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अध्यात्मिकता

June 29, 2014 By Amit Leave a Comment

aadhyatmik

संसार में प्रत्येक इन्सान प्रत्येक प्रकार के तथा अधिक से अधिक सुख प्राप्त करने के लिए लालायित रहता है एंव सुखों की प्राप्ति के लिए सभी प्रकार के कर्मों के लिए कार्यरत रहता है । इन्सान के लिए सर्वप्रथम व उत्तम शरीरिक सुख है । शरीर बलिष्ठ व स्वास्थ से परिपूर्ण हो तो सभी कार्य सरलता पूर्वक हो जाते हैं क्योंकि बीमार शरीर इन्सान को कभी कोई सुख नहीं दे सकता । शरीर की शक्ति के बल पर ही इन्सान दबंगई कर सकता है तथा अपनी कामनाओं को शांत कर सकता है । दूसरा सुख इन्सान के लिए भौतिक सुख है जिसमें मुद्रा, साजो सामान, संसाधन, वाहन, अन्न भंडार वगैरह की प्राप्ति होती है और जो आवश्यकता अनुसार सुख प्रदान करते हैं जैसे स्वादिष्ट भोजन, सभी प्रकार की सुविधाओं से सुसज्जित घर, घूमने के लिए अच्छे वाहन, महंगे वस्त्र एंव विभिन्न प्रकार की सुख सुविधाएँ । तीसरा सुख संतुलित परिवार होता है जिसमे पति पत्नी की अच्छी ग्रहस्थी व गुणवान सन्तान तथा प्रिय बन्धु बांधव होते हैं जो अच्छे बुरे समय पर इन्सान का भरपूर साथ निभाते हैं । ये तीनों सुख इंसानी द्रष्टि में जीवन को पूर्ण सुख की प्राप्ति व संतुष्टि प्रदान करते हैं परन्तु इन सुखों से उत्तम व महान सुख अध्यात्मिक सुख होता है ।

जो अध्याय आत्मिक हो अर्थात आत्मा से सम्बन्धित हो उसे अध्यात्मिक कहा जाता है । अध्यात्मिकता के पाँच विषय महत्वपूर्ण होते हैं सत्य, सम्मान, समानता, सेवा एवं सत्कार । आत्मा का पोषण सत्य से है तथा झूट आत्मा को सिर्फ कष्ट पहुँचाता है । आत्मा की प्रसन्ता सम्मान से है अपमान आत्मा के लिए सिर्फ दुःख का कारण होता है । आत्मा के लिए सभी समान हैं छुआछूत या असहिष्णुता आत्मा का नाशक है । आत्मा का कार्य सेवा है जो वह शरीर को जीवन प्रदान करके सम्पूर्ण जीवन उसका बोझ ढोती है । आत्मा का प्रेम सत्कार से है क्योंकि सत्कार शुभ कर्मों द्वारा प्राप्त होता है इसलिए आत्मा सदैव शुभ कर्मों के लिए प्रेरित करती है । यह पाँचों विषय मिलकर अध्यात्मिकता को पूर्ण करते हैं । जो इन्सान अध्यात्मिकता की अभिलाषा करते हैं उनके लिए सदा सत्य बोलना, सब का सम्मान करना, सब को समान समझना, सब की सेवा करना तथा सब का सत्कार करना अनिवार्य है ।

