जीवन का सत्य

जीवन सत्यार्थ

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March 31, 2014 By Amit

विश्वास = सकारात्मक सोच का परिणाम।

घृणा = इच्छा पूर्ति न होने पर निराशा व आक्रोश की स्थिति।

कुंठा = असफल होने पर कुछ न कर पाने का अफ़सोस।

गुण = किसी विषय या वस्तु का विशेषज्ञ होना।

अहसास = अनजानी घटना की होने वाली आहट।

प्रेम = आकर्षण की अधिकता व समीप्य से सुख की अनुभूति।

शक = ऐसा विकार जो अधिकता के कारण जीवन का सर्वनाश कर देता है।

आलस्य = सक्षमता होने के उपरांत कार्य करने से मना करना।

किस्मत = इन्सान द्वारा निर्धारित एक काल्पनिक सोच।

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विश्वास

May 31, 2014 By Amit Leave a Comment

vishwas

किसी कार्य को आरम्भ करने से पूर्व अथवा करते समय सफलता पूर्वक सम्पन्न होने की सकारात्मक मानसिकता इन्सान के द्वारा किया जाने वाला विश्वास कहलाता है । विश्वास इस प्रकार की सकारात्मक मानसिकता है जिसके कारण इन्सान का जीवन किर्याशील है तथा जीवन के सभी कार्यों में सफलता प्राप्त करने का मुख्य आधार इन्सान का विश्वास होता है । इन्सान के जीवन में विश्वास की अल्पता अथवा समाप्ति होने पर उसका जीवन स्थिर हो जाता है तथा जीवन में अत्यंत अभाव पूर्ण स्थिति उत्पन्न हो जाती है क्योंकि इन्सान किसी भी कार्य को सफलता पूर्वक सम्पन्न होने के विश्वास के कारण ही अंजाम देता है । यदि किसी कार्य को आरम्भ करने से पूर्व उसकी सफलता पर अविश्वास हो तो उस कार्य को कोई भी इन्सान नहीं करता अथवा औपचारिकता वश सम्पन्न करता है जिसके कारण वह कार्य अधिकतर असफल होते हैं या उसका परिणाम साधारण आता है क्योंकि कार्य की उचित सफलता कार्य करने वाले के उत्साह पर निर्भर करती है ।

इन्सान की मानसिकता में विश्वास के विभिन्न प्रकार होते हैं तथा विभिन्नता के अनुसार ही प्रभाव एंव परिणाम होते हैं । सर्वप्रथम इन्सान द्वारा अपनी क्षमता तथा बुद्धि कौशल पर किया गया विश्वास इन्सान का आत्म विश्वास कहलाता है जिसके विवेक तथा इच्छा शक्ति द्वारा उत्पन्न होने पर दृढ आत्म विश्वास होता है तथा मन, भावना एंव कल्पना शक्ति द्वारा उत्पन्न होने पर अंध आत्म विश्वास होता है । दृढ आत्म विश्वास इन्सान को जीवन में अपनी कामनाएँ पूर्ण करने तथा बुलंदी प्राप्त करवाने में सहायक होता है परन्तु अंध आत्म विश्वास के कारण इन्सान को जीवन में शत्रु तलाशने की कोई आवश्यकता नहीं रहती क्योंकि अंध आत्म विश्वास के नशे में किये गए कार्य उसके पतन का कारण बन जाते हैं । इन्सान को जीवन में किसी भी कार्य के लिए आत्म विश्वास की आवश्यकता होती है इसलिए अपने विवेक द्वारा मंथन करने के पश्चात ही कार्य को अंजाम देना उचित होता है ।

