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बुलन्दी – bulandi

August 12, 2014 By Amit Leave a Comment

इन्सान द्वारा किए गए महत्वपूर्ण कार्यों से उसके जीवन स्तर में वृद्धि होना तथा समाज में उच्च कोटि की प्रतिष्ठा प्राप्त करना उसके जीवन की बुलन्दी होती है । संसार का प्रत्येक इन्सान बुलन्दी प्राप्त करके अपना जीवन उच्च स्तरीय निर्वाह करने तथा समाज में प्रतिष्ठित होने की अभिलाषा रखता है एवं अपना सम्पूर्ण जीवन बुलन्दी प्राप्ति के लिए संघर्ष करता है । जीवन में बुलन्दी प्राप्त करने के लिए अलग अलग प्रकार के कई विषय होते हैं जिनके द्वारा इन्सान अपना उच्च कोटि का जीवन स्तर निर्माण कर सकता है । मानसिक स्तर, देहिक कर्मठता, समाजिक रिश्ते एंव भौतिक संसाधन वगैरह कई महत्वपूर्ण विषय इन्सान के जीवन स्तर के निर्माण कर्ता होते हैं तथा उन विषयों द्वारा ही इन्सान अपने जीवन में बुलन्दियाँ प्राप्त करने में सक्षम होता है । इन्सान को निर्माण कर्ता विषयों का तथा उनकी कार्य शैली का ज्ञान होना भी आवश्यक है जिससे वह तीव्रता से अपनी अभिलाषा पूर्ण कर सके ।

जीवन की किसी भी बुलन्दी को प्राप्त करने के लिए सबसे महत्वपूर्ण इन्सान का मानसिक स्तर होता है तथा मानसिक स्तर में वृद्धि के लिए सर्व प्रथम सांसारिक एवं अपने विषय की सम्पूर्ण जानकारियों को बुद्धि द्वारा एकत्रित करना आवश्यक कार्य है जिसमे इन्सान का समय तथा परिश्रम सबसे अधिक लगता है । जितनी अधिक तीव्रता से जानकारियां एकत्रित होंगी सफलता भी उतनी शीघ्रता से कदम चूमेगी । एकत्रित जानकारियों को संतुलित एंव शांत मन तथा दृढ इच्छा शक्ति से विवेक द्वारा मंथन करके ज्ञान उत्पन्न किया जा सकता है तथा प्राप्त ज्ञान के बल से संसार के किसी भी कार्य को सम्पन्न किया जा सकता है एवं किसी भी बुलन्दी को सरलता पूर्वक प्राप्त किया जा सकता है ।

मानसिक ज्ञान की वृद्धि के साथ इन्सान को देहिक दृढ़ता की भी अति आवश्यकता होती है क्योंकि किसी भी बुलन्दी प्राप्ति के लिए इन्सान को अतिरिक्त परिश्रम की आवश्यकता होती है क्योंकि कमजोर अथवा आलस्य पूर्ण शरीर अधिक परिश्रम नहीं कर सकता । देहिक कर्मठता के लिए इन्सान को अतिरिक्त भोजन अथवा अधिक पोषक तत्वों की आवश्यकता नहीं होती तथा अधिक व्यायाम वगैरह करना भी आवश्यक नहीं होता । सामान्य एंव संतुलित भोजन ही इन्सान को पूर्ण कर्मठ बना सकता है परन्तु कर्मठ बनने के लिए आलस्य का त्याग कर समय का आदर करना अनिवार्य है एवं हानिकारक पदार्थों तथा नशीले पदार्थों का सेवन वर्जित होता है । इन्सान का अपनी काम वासना पर नियन्त्रण भी परम आवश्यक है क्योंकि काम के मद में शरीरिक विनाश के साथ समाजिक प्रतिष्ठा में भी हानि हो सकती है । एक सात्विक कर्मठ इन्सान ही अपने जीवन की किसी भी बुलन्दी को प्राप्त करने में पूर्ण सक्षम होता है ।