तीनों सुख शरीर व मन की एक सीमा तक ही संतुष्टि कर सकते हैं ये सुख नश्वर हैं जो समयनुसार समाप्त होते रहते हैं जैसे शरीर वृद्ध होकर धीरे धीरे मरता है, भौतिक सामान पुराना होकर समाप्त हो जाता है, परिवार के सदस्य धीरे धीरे साथ छोड़ जाते हैं । परन्तु अध्यात्मिक सुख सदैव अमर रहता है तथा यह प्राप्त करने से नहीं मिलता यह त्याग करने से प्राप्त होता है तथा इससे मन, मस्तिक और आत्मा की पूर्ण संतुष्टि होती है । अध्यात्मिक सुख कैसे प्राप्त होता है इसके लिए अनेक प्रकार की भ्रान्तियाँ हैं था समाज में पाखंडी इंसानों ने इसे लूटने का साधन भी बना लिया है । कोई मन्दिर में धन व अन्न भेंट करके इसे अध्यात्मिकता कहता है तो कोई दान व भीख बाँट कर अध्यात्मिकता बतलाता है । यह महज अफवाहें हैं दान, भीख, चढ़ावा, भण्डारा जैसे कार्य अध्यात्मिकता से कोई सम्बन्ध नहीं रखते इन कार्यों से पाखंडी इंसानों ने अपने स्वार्थ के लिए समाज में धर्म और शास्त्रों का वास्ता देकर इन्सान को भ्रमित किया है ।

इन्सान को अध्यात्मिक सुख पाने के लिए सर्वप्रथम इसकी सत्यता अवश्य परखनी चाहिए सही जानकारी होने पर ही सुख की अनुभूति होती है जैसे हम भोजन करने बैठे हों और हमारे पास सिर्फ पर्याप्त मात्रा में भोजन हो तथा उस समय कोई इन्सान या जीव आ जाये और वह हमसे अधिक भूखा हो तब हम अपने भोजन का कुछ भाग उसे प्रदान कर देते हैं जिससे उसकी व हमारी भूख थोड़ी थोड़ी शांत हो सके । भोजन करने के पश्चात हमारी भूख से अधिक हमारे मन व आत्मा की तृप्ति हो जाती है क्योंकि हमने अपनी भूख के अतिरिक्त दूसरे प्राणी की भूख भी शांत करी है इससे हमे जो सुख की अनुभूति होती है वह सच्चा अध्यात्मिक सुख होता है ।

लम्बी दूरी तय करते समय गर्मी व थकावट से परेशान होने पर भी राह में किसी वृद्ध अथवा मजबूर के बोझ को उठाने में सहायता करने पर बढ़ी हुई थकावट भी शांति का अनुभव देती है उसे अध्यात्मिक सुख कहते हैं । किसी मजबूर या लाचार का कार्य करने में अपना कीमती समय नष्ट करने से होने वाली परेशानी भी शांति व सकून प्रदान करती है किसी अंधे इन्सान का हाथ पकड़ कर उसे रास्ता तय कराने से ही अध्यात्मिक सुख प्राप्त हो जाता है । अध्यात्मिक सुख प्राप्त करने की इच्छा रखने वाला इन्सान यदि किसी से अपने कार्य का वर्णन करके वाहवाही लूटना चाहता है तो वह अहंकारी यह नहीं समझता कि उसके कार्य की महत्वता किसी से बखान करते ही नष्ट हो चुकी होती है क्योंकि अध्यात्मिक सुख निश्छल व निस्वार्थ सेवा करने से प्राप्त होता है जो कार्य प्रशंसा के लिए किया गया हो वह कार्य स्वार्थपूर्ण होता है ।

दान या भीख देकर किसी मनुष्य को नाकारा बनाया जाता है इसलिए दान या भीख को अध्यात्मिकता से जोड़ना नादानी है यदि किसी मजबूर इन्सान या अपंग इन्सान की सहायता करनी हो तो उसके सामर्थ के अनुसार उसके लायक कार्य का प्रबंध करना ही उसकी सच्ची सहायता है क्योंकि कार्य करके वह अपनी आजीविका सरलता पूर्वक चला लेगा और उसके आत्म सम्मान की रक्षा भी हो जाएगी । भंडारे करने से किसी का भला नहीं होता सिर्फ खाने के सामान की बर्बादी व गंदगी होती है और भण्डारा करने वाला इन्सान अहंकार के नशे में चूर स्वयं को अन्नदाता समझता है । मन्दिरों में धन चढ़ावे के लिए देने से अच्छा है किसी मजबूर के लिए सुविधा जुटाना । सच्चे अध्यात्मिक सुख की प्राप्ति करने के लिए अपनी बुद्धि से जाँच परख कर कार्य करना चाहिए पाखंडियों का पेट भरने से कभी सुख नहीं मिलता । अध्यात्मिक सुख का अर्थ है जिस कार्य से किसी प्राणी की निस्वार्थ सहायता करके मानसिक शांति एवं ख़ुशी प्राप्त हो तथा किसी भी अन्य इन्सान की किसी भी प्रकार की कोई भी हानि ना हो वह ही वास्तविक अध्यात्मिक सुख है ।