vishwas

किसी अन्य इन्सान पर किया गया विश्वास भी इन्सान के जीवन में अत्यंत आवश्यक है क्योंकि विश्वास के बगैर किसी से कोई भी कार्य नहीं करवाया जा सकता परन्तु आत्म विश्वास की तरह अन्य पर विश्वास भी विवेक द्वारा संचालित होना आवश्यक है क्योंकि अन्य इन्सान पर विवेक रहित तथा मन, भावना एंव कल्पना शक्ति के बल पर किया गया विश्वास ही अंधविश्वास होता है । अन्य इन्सान पर विश्वास करने से ही जीवन के कार्य सुचारू रूप से सम्पन्न होते हैं तथा आपसी सम्बन्ध प्रगाढ़ होते हैं जो समाज में रहने के लिए आवश्यक हैं । किसी इन्सान पर अंधविश्वास होने का कारण उसके द्वारा आवश्यक सहायता प्रदान करना होता है जिससे जीवन में राहत का अहसास होता है परन्तु अंधविश्वास से ही विश्वास घात उत्पन्न होता है जिसके कारण जीवन बर्बाद हो जाता है । किसी पर अंधविश्वास करना अर्थात अपना जीवन संकट में डालना है क्योंकि कितना भी प्रिय इन्सान हो उसकी मानसिकता में सकारात्मकता कब नकारात्मकता में परिवर्तित हो जाए इसका अनुमान लगाना नामुमकिन होता है । अंधविश्वास की नकारात्मक मानसिकता का परिणाम जब प्रस्तुत होता है तब तक इन्सान का जीवन बर्बाद हो चुका होता है ।

जीवन में सफलता प्राप्ति के विश्वास के कारण ही प्रत्येक कार्य किए जाते हैं यहाँ तक की इन्सान अपनी सन्तान की परवरिश तथा शिक्षा एंव व्यवसाय अथवा सेवा कार्य के लिए अपना धन व्यय तथा परिश्रम उनके वृद्धावस्था के समय सेवा प्राप्ति होने के विश्वास के कारण ही करता है । सन्तान के प्रति अस्थिर विश्वास तथा सन्तान द्वारा त्याग कर पृथक होने का आभाष इन्सान से सन्तान के प्रति कर्तव्य पूर्ण करने में अवरोध उत्पन्न कर उसे औपचारिकता वश परवरिश करने को विवश करता है । स्त्री पुरुष का ग्रहस्थ जीवन विश्वास की डोर से बंधा होता है जिसे अविश्वास की आंधी का हलका सा झोंका भी उनकी ग्रहस्थी का तिनका तिनका बिखेर सकता है । जीवन में मित्र जैसा सम्बन्ध सदैव राहत पूर्ण होता है क्योंकि आवश्यकता के समय परिवार के अतिरिक्त मित्र ही सहायक होते हैं परन्तु मित्रों द्वारा विश्वास घात करने के अनेकों प्रमाण समाज में प्रस्तुत होते रहते हैं ।

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इन्सान अपने जीवन में अधिक समय तक जीवित रहने के विश्वास के कारण कार्यरत रहता है जिसमे उसे मृत्यु का आभाष तक नहीं होता यदि मृत्यु का समय निश्चित हो जाए तो वह संसार में किसी भी कार्य को करने में सक्षम नहीं हो सकता अथवा वह कार्य करना त्याग देगा । संसार विश्वास की बुनियाद पर स्थिर है प्रत्येक इन्सान अपना कार्य सफल परिणाम के विश्वास के कारण ही करता है तथा इन्सान द्वारा आधुनिक संसार का निर्माण उसके दृढ विश्वास का परिणाम है । जो इन्सान अपने जीवन में अपना आत्म विश्वास तथा अन्य इंसानों पर विश्वास दृढ ना करके अस्थिरता के सहारे जीवन व्यतीत करते हैं उनका जीवन दुविधापूर्ण तथा कष्टकारी होता है । संसार में विश्वासघाती इंसानों की कोई कमी नहीं है जिसमे कभी कभी परिवार के सदस्य भी हो सकते हैं परन्तु किसी के द्वारा विश्वास घात करने से सम्पूर्ण समाज पर अविश्वास नहीं किया जा सकता ।