जीवन में उच्च कोटि का जीवन स्तर एंव समाजिक प्रतिष्ठा प्राप्ति के लिए इन्सान के समाजिक रिश्ते भी बहुत महत्वपूर्ण होते हैं । इन्सान किसी सेवा कार्य के पद पर हो या व्यापारी सबके जीवन में अडचनें अवश्य आती हैं तथा अडचनों को किसी के सहारे सरलता से दूर किया जा सकता है ऐसे समय पर समाजिक रिश्ते इन्सान को जीवन की सभी समस्याओं से जूझने में सहायता प्रदान करते हैं । समाजिक रिश्तों के सहयोग से इन्सान जीवन की सभी अडचनों को दूर करके अपनी मंजिल प्राप्त कर लेता है और समाजिक सहयोग ही इन्सान को बुलन्दियों पर पहुंचने में सहायक होता है । समाजिक रिश्तों को बनाए रखने के लिए इन्सान को सिर्फ अपने अच्छे आचरणों तथा कुशल व्यहवार की आवश्यकता होती है जिसे वह खुद पर नियन्त्रण रख्रते हुए प्रदर्शित कर सकता है ।

इन्सान का भौतिक स्तर भी बुलन्दी उपलब्ध करने में सहायक होता है विरासत में प्राप्त धन सम्पदा और संसाधन के बल पर जीवन के कार्य सरलता पूर्वक गतिशील हो जाते हैं तथा इन्सान अपनी इच्छानुसार किसी भी कार्य को सफल बना सकता है । अभावपूर्ण संसाधन इन्सान को सरलता से किसी भी कार्य में सफल होने में विघ्न उत्पन्न करते हैं परन्तु जो इन्सान विवेकशील एंव दृढ इच्छा शक्ति रखते हैं किसी भी प्रकार का भौतिक अभाव उनके मार्ग में विघ्न उत्पन्न नहीं कर सकता तथा उन्हें सफल होने से नहीं रोक सकता । जो इन्सान अभाव के होते जीवन में बुलन्दी प्राप्त करके ही दम लेते हैं समाज ने उन्हें सम्मानित करने के साथ उनके संघर्ष के द्रष्टांतों से समाज का मार्ग दर्शन हुआ ।

जीवन में बुलन्दी प्राप्त करने की अभिलाषा करना तथा बुलन्दी प्राप्त करने की कोशिश करना दो अलग अलग बातें हैं । अभिलाषा करना सरल कार्य है परन्तु साकार करने का प्रयास करना कठिन कार्य है बुलन्दी वही प्राप्त करता है जो बुलन्दी प्राप्त करने के प्रयास करता है । कुछ इन्सान प्रयास करने के उपरांत भी सफलता प्राप्त नहीं कर पाते क्योंकि उनकी परिस्थिति उनके विपरीत होकर उन्हें असफल कर देती है परन्तु वें इन्सान उनसे अच्छे हैं जिन्होंने बुलन्दी प्राप्त करने के लिए प्रयास ही नहीं किया । जो इन्सान सिर्फ कामनाएँ करते हैं तथा प्रयास नहीं करते वें कमजोर मानसिकता के बुजदिल इन्सान होते हैं जिन्होंने प्रयास किया और सफल नहीं हुए वें बुजदिल नहीं होते क्योंकि प्रयास करना आवश्यक है सफलता परिस्थिति के कारण प्राप्त भी हो सकती है तथा नहीं भी । कमजोर व दोहरी मानसिकता जीवन में कभी सफलता प्राप्त नहीं कर सकती ।

डर

September 20, 2014 By Amit Leave a Comment

किसी अनिष्ट की आशंका मात्र से श्वास गति तथा हृदय गति में तीव्रता उत्पन्न होना एंव अचानक मानसिक तंत्र में सक्रियता उत्पन्न होना इन्सान का डर होता है । डर इन्सान की इस प्रकार की नकारात्मक मानसिकता है जिसके कारण इन्सान की सभी मानसिक शक्तियाँ प्रभावित होती हैं जिससे उनकी स्वभाविक कार्यशैली में अवरोध उत्पन्न हो जाते हैं । डर के कारण इन्सान का शारीरिक तंत्र भी प्रभावित होता है तथा अत्यंत अधिक आक्रांतित होने पर इन्सान को मृत्यु तुल्य कष्ट अथवा इन्सान की मृत्यु तक हो जाती है । डर इन्सान के जीवन में सबसे अधिक प्रभावशाली विकार है जो जन्म से मृत्यु तक इन्सान का हमसफर रहता है ।