तपस्या

August 2, 2014 By Amit 2 Comments

किसी मनोहर, शांत, स्वच्छ वातावरण में एकाग्रचित विराजमान होकर तथा संसार के सभी कार्यों तथा समय व्यतीत होने की चिंता से मुक्त होकर बुद्धि द्वारा प्राप्त जानकारियों को एकत्रित करके विवेक द्वारा मंथन द्वारा ज्ञान प्राप्त करने के प्रयास को तपस्या कहा जाता है । तपस्या पद्धति के द्वारा ही ज्ञान की प्राप्ति सरलता पूर्वक संभव हो पाती है परन्तु उसके लिए कुछ महत्वपूर्ण तथ्यों का ध्यान रखना आवश्यक होता है । सर्व प्रथम तपस्या के लिए मन पर नियन्त्रण एवं एकाग्रता होना परम आवश्यक है क्योंकि मन की चंचलता तपस्या को प्रभावित करती है जिससे तपस्या में विघ्न उत्पन्न होता है । मन को कल्पनाओं तथा भावनाओं में बहने से रोकना अर्थात मन को भटकने से रोकने पर ही ध्यान लगाना संभव होता है जो तपस्या करने में सबसे अधिक आवश्यक कार्य होता है क्योंकि मन सदैव इन्सान को पथ भ्रष्ट करता है ।

मन की एकाग्रता के पश्चात दृढ इच्छा शक्ति का होना भी परम आवश्यक है क्योंकि इच्छा शक्ति कमजोर होने से भी तपस्या में विघ्न उत्पन्न होता है । तपस्या में लीन होने पर समय व्यतीत होते होते शरीर शिथिल तथा आलस्य पूर्ण हो जाता है जिससे इच्छा शक्ति कमजोर होने पर इन्सान तपस्या का दामन त्याग कर आराम करने का विचार करते ही उसकी तंद्रा भंग होकर ध्यान बधित हो जाता है जिससे तपस्या करना कठिन होता है । बुद्धि की जानकारियों का अभाव  भी तपस्या को प्रभावित करता है क्योंकि अधूरी जानकारी सम्पूर्ण ज्ञान जुटाने में सक्षम नहीं होती । सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्ति के लिए उस विषय की सम्पूर्ण जानकारी उपलब्ध होना भी आवश्यक है । तपस्या करने में भोजन के पदार्थ और मात्रा का ध्यान रखना भी आवश्यक है क्योंकि कम मात्रा से भूख परेशान करती है तथा अधिक मात्रा से आलस्य प्रभावित करता है । हल्के पदार्थ शीघ्र पचते हैं जिससे आलस्य भी कम आता है जितने समय प्रतिदिन तपस्या करनी हो उसके हिसाब से भोजन करना उचित रहता है ।

तपस्या इन्सान ज्ञान प्राप्ति के अतिरिक्त सृष्टि के रहस्यों की जानकारी के लिए भी करता है जिसमे वह संसार के निर्माण कार्यों और निर्माता के रहस्य खोजना चाहता है । जो इन्सान ज्ञान प्राप्त करके संसार के निर्माण में अपना सहयोग प्रदान करते रहे हैं वें सभी निर्माता के रूप में संसार को आदिकाल से आधुनिक वर्तमान काल तक लाने वाले आविष्कारक महापुरुष कहलाए । ऐसे महापुरुषों के प्रयासों से ही इन्सान वर्तमान में इतने प्रकार की सुख सुविधाएँ जुटा पाया है । वायु, जल, उर्जा व जीवन के अतिरिक्त संसार की प्रत्येक वस्तु इन्सान द्वारा निर्मित है जिसे इन्सान ने कठोर तपस्या से ज्ञान प्राप्त करके प्राप्त किया जिससे संसार प्रगति की ओर अग्रसर है ।