विश्वास इन्सान के जीवन में अत्यंत आवश्यक है परन्तु किसी पर विश्वास करने से पूर्व विवेक द्वारा मंथन करने पर विश्वासघात होने के आसार लगभग समाप्त हो जाते हैं । किसी पर विश्वास करना हो या स्वयं पर आत्म विश्वास उसमे अंधापन नहीं होना चाहिए इसलिए उसमे विवेक का उपयोग करना अनिवार्य है इसलिए किसी भी विषय अथवा वार्ता एंव कार्य करने से पूर्व विवेक द्वारा मंथन करना अत्यंत आवश्यक है जिसका परिणाम सदा उचित प्राप्त होगा ।

घृणा

June 1, 2014 By Amit Leave a Comment

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किसी कार्य या विषय में अवरोध अथवा त्रुटियों से सम्बन्धित इन्सान के प्रति मन में उत्पन्न होने वाला आक्रोश तथा वैस्म्न्य उसके मन की घृणा कहलाती है । घृणा इन्सान के मानसिक तंत्र का वह विकार है जो भावनाओं पर आघात होने अथवा भावनात्मक सम्बन्ध में किसी प्रकार की शंका या त्रुटि होने से उत्पन्न होता है । घृणा उत्पन्न होने का मुख्य आधार बुरा व्यवहार अथवा ऐसा कोई कर्म होता है जिससे जीवन अथवा मस्तिक प्रभावित होता है । यह किसी विषय पर नकारात्मक किर्या के कारण उत्पन्न होकर सम्पूर्ण मानसिक तंत्र को प्रभावित करता है । किसी इन्सान द्वारा अन्य इंसानों के प्रति घृणा करने में आवश्यक नहीं होता कि उनके द्वारा सताए जाने अथवा अत्याचार किए जाने से घृणा उत्पन्न होती है यह किर्या किसी भी प्रकार भावनाओं पर होने वाले प्रहार के कारण उसे प्रभावित करती है । जिस प्रकार जल बहाव के मार्ग में अवरोध उत्पन्न होने से वह विकराल रूप धारण करके तबाही का कारण बन जाता है उसी प्रकार भावनाओं में आक्रोश घृणा का कारण होता है ।

इन्सान में घृणा उत्पन्न होने तथा उसमे वृद्धि होने के अनेकों कारण होते हैं क्योंकि किसी इन्सान की अथवा किसी विषय की जो छवि भावनाओं में चित्रित होती है उसके खंडित होने से आक्रोश तथा वैस्म्न्य उत्पन्न होकर घृणा में परिवर्तित हो जाते हैं । किसी के द्वारा वार्तालाप के समय अपने प्रिय की अप्रश्न्सा अथवा प्रतिद्वंदी या अप्रिय की प्रशंसा भी घृणा में वृद्धि करती है । वर्तमान समय में अधिकांश इन्सान अपने वाक्यों द्वारा घृणा प्रदर्शित करते हैं तथा इन्सान के स्वभाव में घृणा की आश्चर्यजनक रूप से वृद्धि हुई है जिसके कारण समाज में आक्रोश उत्पन्न हो रहा है जो समाज के पतन का कारण बन सकता है इसलिए घृणा पर अधिकार करके उसका समाधान करने के लिए उसके कारणों की समीक्षा करना अत्यंत आवश्यक है ।