इन्सान में डर उत्पन्न होने के असंख्य कारण हैं सर्वाधिक डर की प्राथमिकता मस्तिक द्वारा शरीर की सुरक्षा के प्रति सतर्कता होती है । संसार के सभी जीव अपने जीवन की सुरक्षा के प्रति आक्रांतित होते हैं परन्तु इन्सान अपने अतिरिक्त दूसरों के लिए भी डर का अनुभव करता है । इन्सान में दूसरों के प्रति डर उत्पन्न होने का कारण इन्सान की मानसिकता में कल्पना शक्ति तथा भावना शक्ति का होना है जो अन्य जीवों में नहीं होती । इन्सान की कल्पना शक्ति डर में आश्चर्य जनक वृद्धि करती है जिसे इन्सान अपने विवेक द्वारा ही संतुलित कर सकता है । दूसरों के प्रति डर उत्पन्न होने का दूसरा कारण इन्सान के मोह का होता है जो अपने प्रिय के प्रति सुरक्षा की चिंता करना है जितना अधिक मोह उतना अधिक डर उत्पन्न होता है ।

मानसिक शक्तियों में डर का सबसे अधिक प्रभाव इन्सान की स्मरण शक्ति पर होता है किसी प्रकार का महत्वपूर्ण कार्य करते समय डर उत्पन्न होने पर स्मरण शक्ति कार्य करना बंद कर देती है । परीक्षा के समय अधिकांश विद्धार्थी डर उत्पन्न होने के कारण विषयों की उचित प्रकार से तैयारी करने के पश्चात भी प्रश्न पत्र समाधान करने में असफल रहते हैं क्योंकि आक्रांतित मस्तिक स्मरण शक्ति को उचित प्रकार संचालित करने में विफल रहता है । विद्धार्थी के मन में डर उत्पन्न करने का कार्य उसके अभिभावक करते हैं जो उस पर उच्च स्तर प्राप्त करने का निरंतर दबाव बनाए रखते हैं ।

शिक्षा के पश्चात सेवा कार्य हेतु साक्षात्कार के समय भी पूर्ण तैयारी के पश्चात प्रश्नों के उत्तर में हिचकिचाहट इन्सान के मन में असफलता का डर उत्पन्न होने के कारण होता है । साक्षात्कार के समय प्रश्न के उत्तर से अधिक प्रार्थी का आत्मविश्वास देखा जाता है जो आक्रांतित होने के कारण अस्थिर होता है । शिक्षा या सेवा कार्य में सफल होने के लिए आत्मविश्वास की दृढ़ता का होना अनिवार्य है लेकिन जिन अभिभावकों तथा परिवार के सदस्यों द्वारा आत्मविश्वास में वृद्धि होनी आवश्यक होती है उन्हीं के द्वारा सफलता के लिए अनाधिकृत दबाव बनाकर हौसला पस्त कर दिया जाता है एवं आत्मविश्वास खंडित कर दिया जाता है ।