ज्ञान धार्मिक हो या भौतिक आविष्कारक ज्ञान को तपस्या पद्धति के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है क्योंकि विवेक मंथन और एकाग्रता रहित कोई भी पद्धति ज्ञान प्राप्ति में सक्षम नहीं होती इसलिए तपस्या करके ज्ञान प्राप्त करना इन्सान का उचित निर्णय होता है । ईश्वर या परमात्मा कही जाने वाली शक्ति की प्राप्ति या उसमे लीन होने के लिए तपस्या करने से पहले उसकी सत्यता का ज्ञान प्राप्त करना भी आवश्यक है । परमात्मा अर्थात परम + आत्मा का अर्थ है कि परम अर्थात जिससे अधिक या विशाल व महान कोई न हो आत्मा अर्थात जीवन = वह महानतम जीवन या जीव आत्मा जो संसार में महानतम स्थान रखती हो या महानतम कार्य करती हो । परमात्मा के सानिध्य से परम सुख की अनुभूति होती है तथा उसी सुख को प्राप्त करने के लिए तपस्या द्वारा ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है ।

अध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति के लिए करी गई तपस्या से ज्ञान प्राप्त होने पर सृष्टि के रहस्य उजागर होते हैं तथा जीव का जीवन मृत्यु का रहस्यमयी चक्र स्पष्ट हो जाता है । तपस्या से प्राप्त ज्ञान इन्सान का मतिभ्रम, दृष्टिभ्रम वगैरह सभी भ्रम समाप्त कर देता है तथा जीवन की सच्चाई व मंजिल मृत्यु के रहस्यों के ज्ञान से इन्सान में जीवन के प्रति मोह भंग होना स्वभाविक है । मोह के भंग होने से इन्सान के सभी विकार समाप्त होने लगते हैं क्योंकि मोह सभी विकारों की जड़ है । तपस्या द्वारा प्राप्त ज्ञान इन्सान को परम सुख की अनुभूति प्रदान करता है यह आत्मा द्वारा परमात्मा में लीन होने की किर्या है । संसार में अनेकों इंसानों ने अध्यात्मिक ज्ञान के लिए तपस्या करी परन्तु ज्ञान की प्राप्ति कुछ महान इंसानों को प्राप्त हुई जिनके ज्ञान से धर्मों की स्थापना हुई तथा उनके अनुयाइयों ने उन्हें ईश्वर समान सम्मान प्रदान किया ।

तपो सो राजा – राजा सो नर्क: अर्थात तपस्या करने पर इन्सान राजा बनता है तथा राजा बनकर नर्क को जाता है यह कहावत उन इंसानों के लिए है जिन्होंने अधूरी जानकारियों या भटकते मन के ध्यान से तपस्या करने की कोशिश करी तथा प्राप्त अधूरे ज्ञान से समाज को प्रभावित करने का प्रयास किया । जिन इंसानों ने उनके अधूरे ज्ञान से प्रभावित होकर उन्हें सम्मान प्रदान किया अधूरे ज्ञानी ने खुद को राजा के समान समझकर अहंकार में उन्हें आज्ञा देकर उसका पालन करने पर मजबूर करने या शोषण करने की कोशिश करी जिससे सम्मान देने वाले इंसानों ने उनका अहंकार देखकर बहिष्कार किया तथा कोई कोई तो जेल तक भी पहुंच गया जो उन्हें नर्क समान भोग्य हुई ।