इन्सान के स्वभाव में घृणा की वृद्धि के अनेकों अद्भुत कारण होते हैं जैसे किसी की अचानक सफलता तथा अपनी असफलता, अपनी प्रिय वस्तु का अन्य के अधिकार में जाना, अपने प्रिय का अन्य के प्रति आकर्षण अथवा प्रिय द्वारा किसी की प्रशंसा, अन्य का अधिक सशक्त होना वगैरह अनेकों कारण घृणा में वृद्धि करते हैं । अधिकांश इन्सान सत्य से अनभिज्ञ अन्य इंसानों से घृणा करते हैं जिसका कारण किसी का धर्म, जाति अथवा भाषा वगैरह होती है जो सिर्फ नादानी का कार्य होता है । किसी की सफलता उसकी परिस्थिति अनुकूल होने अथवा बुद्धिमानी के कारण होती है तथा उसके द्वारा किया गया परिश्रम एंव उसकी लगन व क्षमता होती है । अपनी प्रिय वस्तु पर अन्य का अधिकार अपनी जागरूकता की त्रुटी को दर्शाता है तथा अपने प्रिय का अन्य के प्रति आकर्षण अपने व्यक्तित्व में त्रुटी प्रस्तुत करता है । प्रिय के मुख से अन्य की प्रशंसा अपनी असफलता के कारण होती है इसलिए अन्य इंसानों से घृणा करने के स्थान पर अपनी त्रुटियों की समीक्षा करके अपना सशक्तिकरण करने की आवश्यकता होती है ।

जो इन्सान किसी के धर्म से घृणा करते हैं वें धर्म की वास्तविकता से अनभिज्ञ होते है । धर्म जीवन निर्वाह की शैली को कहा जाता है तथा इसका जन्म आदिकाल में ही हो गया था क्योंकि इन्सान द्वारा सभ्यता अपनाने के समय समाज तथा धर्म की स्थापना करी गई थी जिसके नियम निर्धारित किए गए थे । समय व्यतीत होने के साथ धर्म के नियमों में आवश्यक परिवर्तन ना होना से समाज विभाजित होकर अपने नियमों का धर्म स्थापित कर लेता था जैसे जैन व बौध धर्म की स्थापना हुई तथा उन्होंने हिंसा, असत्य. चोरी, जमाखोरी तथा नशा करने पर प्रतिबंध लगा दिया । मूर्ति पूजा के विरोध में आर्य समाज की स्थापना हुई तथा सती प्रथा के विरोध में इस्लाम धर्म की स्थापना हो गई । नए धर्म प्राचीन धर्म का शुद्धिकरण होते हैं जो आवश्यक नियम निर्धारित करके जीवन शैली में परिवर्तन करने के लिए होते हैं । संसार का सबसे महान धर्म मानवता है तथा किसी भी इन्सान से धर्म के नाम पर घृणा करना इंसानियत से शत्रुता है ।

किसी इन्सान की जाति से घृणा करने से पूर्व उसकी वास्तविकता को ज्ञात करना परम आवश्यक है क्योंकि जाति प्रकृति द्वारा निर्मित नहीं है जाति का निर्माण इन्सान द्वारा आवश्यकता के कारण हुआ था जो रूढ़िवादिता के कारण अभिशाप बनकर रह गया है । आदिकाल में सभ्यता तथा समाज स्थापना के समय ही आवश्यक वस्तुओं के निर्माण करने के कार्य विभाजित करके कार्यकर्ता को कार्य अनुसार नाम निर्धारित किए गए जिसे जाति का नाम दिया गया । लोहे का कार्य करने वाला लुहार, बुनकर को जुलाहा, खेतिहर को किसान, रक्षक को राजपूत तथा शिक्षक को ब्राह्मण वगैरह नाम निर्धारित थे परन्तु लाभ के कार्य के आकर्षण में फंसकर अपना कार्य त्याग देने से समाजिक कार्यों में विघ्न उत्पन्न होता था जिसका निवारण उत्तर वैदिक काल में समाज द्वारा कार्य विभाजित करके उसे पैत्रिक कर दिया गया अर्थात लुहार का पुत्र सदैव लोहे का कार्य ही करेगा जिससे समाज निर्विध्न विकास कर सके । वर्तमान में कार्यों तथा इन्सान की अधिकता है एंव कोई भी इन्सान किसी भी प्रकार का कार्य करने के लिए स्वतंत्र है तथा कर रहा है परन्तु उत्तर वैदिक काल से थोपी गई जाति वर्तमान में भी चिपक कर रह गई है जो वर्तमान का अभिशाप है । रक्षक कहलाने वाला लुटेरा होने पर भी राजपूत कहलाता है, लुहार दूध का व्यापार करने पर भी लुहार है, ब्राह्मण पुत्र मूर्ख होने पर भी पंडित के पद पर आसीन है । जिस जाति प्रथा को समाप्त होना चाहिए अथवा उसका संशोधन होना चाहिए वह समाज में घृणा उत्पन्न करने का कार्य कर रही है ।