इन्सान के मन में छोटे मच्छर के काटने से लेकर भूत प्रेत जैसे अफवाह वाले विषय तक डर उत्पन्न करने में सक्षम होते हैं । वर्तमान में इन्सान का सर्वाधिक डर अपने जीवन निर्वाह के भविष्य की सुरक्षा के कारण है जिसके लिए वह किसी भी प्रकार के कार्य को अंजाम देकर अधिक से अधिक धन एकत्रित करके भविष्य सुरक्षित करना चाहता है । इन्सान अपनी सन्तान को उच्च शिक्षा प्राप्त करके सर्वाधिक धन एकत्रित करने के लिए उकसाता है तथा किसी व्यवसाय द्वारा धन उपार्जन करने को बढ़ावा देता है । आरम्भ में सन्तान के असफल होने का डर होता है एवं सफल होने के पश्चात सन्तान द्वारा उपेक्षा करने अथवा उन्हें त्यागकर अलग होने का डर उत्पन्न होने लगता है । सन्तान में आपसी कलह का डर व पुत्रवधू द्वारा कलह का डर पुत्री को ससुराल में प्रताड़ित करने का डर जैसे परिवारिक डर सताते रहते हैं।

जिस जीवन निर्वाह के लिए इन्सान इतना अधिक धन एकत्रित करना चाहता है वह सिर्फ भोजन द्वारा ही पोषित होता है तथा साधारण भोजन सस्ता तथा पोष्टिक होता है जिसके लिए अधिक धन की आवश्यकता नहीं होती तथा कीमती व स्वादिष्ट भोजन बिमारियों में वृद्धि भी करता है । इन्सान में अनेकों प्रकार के कारण तथा अकारण डर उत्पन्न होने से उसका जीवन नर्क समान व्यतीत होता है । संसार में इतना अधिक डर कर इन्सान अपना जीवन किस प्रकार सुख व शांति पूर्वक व्यतीत कर सकता है यह इन्सान की मानसिकता पर प्रश्न चिन्ह है । इन्सान डर से मुक्ति सत्य को समझने एवं उसे मानकर ही प्राप्त कर सकता है क्योंकि इन्सान सत्य को समझता अवश्य है परन्तु मानने से परहेज करता है ।

सन्तान पर खर्च करके उससे सेवा की अपेक्षा करना व्यापर होता है जिसके सफल ना होने पर पीड़ा उत्पन्न होना स्वभाविक है । सन्तान के प्रति निस्वार्थ कर्तव्य पूर्ण करने के पश्चात उनसे किसी प्रकार की अपेक्षा ना करने से संतान की ओर से किसी भी प्रकार का डर उत्पन्न नहीं होता । जीवन सफर है तथा सफर में अनेकों समस्याएँ तथा कष्ट होते हैं मृत्यु मंजिल है तथा मंजिल पर पहुंच कर प्रत्येक प्रकार की शांति प्राप्त हो जाती है । मंजिल कब प्राप्त होगी उसका अनुमान नहीं होने पर समस्याओं से क्यों डरना सिर्फ मंजिल प्राप्ति का ध्यान सफर को सरल बना देता है तथा सभी प्रकार के डर से मुक्ति प्रदान करता है । परिणाम का मोह त्याग करने से सभी प्रकार के डर से शांति प्राप्त होती है एवं जीवन का मोह त्याग करने से डर समाप्त हो जाता है ।

स्वार्थ

July 25, 2015 By Amit 2 Comments

जब इन्सान अपने लाभ एंव हित के लिए कार्य करता है तो वह उसका स्वार्थ कहलाता है। स्व + अर्थ = स्वार्थ अर्थात खुद + लाभ = खुद का लाभ जो स्वार्थ कहलाता है । संसार का प्रत्येक प्राणी अपने हित का कार्य करता है जैसे अपने जीवन की रक्षा करना तथा जीवन निर्वाह करने के लिए भोजन तलाश कर खाना जिसके लिए अनेक जीव दूसरे जीवों का भक्षण करते हैं । जीवों का आपस में भक्षण करना कोई पाप नहीं है क्योंकि प्राकृति ने सभी जीवों को जीने का अधिकार दिया है जिसके लिए प्रत्येक जीव अपनी आवश्यकता अनुसार अपना भोजन ग्रहण करता है वह शाकाहारी है तो शाकाहारी यदि मांसाहारी है तो मांसाहारी भोजन खाता है । उदर पूर्ति का स्वार्थ सभी जीवों की स्वभाविक किर्या है इसके अतिरिक्त जीवन रक्षा के लिए या अन्य आवश्यकताओं के लिए सभी प्राणी अपना स्वार्थ पूर्ण करते हैं । इन्सान को भी संसार में अपने जीवन निर्वाह के लिए स्वार्थ सिद्ध करना आवश्यक है परन्तु स्वार्थ की भी अपनी मर्यादाएं हैं यदि मर्यादा में रह कर स्वार्थ पूर्ति करी जाए तो स्वार्थ कोई पाप नहीं है ।