तपस्या कोई भी इन्सान किसी भी स्थान पर करके ज्ञान प्राप्त कर सकता है ज्ञान का जाति, धर्म, स्थान से कोई लेना देना नहीं होता तथा तपस्या ज्ञान प्राप्ति या ज्ञान वृद्धि के लिए होती है । तपस्या को साधू संतों का कार्य समझना नादानी है क्योंकि तपस्या एक पद्धति है कोई आश्चर्य जनक कार्य नहीं । ध्यानमग्न होकर ईश्वर ईश्वर रटने को तपस्या समझना मूर्खता है तपस्या का उचित अर्थ ध्यानमग्न होकर बुद्धि द्वारा प्राप्त जानकारियों का विवेक द्वारा वैचारिक मंथन होता है तथा यह सभी इंसानों के वश का कार्य है ।

पूजा

August 2, 2014 By Amit 1 Comment

किसी के द्वारा अनमोल उपहार या ज्ञान प्राप्त होने अथवा उसके महान कार्यों के लिए संसार, समाज या किसी के लिए वह सम्मान का अधिकारी हो तो उसे पूज्य माना जाता है तथा पूज्य के प्रति सम्मान प्रकट करने की पद्धति को समाज में पूजा कहा जाता है । पूजा करने की अनेक प्रकार की पद्धतियों का उपयोग इंसानों तथा समाज के द्वारा अपनाया गया है परन्तु सभी पद्धतियों का ध्येय सिर्फ अपने पूज्य के प्रति सम्मान प्रकट करके उन्हें प्रसन्न करना ही होता है । पूजा करने वाला चाहे पूज्य के चरणों में दंडवत प्रणाम करता हो या हाथ जोडकर अभिवादन करता हो अथवा पदार्थों व वस्तुओं के द्वारा मनोनीत करता हो महत्व उसकी भावनाओं का होता है । पूजा का अर्थ सिर्फ अपनी भावनाएं पूज्य के समक्ष प्रकट करके उनका सम्मान करना होता है ।

पूजा इन्सान ईश्वर से आरम्भ होकर अपने अराध्य देवी, देवताओं तथा आदरणीय गुरुजनों व परिवार के सम्मानित सदस्यों एवं अपने माता पिता तक सभी की करता है परन्तु पूजा करने के अतिरिक्त उनके आचरणों की व्याख्या करके प्रसन्न होने से अधिक किसी कार्य को अंजाम नहीं देता । पूजा करना समाज में अपनी संस्कृति का सम्मान करना माना जाता है परन्तु सिर्फ सम्मान करने से किसी संस्कृति को जीवित नहीं रखा जा सकता । संस्कृति को जीवित तथा प्रतिष्ठित रखने के लिए उसके दिखाए रास्तों पर चलना तथा संस्कृति के नियमों का पालन करना अनिवार्य है जो संस्कृति की छवि में वृद्धि करता है । इसलिए समाज में सिर्फ लकीर पीटने की रूढ़िवादिता के अतिरिक्त संस्कृति तथा पूजा का कोई अर्थ नहीं है जिसके कारण वर्तमान पीढ़ी के इन्सान भटकने के अतिरिक्त कुछ नहीं कर पाते ।

इन्सान के व्यहवार और उसके आचरण में उसके माता पिता और परिवार की छवि दिखाई देती है क्योंकि वह माता पिता तथा परिवार से प्राप्त आचरण धारण करके उनके बताए रास्ते पर चलता है । परिवार के आचरण व व्यहवार से खराब आचरण और व्यहवार वाला इन्सान समाज में भटका हुआ माना जाता है तथा उसे सम्मान का पात्र नहीं समझा जाता । कोई-कोई इन्सान अपने माता पिता व परिवार के आचरण तथा व्यहवार के अतिरिक्त अपने बोद्धिक ज्ञान से एंव बुद्धिमान इंसानों की संगत में रहकर अत्याधिक सभ्रांत रूप समाज के समक्ष प्रस्तुत करता है जो कि बहुत कम इंसानों में ऐसा होता है । परिवार से अधिक सभ्य आचरण व व्यहवार परिवार व माता पिता की प्रतिष्ठा में वृद्धि करके समाज में सम्मान प्राप्त करवाता है ।

