी भी प्रकार की सहायता का आदान-प्रदान अपनापन स्थापित करना है यदि अपनापन आरम्भ  ना हो तो कोई भी अपना नहीं होता तथा अपनापन आरम्भ हो जाए तो कोई भी पराया नहीं होता । अपने कहने से कोई भी अपना नहीं होता अपना (apne) बनाना पड़ता है यही संसार का चलन है ।  

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इंसान के जीवन में जन्म से मृत्यु तक के सफर में तृष्णा, कामना तथा बाधाएं उत्पन्न होकर मानसिकता में असंतोष तथा भटकाव की स्थिति उत्पन्न कर देते हैं जिससे जीवन कष्टदायक व असंतुलित निर्वाह होता है। जीवन सत्यार्थ ऐसा प्रयास है जिसके द्वारा सत्य की परख करके कष्टकारी मानसिकता से मुक्ति पाकर जीवन संतुलित बनाया जा सकता है। पढने के साथ समझना भी आवश्यक है क्योंकि पढने में कुछ समय लगता है मगर समझने में सम्पूर्ण जीवन भी कम हो सकता है और समझने से सफलता प्राप्त होती है।

प्रस्तुत कर्ता - पवन कुमार

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