भाषा इन्सान द्वारा विचार व्यक्त करने की शैली मात्र है जिस पर टिप्पणी करना अथवा उससे घृणा करना नादानी का कार्य है क्योंकि जिस शैली का हम प्रयोग करते है उसका निर्माण भी अन्य इंसानों द्वारा हुआ है इसलिए किसी भी भाषा से घृणा करने अथवा उसपर कटाक्ष करने का अधिकार किसी को नहीं होता । कोई इन्सान अपने विचार किसी भी शैली में व्यक्त करे उसके विचारों से प्रेम अथवा घृणा करना उचित होता है । भावनाओं पर प्रहार अथवा कामना पूर्ति में विध्न होने से घृणा का दामन थामने से उचित अपनी त्रुटियों को ज्ञात करके समाधान करना है जिससे जीवन संवरता है । अधिक घृणा से आत्मबल क्षीण होता है तथा व्यहवार में कटुता उत्पन्न होती है एंव इन्सान अपशब्दों का उपयोग करने लगता है जिससे उसका समाजिक पतन हो जाता है ।

घृणा सदैव घृणित कर्मों से करनी चाहिए जैसे लूट, चोरी, भ्रष्टाचार, जुआ, बलात्कार, अपहरण, नशा, हत्या वगैरह तथा अन्य इंसानों से घृणा करने से पूर्व अपने अंत:करण में देखना अत्यंत आवश्यक होता है कि अंत:करण कितना साफ़, सभ्य, सभ्रांत है जिससे वास्तविकता का ज्ञान होता है । वार्तालाप के समय किसी भी प्रकार के अपशब्दों का उपयोग समाज में घृणा की वृद्धि करता है जिसके कारण किसी के मन पर होने वाला आघात घृणा उत्पन्न करता है एवं शत्रुता उत्पन्न करता है इसलिए वार्तालाप के समय अपने शब्दों पर नियन्त्रण रखना भी आवश्यक है ताकि किसी की भावनाओं को आघात न पहुंचे ।