जिस प्रकार इन्सान अपने वंश के आचरण धारण करके समाज में प्रतिष्ठित रहता है उसी प्रकार वह जिसकी पूजा करके अपने मन में प्रसन्नता का अहसास करता है उसके आचरण धारण करके उसकी पूजा को उचित महत्व दे सकता है । किसी को गुरु मानने से इन्सान का महत्व संसार में नहीं होता जब तक वह गुरु द्वारा निर्देशित मार्गों पर नहीं चलता तथा गुरु के आचरण धारण नहीं करता । समाज में जिन देवी देवताओं की पूजा करने का प्रावधान है उनके आचरण धारण करना ही उनकी पूजा है ना सिर्फ सामने प्रसाद रखना या दीपक जलाना या फूल चढ़ाना । जब तक उनके आचरणों पर अपना जीवन समर्पित नहीं किया जाता उनकी पूजा का कोई अर्थ नहीं होता ।

हनुमान की पूजा करने से पूर्व पूजा करने वाले को हनुमान के समान ब्रह्मचर्य पालन करना भी सीखना आवश्यक है । वैष्णव देवी की पूजा का सही अर्थ इन्सान को शाकाहारी होने एंव सभी के प्रति दया भाव रखने पर ही होता है । सिद्धि विनायक गणेश की पूजा इन्सान को शांत स्वभाव, दयालु प्रवृति, बुराइयों को हजम करना तथा किसी पर बोझ ना बनकर स्वाभिमान से जीवन यापन करने के लिए प्रेरित करती है । शिव पूजा करने वाले इन्सान को उनके आचरण अर्थात इन्द्रियों तथा अपनी कामनाओं पर नियन्त्रण करके तपस्वी जीवन व्यतीत करना सीखना आवश्यक है । इसी प्रकार ब्रह्मा की चहुंमुखी दृष्टि, विष्णु की व्यहवारिकता, लक्ष्मी की सेवा, सरस्वती का ज्ञान, पार्वती का रिपु दमन जैसे आचरण धारण करना ही इनकी पूजा का उचित अर्थ होता है । जिस इन्सान ने आचरणों की अनदेखी करके सिर्फ अपनी पूजा करने तथा घंटियाँ बजाने पर ध्यान केन्द्रित रखा वह नादानी में सिर्फ अपना समय व्यर्थ गंवा देता है ।

मूर्तियों से इन्सान को जो शिक्षा प्राप्त होती है वह उसे त्याग कर पूजा करके जीवन में सफलता प्राप्त करना चाहता है जो उसे मूर्ति पूजा का अर्थ समझने पर ही प्राप्त हो सकती है । मूर्ति पूजा का अर्थ उनके द्वारा दर्शाए आचरणों को समझकर धारण करना उनकी पूजा है जिससे वह आचरण के बल पर जीवन में सफलता प्राप्त कर सके , इन्सान की स्वाभाविक कार्य शैली को आचरण कहा जाता है तथा अच्छी कार्य शैली इन्सान को सबल बनाती है जिससे वह कार्य सफलता पूर्वक सम्पूर्ण कर पाता है । इन्सान की असली पूजा कर्म पूजा है कर्म पूजा के द्वारा ही इन्सान जीवन में मन की सभी कल्पनाओं को पूर्ण कर सकता है।