स्वार्थ को समाज में अनुचित समझा जाता है किसी को स्वार्थी कहना उसके लिए अपशब्द के समान है जबकि संसार का प्रत्येक इन्सान स्वयं स्वार्थी होता है क्योंकि इन्सान द्वारा कर्म करने का आरम्भ ही स्वार्थ के कारण है यदि इन्सान का स्वार्थ समाप्त हो जाए तो उसे कर्म करने की आवश्यकता ही क्या है ? इन्सान को जब अपने तथा अपने परिवार के पोषण के लिए अनेकों वस्तुओं की आवश्यकता होती है तो उसमे स्वार्थ उत्पन्न होता है जिसके कारण वह कर्म करके अपने स्वार्थ सिद्ध करता है अर्थात इन्सान की आवश्यकता ही स्वार्थ है एंव स्वार्थ ही कर्म है यदि आवश्यकता ना हो तो स्वार्थ समाप्त एंव स्वार्थ ना हो तो कर्म समाप्त अर्थात स्वार्थ के कारण ही संसार का प्रत्येक प्राणी कर्म करता है इसीलिए संसार को स्वार्थी संसार कहा जाता है । यह इन्सान एंव अन्य जीवों का जीवन निर्वाह करने का स्वार्थ सिद्ध करना स्वभाविक तथा मर्यादित कार्य है जो संसार का संचालन अथवा कर्म है ।

स्वार्थ जब तक संतुलित है तब तक ही उचित है अन्यथा स्वार्थ की अधिकता होते ही जीवन में तथा समाज में अनेकों समस्याएँ उत्पन्न होने लगती हैं अपितु संसार में जितनी भी समस्याएँ हैं सभी इन्सान के स्वार्थ की अधिकता के कारण ही उत्पन्न हैं । इन्सान में जब स्वार्थ की अधिकता उत्पन्न होनी आरम्भ होती है तो वह स्वार्थ पूर्ति के लिए अनुचित कार्यों को अंजाम देने लगता है जो उसके जीवन में भ्रष्टाचार का आरम्भ होता है जिसके अधिक बढने से इन्सान धीरे धीरे अपराध की ओर बढने लगता है । इन्सान के स्वार्थ में लोभ का जितना अधिक मिश्रण होता है इन्सान उतना ही अधिक भयंकर अपराध करने पर उतारू हो जाता है यह स्थिति इन्सान में विवेक की कमी अथवा विवेकहीनता होने पर अधिक भयंकर होती है क्योंकि इन्सान परिणाम की परवाह करना छोड़ देता है या परिणाम से बेखबर हो जाता है जो उसके विनाश का कारण बन जाता है ।

इन्सान में स्वार्थ की अधिकता का कारण उसके मन की चंचलता एंव लोभ है । स्वार्थ की वृद्धि मन करता है तो उसमे रंग भरने का कार्य इन्सान की कल्पना शक्ति करती है तथा किर्याशील करने का साहस भावना शक्ति के कारण उत्पन्न होता है व स्वार्थ पूर्ति को अंतिम रूप इच्छाशक्ति प्रदान करती है । यदि इन मानसिक शक्तियों में आपसी तालमेल न हो तो स्वार्थ इन्सान के मन में अवश्य रहता है परन्तु वह अपने स्वार्थ को किर्याशील नहीं कर सकता । इन्सान यदि विवेक द्वारा अपनी स्वार्थी कामनाओं की पूर्ति करता है तो वह परिश्रम एंव बौद्धिक बल द्वारा जीवन में अनेकों संसाधन एंव धन एकत्रित कर सफलता प्राप्त करता है जो जीवन को खुशहाल बनाता है परन्तु इन्सान में विवेक की कमी या हीनता हो अथवा इन्सान का विवेक नकारात्मक भूमिका में सक्रिय हो तो वह फरेब, धोखेबाजी, ठगी, चोरी व लूट जैसे कार्यों द्वारा अपना स्वार्थ सिद्ध करने की ओर अग्रसर होता है जो उसे अपराधी बनाकर विनाश की राह पर ले जाता है ।