कुंठा

June 1, 2014 By Amit Leave a Comment

kuntha

परिवार के सदस्य या समाज के अन्य इंसानों द्वारा अत्यधिक प्रताड़ित होने पर अपने पौरुष की कायरता के प्रति अथवा जीवन निर्वाह के कार्यों में निरंतर असफलता प्राप्त होने पर अपनी बुद्धि की निर्बलता के प्रति उत्पन्न होने वाला आक्रोश तथा वैस्म्न्य इन्सान के अंतःकरण में जीवन के प्रति घृणा उत्पन्न करता है जिसे इन्सान की कुंठा कहा जाता है । घृणा तथा कुंठा में अधिकतर समानताएं होती हैं जिसमें घृणा अपनी भावनाओं पर प्रहार होने के कारण अन्य इंसानों के प्रति उत्पन्न होती है परन्तु कुंठा अपने प्रति उत्पन्न होने वाला विकार है जो इन्सान के मानसिक तंत्र की अनिवार्य किर्या इच्छा शक्ति की निर्बलता तथा आत्म विश्वास की क्षीणता के कारण उत्पन्न होती है । कुंठा इन्सान के मानसिक तंत्र का सबसे भयंकर विकार है क्योंकि कुंठा के कारण इन्सान का बौद्धिक विकास समाप्त हो जाता है तथा इन्सान कुंठा की अधिकता के कारण आत्म हत्या जैसे घृणित कार्य कर लेता है ।
जो इन्सान किसी की प्रताड़ना अथवा अत्याचार से आक्रांतित होकर यदि अपने पौरुष के प्रति कुंठित होता है तो उसे यह समझना भी आवश्यक है कि इन्सान का वास्तविक पौरुष परिश्रम है जिसके द्वारा वह अपना तथा अपने परिवार का जीवन निर्वाह करता है तथा जो इन्सान समाज के विकास हेतु अथवा किसी निरीह प्राणी की सेवा हेतु परिश्रम करता है वह संसार का वास्तविक पौरुष बल होता है । किसी की त्रुटि पर उसे प्रताड़ित करना अथवा किसी को अत्यधिक उत्साह के कारण सताना नादानी होती है क्योंकि बुद्धिमान इन्सान वार्तालाप द्वारा किसी की त्रुटि को उसका अहसास कराता है तथा उत्साह में सताने का कार्य नहीं करते वें अपना उत्साह किसी की सहायता करके शांत करते हैं । किसी पर अपना बल दिखाने वाला दबंग वहशीपन की मानसिकता का शिकार मूर्ख प्राणी होता है जिससे दूरी बनाए रखना ही बुद्धिमानी होती है क्योंकि मूर्ख के मुंह लगने वाला भी मूर्ख ही कहलाता है ।
अपनी मानसिक शक्ति को निर्बल मानकर कुंठित होने से आवश्यक अपनी इच्छा शक्ति को दृढ़ बनाने का कार्य करना है क्योंकि मानसिक शक्तियाँ कभी निर्बल नहीं होती सिर्फ उनका उचित प्रकार से उपयोग करने का तरीका तथा दृढ़ इच्छा शक्ति द्वारा कार्य सफल कर लेने का आत्म विश्वास होना आवश्यक होता है । स्वयं को अल्प शिक्षित मानकर अपने बुद्धि कौशल पर अविश्वास करने से पूर्व यह जानकारी भी प्राप्त करनी अनिवार्य है कि संसार में जितनी भी वस्तुओं के आविष्कार हुए हैं उन्हें सफलता पूर्वक अंजाम देने वाले आविष्कारक अधिकतर अल्प शिक्षित रहे हैं । किसी भी कार्य की सफलता उस कार्य को अंजाम देते समय दृढ़ता पूर्वक सफल होने का विश्वास होता है क्योंकि कार्य करते समय असमंजस की नकारात्मक मानसिकता कार्य की सफलता में अवरोध उत्पन्न करती है ।
इन्सान यदि कुछ तथ्यों का अवलोकन कर ले तो जीवन में कभी कुंठा उत्पन्न नहीं हो सकती जैसे संसार का प्रत्येक निर्बल से निर्बल प्राणी जीवन के अंतिम क्षण तक संघर्ष करके अपना जीवन निर्वाह करता है । इन्सान को अपने आत्म विश्वास में सशक्तिकरण के लिए जानवरों के गुणों की समीक्षा अवश्य करनी चाहिए क्योंकि जानवरों के अनेक गुण प्रेरणा दायक हैं जिनसे आत्म विश्वास तथा कार्य क्षमता में वृद्धि हो सकती है तथा जिनके द्वारा जीवन में सरलता पूर्वक सफलता प्राप्त करी जा सकती है । जिस प्रकार सिंह अपने आक्रामक गुण के कारण जंगल का राजा कहा जाता है क्योंकि सिंह अपना सम्पूर्ण बल लगाकर तूफान जैसी तीव्रता से अपने शिकार पर आक्रमण करता है जिससे विशालकाय शिकार भी प्रथम वार में धारा शाही हो जाता है । इन्सान किसी कार्य में पूर्ण उत्साह, बल तथा लगन का प्रयोग करे तो वह कार्य अवश्य सफल होता है ।