ज्योतिष

August 12, 2014 By Amit Leave a Comment

भविष्य में होने वाली घटनाओं तथा कार्यों की जानकारी प्राप्त करने की विद्या को ज्योतिष कहा जाता है । ज्योतिष के मुख्य दो आधार हैं नक्षत्र ज्ञान एंव सामुद्रिक शास्त्र । ज्योतिष शास्त्र के जानकारों द्वारा कई प्रकार की विधियों से भविष्य की जानकारियों का पता लगाने का प्रयास करा जाता है परन्तु नक्षत्र ज्ञान व सामुद्रिक शास्त्र के अतिरिक्त सभी विधियां अनुमानों पर आधारित होती हैं जिनका कोई ठोस प्रमाण नहीं होता । नक्षत्र ज्ञान व सामुद्रिक शास्त्र ज्योतिष विद्या के मुख्य स्तम्भ माने जाते हैं जिनके द्वारा किसी भी इन्सान के भविष्य की जानकारी सरलता से प्राप्त करी जा सकती है । ज्योतिष का उदय भी इन दोनों के कारण ही हुआ है ।

ज्योतिष में नक्षत्र ज्ञान सूर्य की कक्षा में भ्रमण करने वाले ग्रहों की स्थिति का ज्ञात होना एंव उनके प्रभाव से इन्सान के जीवन में होने वाले कार्यों तथा  घटनाओं की जानकारी प्राप्त करने की विद्या है । ज्योतिष ने कुल नौ ग्रहों को इंसानी जीवन के लिए प्रभावशाली माना है तथा  इन नव ग्रहों की गणना से ही ज्योतिष की प्रत्येक भविष्यवाणी करी जाती है । ज्योतिष में सर्व प्रथम ग्रहों की स्थिति ज्ञात की जाती है जो वर्तमान में बहुत सरल कार्य है क्योंकि कम्प्यूटर ने ग्रहों की स्थिति स्पष्ट करने के अतिरिक्त ज्योतिष कुंडली बनाना तथा सभी प्रकार की गणना करना सरल कर दिया है । कोई भी कम्प्यूटर से अपनी ज्योतिष कुंडली सरलता से बना सकता है ।

नव ग्रह की गणना करना जितना सरल कार्य है ज्योतिष की भविष्य वाणी उतनी ही कठिन है क्योंकि ग्रहों का प्रभाव तथा उनकी शक्ति की परख हुए बगैर किसी भी प्रकार की भविष्य वाणी नादानी है । ग्रहों का प्रभाव इन्सान पर उनके द्वारा प्राप्त उर्जा से होता है तथा ग्रहों की दूरी व गति के कारण प्रतिपल उनके प्रभाव में परिवर्तन होता रहता है । हमारे सौर मंडल में सूर्य ही उर्जा का मुख्य श्रोत है जिसकी किरणें पूरे संसार को उर्जा प्रदान करती हैं परन्तु दूसरे ग्रहों से टकराकर किरणों के प्रभाव में परिवर्तन हो जाता है तथा उन्हें रश्मियाँ कहकर पुकारा जाता है । सभी ग्रहों की रश्मियों का प्रभाव भिन्न है जो इन्सान के शरीर व मस्तिक को प्रभावित करती हैं विभिन्न प्रभाव से इंसानी सोच व कार्य क्षमता भी विभिन्न प्रकार की होती है ।

सूर्य की उर्जा मस्तिक की याददास्त शक्ति को प्रभावित करती है इसी प्रकार चन्द्रमा मन को, मंगल भावनाओं को, बुध ग्रह बुद्धि को, गुरु विवेक को, शुक्र कल्पना शक्ति को, शनी इच्छा शक्ति को प्रभावित करते हैं । राहू केतु की नकारात्मक उर्जा सम्पूर्ण मस्तिक को प्रभावित करती है जो इन्सान के लिए संतुलित रूप में अति आवश्यक उर्जा है क्योंकि बुद्धि में नकारात्मक उर्जा ना हो तो किसी बुरे कार्य अथवा धोखे की परख करने की क्षमता नहीं होती जिसके फलस्वरूप कोई भी इन्सान मूर्ख बना कर अपना स्वार्थ सिद्ध कर सकता है । बुद्धि मानसिक तंत्र में जानकारियां प्राप्त करने की मुख्य भूमिका अदा करती है इसलिए सभी ग्रहों में बुद्ध ग्रह का नैसर्गिक बल सदा समान रहता है बाकि सभी ग्रहों का नैसर्गिक बल प्रतिपल कम व अधिक होता रहता है । सभी उर्जाएं संतुलित हों तो इन्सान सुख पूर्वक जीवन निर्वाह करता है परन्तु उर्जाओं का असंतुलन जीवन नर्क समान बना देता है । ज्योतिष द्वारा भविष्य जानने का कार्य कुछ महान आविष्कारकों के कारण सफल हो सका जिन्होंने नक्षत्र ज्ञान प्राप्त करके ज्योतिष शास्त्र की रचना की तथा ग्रहों के प्रभाव से संसार को अवगत कराया ।