जो इन्सान स्वार्थ के नशे में अपराधिक कार्यों को अंजाम देते हैं वह कितने भी घातक हो सकते हैं ऐसे इंसानों के लिए रिश्तों एंव भावनाओं की कोई कीमत नहीं होती । जीवन में इन्सान को अनेक रिश्ते व सम्बन्ध एंव मित्र स्वार्थ की अधिक मात्रा से भरपूर मिलते हैं जो अपना स्वार्थ सिद्ध करते हुए हानिकारक बन जाते है बुद्धिमानी ऐसे इंसानों से दूरी बनाकर रखने एंव उनसे सतर्क रहने में है । रिश्तों में अपनापन समझकर किसी के स्वार्थ को सहन करना वास्तव में मूर्खता के अतिरिक्त कुछ नहीं होता क्योंकि लुटने या बर्बाद होने के पश्चात सावधानी दिखाने का कोई लाभ नहीं होता ।

इन्सान के मन में जब स्वार्थ की वृद्धि होने लगे यदि उसी समय मन को शांत किया जाए तो सहजता से शांत किया जा सकता है अन्यथा इन्सान का स्वार्थ पोषित होकर जीवन को विनाश के मार्ग पर ले जाता है एवं इन्सान को परिणाम भुगतने के समय जब अहसास होता है तब तक बहुत देरी हो जाती है । स्वार्थ के लिए हमें यह भी समझना आवश्यक है कि जीवन में स्वार्थ पूर्ति द्वारा भौतिक सुख तो जुटाए जा सकते हैं परन्तु स्वार्थी इन्सान का सम्मान धीरे धीरे समाप्त हो जाता है तथा उसका सामाजिक पतन भी निश्चित होता है क्योंकि स्वार्थ व सम्मान की आपसी शत्रुता होती है जो सदैव रहेगी यदि सम्मान चाहिए तो स्वार्थ का संतुलन बनाकर रखना आवश्यक है ।

स्वार्थ पर सुविचार पढ़ें।

ईमानदारी

March 6, 2016 By प्रस्तुत करता - पवन कुमार 11 Comments

कर्तव्य, मर्यादा व सत्य का पूर्ण निष्ठा से पालन करना ईमानदारी कहलाता है। जिस कार्य को उचित प्रकार व पूर्ण निष्ठा एवं सच्चाई से सम्पन्न किया जाए वह करने वाली इन्सान की ईमानदारी कहलाती है। कोई भी कार्य वह व्यापार हो या नौकरी अथवा किसी से किया गया वादा या किसी से लिया गया उधार एवं इन्सान के कर्तव्य व मर्यादाएं यदि पूर्ण निष्ठा व सच्चाई से किया जाए तब ही वह ईमानदारी से निभाया गया कर्तव्य कहा जाता है। किसी भी प्रकार का झूट या कर्तव्य परायणता में अभाव होने से वह ईमानदारी के क्षेत्र में नहीं आता। इन्सान ईमानदारी के विषय में अनेक प्रकार के वक्तव्य देता है परन्तु स्वयं ईमानदारी से परहेज करता है क्योंकि समाज में ईमानदारी के विषय में अनेकों प्रकार की भ्रांतियां हैं। ईमानदारी के विषय में समझा जाता है कि ईमानदार इन्सान का जीवन अत्यंत कठिनाई से तथा अभाव पूर्ण निर्वाह होता है जो वास्तव में मिथ्या है।