समाज में सुचारू रूप से जीवन निर्वाह के लिए विश्वसनीयता बनानी अत्यंत आवश्यक होती है जिसे कुत्ते के गुण से सीखा जा सकता है जो रुखा सूखा तथा अल्प भोजन प्राप्त करने पर भी अपने मालिक का त्याग नहीं करता । समय का सम्मान करने वाला इन्सान जीवन में सदैव सफलता प्राप्त करता है क्योंकि समय के पाबंद इन्सान का सभी सम्मान करते हैं यह गुण मुर्गे से सीखा जा सकता है जो समय के प्रति अत्यंत जागरूक होता है तथा समय पर भोर में बांग देकर जागृत करता है । कोए की तरह कार्य के प्रति ढीटता से कार्य अवश्य सफल होता है । बगुले की तरह एकाग्रचित होकर कार्य करने से कार्य सदैव सफलता पूर्वक सम्पन्न होता है । गधे की कर्मठता का गुण सफलता का प्रमाण पत्र होता है जिस प्रकार गधा थकान होने पर भी धूप तथा गर्मी का अहसास ना करते हुए कर्मठता पूर्वक अपना कार्य करता रहता है उसी प्रकार जो इन्सान पूर्ण कर्मठ होता है उसका सभी पूर्ण सम्मान करते हैं तथा वह सफल भी अवश्य होता है । चींटी जिस प्रकार लगन पूर्वक कार्य करती है उसी प्रकार कार्य करने पर सफलता इन्सान के कदम चूमती है ।
कुंठित अवस्था में चिडचिडा स्वभाव, अभद्र व्यहवार तथा एकांत प्रिय होकर आभाव ग्रस्त जीवन व्यतीत करने से उचित नकारात्मक मानसिकता का त्याग करके सकारात्मक सोच के साथ संघर्ष करते हुए जीवन निर्वाह करने में कभी ना कभी सफलता अवश्य प्राप्त होती है । संसार की किसी भी समस्या का समाधान कुंठा नहीं होता यद्धपि विवेक द्वारा किसी भी समस्या का समाधान सरलता पूर्वक किया जा सकता है । कुंठा पर एक दोहा पूर्ण उचित होता है
करत करत अभ्यास के जडमति होत सुजान । रस्सी आवत जात से सिल पर परत निशान ।.
अर्थात निरंतर अभ्यास करने से स्थिर बुद्धि में भी ज्ञान उत्पन्न होकर चंचलता आ जाती है जिस प्रकार रस्सी के निरंतर घर्षण से कुँए का मजबूत पत्थर भी घिस जाता है । इन्सान नकारात्मक मानसिकता के कारण असफल होता है क्योंकि कार्य करने से शरीर नहीं थकता परन्तु मन के कारण अवश्य थक जाता है इसलिए मन पर कुंठा का बोझ डालने से बेहतर समस्या का समाधान करने के प्रयास होते हैं । इन्सान के आत्मविश्वास का बल किसी भी प्रकार के कार्य को सफलता पूर्वक करने में सक्षम होता है इसलिए कुंठित होने से उत्तम अपना आत्मविश्वास जगाकर संघर्ष करना है इससे सफलता अवश्य प्राप्त होती है ।

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जीवन सत्यार्थ

इंसान के जीवन में जन्म से मृत्यु तक के सफर में तृष्णा, कामना तथा बाधाएं उत्पन्न होकर मानसिकता में असंतोष तथा भटकाव की स्थिति उत्पन्न कर देते हैं जिससे जीवन कष्टदायक व असंतुलित निर्वाह होता है। जीवन सत्यार्थ ऐसा प्रयास है जिसके द्वारा सत्य की परख करके कष्टकारी मानसिकता से मुक्ति पाकर जीवन संतुलित बनाया जा सकता है। पढने के साथ समझना भी आवश्यक है क्योंकि पढने में कुछ समय लगता है मगर समझने में सम्पूर्ण जीवन भी कम हो सकता है और समझने से सफलता प्राप्त होती है।

प्रस्तुत कर्ता - पवन कुमार

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