
इन्सान ने हजारों वर्ष पहले जब सभ्यता की तरफ कदम बढाया और वह बस्तियां बना कर एकत्रित परिवार की तरह बसने लगा तब उसने जन्म से मृत्यु तक जीवन जीने के नियम निर्धारित किए तथा उन नियमों के अनुसार जीवन जीने की शैली निर्धारित करी । जीवन जीने की इस शैली को धर्म का नाम दिया गया जिसका अनुसरण करके सभी इंसानों को अपने जीवन के सभी महत्व पूर्ण कार्यों को करना तय हुआ । रिश्ते नाते व जाति वगैरह सभी कार्यों के बंटवारे करके धर्म शैली निर्धारित करी गई थी जो समाज में रहने वाले इंसानों को मान्य होती थी तथा सभी जीवन यापन की शैली अर्थात धर्म के अनुसार जीवन व्यतीत करते थे ।
धर्म इन्सान की सभ्यता और संस्कृति को दृशाता है तथा इन्सान की सोच का भी आधार प्रकट करता है क्योंकि प्रत्येक इन्सान धर्म के अनुसार अपने जीवन के सभी महत्वपूर्ण फैसले करता है जैसे सम्बन्ध, शादी विवाह, रहन सहन , जीवन मरण यहाँ तक खान पान भी धर्म अनुसार ही होता है । व्यतीत समय के साथ इन्सान की बुद्धि ने विकास किया और धर्म में शुद्धिकरण की धारणाएँ उत्पन्न हुई जिससे धर्म की त्रुटियों को समाप्त किया जा सके परन्तु धर्म के कट्टर पंथियो द्वारा नकारने पर समाज टुकड़ों में विभाजित हो गया तथा नये धर्मों की स्थापना होती गई जो पूर्व धर्म का शुद्धिकरण करके बनाए गए ।
जैन व बौध धर्म बना जिससे पता चलता है कि उस समय कितनी हिंसा व अत्याचार समाज में होगा क्योंकि इन धर्मों की बुनियाद हिंसा के विरुद्ध थी । इनके नियम अहिंसा, अस्तेय, (चोरी ना करना) अपरिग्रह, (जमाखोरी ना करना) सत्य वचन एंव मद्धपान निषेध उस समय की परिस्थिति दृशाते हैं । स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा आर्य समाज की स्थापना मूर्ति पूजा के विरुद्ध शंखनाद था क्योंकि उस समय धर्म के नाम पर डराकर मूर्ति पूजा करवा कर इंसानों को मूर्ख बना कर पूरी तरह लूटा जा रहा था । स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा सत्यार्थ प्रकाश नामक पुस्तक से इसी लूट का खुलासा किया गया ।
जिस समय इन सभी धर्मों की स्थापना हुई उस समय इन्सान की बुनियादी आवश्यकताएँ सिर्फ भोजन, वस्त्र एंव घर थे जो एक सदी पहले तक यही रहे उनमे किसी प्रकार की वृद्धि नहीं हुई । परन्तु वर्तमान समय में इन्सान की आवश्यकताएँ इतनी अधिक हो गई हैं कि इन्सान का जीवन समस्याओं का चक्रव्यूह बन गया है । वर्तमान संसार में इतने आधुनिक उपकरण एवं संसाधन उपलब्ध हैं जिन्हें प्राप्त करने तथा उनके रख रखाव व उनके उपयोग में होने वाला खर्च इन्सान को धन प्राप्ति की दौड़ में लगा देता है और इन्सान जीवन भर धन प्राप्ति के लिए दौड़ता रहता है । ये आधुनिक उपकरण और संसाधन कुछ दशकों से ही इन्सान के जीवन में प्रविष्ट हुए हैं परन्तु इनकी बढती आवश्यकता और इनके प्रति इन्सान का आकर्षण उसे जीवन भर व्यस्त रखता है ।
वर्तमान में भी इन्सान को अपने जीवन की शैली पुरानी रुढ़िवादी प्रथाओं के अनुसार व्यतीत करनी पड रही है क्योंकि हमारे धर्म में हजारों वर्ष पुरानी प्रथाओं का नवीनीकरण और शुद्धिकरण नहीं हुआ है जो वर्तमान समय की आवश्यकता है । वर्तमान में स्त्री पुरुष से कंधे से कंधा मिलाकर सभी कार्य कर रही है बड़े बड़े पदों पर विराजमान होकर और राजकीय कार्यों में सहयोग देकर संसार के निर्माण की भी हिस्सेदार बनी है । बहुत से आविष्कारों में सहायक की भूमिका निभाने वाली स्त्री को आज भी हीनभावना की दृष्टि से देखा जाता है जिसका प्रमाण दहेज प्रथा है । हमारे इतिहास की पुरानी घटनाओं पर आधारित त्यौहारों की प्रथाओं से धन व समय का नाश इन्सान के जीवन की समस्याओं में वृद्धि करता है जिन्हें मजबूरन सहन करना पड़ता है ।
धर्म के नाम पर होने वाली लूट व सम्प्रदायिक लड़ाई झगड़े इन्सान की मूर्खता की पहचान बनते जा रहे हैं । जब धर्म स्थापित होता है समाज की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर इंसानों को आपस में जोड़ने के लिए बनता है । जो धर्म के नाम पर लूटते हैं या आपस में लड़ते हैं वें इन्सान के नाम पर कलंक होते हैं उनसे बचना आवश्यक है । धर्म में अतिशीघ्र कभी परिवर्तन नहीं होता परन्तु खुद को परिवर्तित करना सरल कार्य है इसका आरम्भ करने पर ही धर्म में शुद्धिकरण और नवीनीकरण होता है जिसकी पहल करनी वर्तमान की आवश्यकता है । धर्म के नाम पर मूर्ख बनने वाले को यह समझना आवश्यक है कि धर्म जीवन की सुविधा के लिए बना है इन्सान धर्म के लिए नहीं बना और इन्सान का पहला व अंतिम एक ही धर्म है इंसानियत ।