ईमानदारी का महत्व व ईमानदारी से होने वाला लाभ एवं ईमानदारी के कारण समाज द्वारा विश्वास तथा सम्मान प्राप्ति इन सब विषयों की समीक्षा करने एवं ईमानदारी की परिभाषा ज्ञात करने के पश्चात ही इन्सान ईमानदारी के प्रति जागरूक हो सकता है। ईमानदारी किसी प्रकार का भार नहीं है जिसे उठाने में शक्ति या साहस की आवश्यकता हो या कोई ऐसा बंधन नहीं है जिसका त्याग नहीं किया जा सकता। ईमानदारी मात्र कुछ नियम हैं जिनको सच्चाई व निष्ठा पूर्ण निभाने से इन्सान ईमानदार बन सकता है तथा समाज में ईमानदारी की छवि प्रस्तुत करी जा सकती है जिसके प्रभाव से इन्सान को प्रत्येक समय समाज में सम्मान तथा विश्वास कायम होने के कारण भरपूर सहयोग प्राप्त होता है। समाज व सम्बन्धी एवं मित्रगण किसी भी ईमानदार छवि के इन्सान को सदैव पूर्ण सहयोग देने को तत्पर रहते हैं। ईमानदार इन्सान पर बुरा समय या अभाव उत्पन्न होने पर उसे तन, मन व धन से सहयोग देने वालों की कोई कमी नहीं होती यह ईमानदार होने का लाभ व महत्व है।

इन्सान को जीवन में सर्वप्रथम परिवार के सदस्यों व सम्बन्धियों एवं मित्रों तथा समाज के प्रति कुछ कर्तव्य एवं मर्यादाएं निर्धारित होती हैं। जो इन्सान परिवार के प्रति अपने कर्तव्य पूर्ण निष्ठा से निभाता है उसको परिवार भी पूर्ण सम्मान प्रदान करता है। सम्बन्धों एवं समाज के प्रति सजगता एवं मर्यादा से तथा व्यवहारिक इन्सान सभी स्थानों पर सम्मान प्राप्त करता है यह एक ईमानदार व कर्तव्य निष्ठ होने का पुरस्कार होता है। जो इन्सान परिवार, सम्बन्धों व समाज की परवाह न करते हुए अपनी अय्याशी तथा अपने मनोरंजन व स्वार्थ पूर्ति में लिप्त रहते हैं उन्हें परिवार एवं समाज की दृष्टि में बेईमान समझा जाता है ऐसे इंसानों को ना सम्मान प्राप्त होता है तथा आवश्यकता होने पर किसी से सहयोग भी प्राप्त नहीं होता। यदि कोई इन्सान परिवार या सम्बन्धों की कर्तव्य परायणता में असमर्थ रहता है परन्तु पूर्ण प्रयास अवश्य करता है उसे बेईमान नहीं मजबूर तथा असहाय समझा जाता है क्योंकि इन्सान परिस्थितियों के आगे सदैव विवश होता है और विवशता बेईमानी नहीं होती।

जीविका उपार्जन के लिए जो इन्सान व्यापार करते हैं उनके लिए ईमानदारी की छवि होना अत्यंत आवश्यक है क्योंकि ईमानदारी से किया गया व्यापार भविष्य के लिए सुदृढ़ होता है। समाज ईमानदार व्यापारी से ही खरीददारी करना पसंद करता है इसलिए ईमानदारी से किया गया व्यापार सफलता का प्रमाण पत्र होता है। व्यापारी की ईमानदारी का अर्थ सामान के भाव से नहीं होता क्योंकि अधिक दाम वसूलने वाला लोभी होता है बेईमान नहीं होता। व्यापार में ईमानदारी का अर्थ है किसी सामान में मिलावट ना करना तथा वजन में किसी प्रकार की हेराफेरी ना करना। व्यापारी किसी घटिया सामान को ग्राहक को बताकर बेचता है तो वह पूर्ण ईमानदार है परन्तु जो बताए बगैर या घटिया सामान को उत्तम बताकर बेचता है तो वह बेईमान होता है।