ज्योतिष का दूसरा आधार सामुद्रिक शास्त्र इन्सान की शरीर की बनावट तथा हस्त रेखा विज्ञान उसके भविष्य को ज्ञात करने की ज्योतिष विद्या है । सभी इंसानों के शरीर की बनावट तथा रेखाओं में स्पष्ट अंतर होता है जो ग्रहों से प्राप्त उर्जा के प्रभाव से है और रेखाओं को देखकर अनुमान लगाया जाता है कि किस ग्रह के प्रभाव से इस इन्सान पर होने वाला असर इसके जीवन को प्रभावित करके सफल होने में बाधा उत्पन्न कर रहा है । ज्योतिष से कारणों का पता लगाकर निवारण करने की किर्या इन्सान को सफल जीवन प्रदान करे इसलिए असफल इन्सान ज्योतिष द्वारा अपने भविष्य की जानकारी और निवारण के लिए प्रयास करते रहते हैं ।

इन्सान द्वारा अपने जीवन सुधार के लिए ज्योतिष का सहारा लेना स्वाभाविक कार्य है तथा इसके लिए वह ज्योतिषियों के चक्कर लगाता है जहाँ उसे सिवाय लूट के कुछ प्राप्त नहीं होता क्योंकि नब्बे प्रति शत ज्योतिष के नाम पर सिर्फ लूट होती है । कोई भी विद्या बेकार नहीं होती परन्तु उसकी सम्पूर्ण जानकारी के बगैर उसका प्रयोग गलत अंजाम देता है इसलिए किसी भी निर्णय के लिए सावधानी आवश्यक होती है । किसी कार्य की सफलता के लिए गलत प्रकार के ज्योतिष शास्त्रियों के चक्कर में फंसकर नुकसान उठाने से अच्छा है खुद पर तथा अपनी कार्य क्षमता पर विश्वास किया जाए क्योंकि ज्योतिषी सिर्फ कुछ कारणों का अनुमान लगा सकता है परन्तु कार्य एवं कार्य की सफलता इन्सान को अपने परिश्रम से ही प्राप्त करनी पडती है । ज्योतिष द्वारा भविष्य के विषय में ऐसा होगा सोचना या कहना उचित हो सकता है परन्तु ऐसा ही होगा यह कहना सर्वदा अनुचित है क्योंकि जो होगा वह सिर्फ प्राकृति को ज्ञात है किसी इन्सान का खुद को प्राकृति का ज्ञाता समझना मूर्खता का कार्य है ।

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जीवन सत्यार्थ

इंसान के जीवन में जन्म से मृत्यु तक के सफर में तृष्णा, कामना तथा बाधाएं उत्पन्न होकर मानसिकता में असंतोष तथा भटकाव की स्थिति उत्पन्न कर देते हैं जिससे जीवन कष्टदायक व असंतुलित निर्वाह होता है। जीवन सत्यार्थ ऐसा प्रयास है जिसके द्वारा सत्य की परख करके कष्टकारी मानसिकता से मुक्ति पाकर जीवन संतुलित बनाया जा सकता है। पढने के साथ समझना भी आवश्यक है क्योंकि पढने में कुछ समय लगता है मगर समझने में सम्पूर्ण जीवन भी कम हो सकता है और समझने से सफलता प्राप्त होती है।

प्रस्तुत कर्ता - पवन कुमार

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