सेवा कार्य अर्थात नौकरी करने वाले इन्सान का ईमानदार होना उसकी सफल नौकरी का प्रमाण पत्र होता है क्योंकि ईमानदार कर्मचारी किसी भी संस्थान अथवा निजी मालिक को अतिप्रिय होताहै। नौकरी में ईमानदारी का अर्थ है समय पर पहुंचकर अपने सभी कार्य पूर्ण निष्ठा के साथ करना जो कर्मठ व ईमानदार कर्मचारी के लिए सरल कार्य होता है। जो कर्मचारी देर से पहुंचते हैं तथा कार्य करने में आनाकानी या बहानेबाजी करते हैं अथवा समय बर्बाद करते हैं उन्हें कभी ईमानदार कर्मचारी नहीं कहा जा सकता। कार्य सम्पन्न करने के पश्चात विश्राम करने वाला कर्मचारी ईमानदार होता है परन्तु कार्य से पूर्व विश्राम करने वाला बेईमान कहलाता है।

वादा निभाना ईमानदारी होती है यदि किसी प्रकार का विघ्न या परेशानी उत्पन्न हो जाए तो लाचारी के प्रति अवगत करवाकर वादा पूर्ण ना करने की क्षमा मांगने वाला बेईमान नहीं लाचार कहलाता है। जो इन्सान वादा पूर्ण करने में सक्षम होकर भी निभाने में आनाकानी या मना करते हैं उन्हें ईमानदार नहीं समझा जा सकता। उधार लेकर समय पर वापस करना आवश्यक होता है यदि वापस करने में किसी प्रकार की मजबूरी उत्पन्न हो जाए तो उधार देने वाले को मजबूरी समझाकर समय मांगने व क्षमा मांगने से ईमानदारी कलंकित नहीं होती। उधार लेकर बहाने बनाना तथा छुपना ईमानदारी को कलंकित करना है।

ईमानदारी इन्सान की सकारात्मक मानसिकता है जिसके कारण वह अपने कर्तव्य पूर्ण निष्ठा व सच्चाई से निभाता है इसलिए ईमानदार इन्सान सभी को पसंद होते हैं। बेईमान इन्सान भी ईमानदार इन्सान पर विश्वास रखते हुए उससे सम्बन्ध रखना पसंद करते हैं। जीवन में ईमानदारी सफलता एवं सम्मान का प्रमाण पत्र है तथा बुरे समय में यदि परिवार भी सहायता करने से मना कर देता है तो ईमानदार इन्सान को समाज से सहयोग अवश्य प्राप्त होता है यही ईमानदारी का पुरुस्कार होता है।

विशेष = इन्सान कितना भी बेईमान हो वह सदैव ईमानदारी का ही सम्मान करता है जिसका प्रमाण है कि बेईमान इन्सान अपने परिवार के सदस्यों, मित्रों, सम्बन्धियों एंव अपने कर्मचारियों अथवा जो भी उससे सम्बन्धित हो सभी से अपने प्रति ईमानदारी की अभिलाषा करता है । इन्सान स्वयं बेईमान होकर भी अपने प्रति किसी की बेईमानी बर्दास्त नहीं कर सकता अर्थात विजय सदैव ईमानदारी की ही होती है ।

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जीवन सत्यार्थ

इंसान के जीवन में जन्म से मृत्यु तक के सफर में तृष्णा, कामना तथा बाधाएं उत्पन्न होकर मानसिकता में असंतोष तथा भटकाव की स्थिति उत्पन्न कर देते हैं जिससे जीवन कष्टदायक व असंतुलित निर्वाह होता है। जीवन सत्यार्थ ऐसा प्रयास है जिसके द्वारा सत्य की परख करके कष्टकारी मानसिकता से मुक्ति पाकर जीवन संतुलित बनाया जा सकता है। पढने के साथ समझना भी आवश्यक है क्योंकि पढने में कुछ समय लगता है मगर समझने में सम्पूर्ण जीवन भी कम हो सकता है और समझने से सफलता प्राप्त होती है।

प्रस्तुत कर्ता - पवन कुमार

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