जीवन का सत्य

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धर्म

April 26, 2014 By Amit Leave a Comment

religion

इन्सान ने हजारों वर्ष पहले जब सभ्यता की तरफ कदम बढाया और वह बस्तियां बना कर एकत्रित परिवार की तरह बसने लगा तब उसने जन्म से मृत्यु तक जीवन जीने के नियम निर्धारित किए तथा उन नियमों के अनुसार जीवन जीने की शैली निर्धारित करी । जीवन जीने की इस शैली को धर्म का नाम दिया गया जिसका अनुसरण करके सभी इंसानों को अपने जीवन के सभी महत्व पूर्ण कार्यों को करना तय हुआ । रिश्ते नाते व जाति वगैरह सभी कार्यों के बंटवारे करके धर्म शैली निर्धारित करी गई थी जो समाज में रहने वाले इंसानों को मान्य होती थी तथा सभी जीवन यापन की शैली अर्थात धर्म के अनुसार जीवन व्यतीत करते थे ।

धर्म इन्सान की सभ्यता और संस्कृति को दृशाता है तथा इन्सान की सोच का भी आधार प्रकट करता है क्योंकि प्रत्येक इन्सान धर्म के अनुसार अपने जीवन के सभी महत्वपूर्ण फैसले करता है जैसे सम्बन्ध, शादी विवाह, रहन सहन , जीवन मरण यहाँ तक खान पान भी धर्म अनुसार ही होता है । व्यतीत समय के साथ इन्सान की बुद्धि ने विकास किया और धर्म में शुद्धिकरण की धारणाएँ उत्पन्न हुई जिससे धर्म की त्रुटियों को समाप्त किया जा सके परन्तु धर्म के कट्टर पंथियो द्वारा नकारने पर समाज टुकड़ों में विभाजित हो गया तथा नये धर्मों की स्थापना होती गई जो पूर्व धर्म का शुद्धिकरण करके बनाए गए ।

जैन व बौध धर्म बना जिससे पता चलता है कि उस समय कितनी हिंसा व अत्याचार समाज में होगा क्योंकि इन धर्मों की बुनियाद हिंसा के विरुद्ध थी । इनके नियम अहिंसा, अस्तेय, (चोरी ना करना) अपरिग्रह, (जमाखोरी ना करना) सत्य वचन एंव मद्धपान निषेध उस समय की परिस्थिति दृशाते हैं । स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा आर्य समाज की स्थापना मूर्ति पूजा के विरुद्ध शंखनाद था क्योंकि उस समय धर्म के नाम पर डराकर मूर्ति पूजा करवा कर इंसानों को मूर्ख बना कर पूरी तरह लूटा जा रहा था । स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा सत्यार्थ प्रकाश नामक पुस्तक से इसी लूट का खुलासा किया गया ।

जिस समय इन सभी धर्मों की स्थापना हुई उस समय इन्सान की बुनियादी आवश्यकताएँ सिर्फ भोजन, वस्त्र एंव घर थे जो एक सदी पहले तक यही रहे उनमे किसी प्रकार की वृद्धि नहीं हुई । परन्तु वर्तमान समय में इन्सान की आवश्यकताएँ इतनी अधिक हो गई हैं कि इन्सान का जीवन समस्याओं का चक्रव्यूह बन गया है । वर्तमान संसार में इतने आधुनिक उपकरण एवं संसाधन उपलब्ध हैं जिन्हें प्राप्त करने तथा उनके रख रखाव व उनके उपयोग में होने वाला खर्च इन्सान को धन प्राप्ति की दौड़ में लगा देता है और इन्सान जीवन भर धन प्राप्ति के लिए दौड़ता रहता है । ये आधुनिक उपकरण और संसाधन कुछ दशकों से ही इन्सान के जीवन में प्रविष्ट हुए हैं परन्तु इनकी बढती आवश्यकता और इनके प्रति इन्सान का आकर्षण उसे जीवन भर व्यस्त रखता है ।

वर्तमान में भी इन्सान को अपने जीवन की शैली पुरानी रुढ़िवादी प्रथाओं के अनुसार व्यतीत करनी पड रही है क्योंकि हमारे धर्म में हजारों वर्ष पुरानी प्रथाओं का नवीनीकरण और शुद्धिकरण नहीं हुआ है जो वर्तमान समय की आवश्यकता है । वर्तमान में स्त्री पुरुष से कंधे से कंधा मिलाकर सभी कार्य कर रही है बड़े बड़े पदों पर विराजमान होकर और राजकीय कार्यों में सहयोग देकर संसार के निर्माण की भी हिस्सेदार बनी है । बहुत से आविष्कारों में सहायक की भूमिका निभाने वाली स्त्री को आज भी हीनभावना की दृष्टि से देखा जाता है जिसका प्रमाण दहेज प्रथा है । हमारे इतिहास की पुरानी घटनाओं पर आधारित त्यौहारों की प्रथाओं से धन व समय का नाश इन्सान के जीवन की समस्याओं में वृद्धि करता है जिन्हें मजबूरन सहन करना पड़ता है ।

धर्म के नाम पर होने वाली लूट व सम्प्रदायिक लड़ाई झगड़े इन्सान की मूर्खता की पहचान बनते जा रहे हैं । जब धर्म स्थापित होता है समाज की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर इंसानों को आपस में जोड़ने के लिए बनता है । जो धर्म के नाम पर लूटते हैं या आपस में लड़ते हैं वें इन्सान के नाम पर कलंक होते हैं उनसे बचना आवश्यक है । धर्म में अतिशीघ्र कभी परिवर्तन नहीं होता परन्तु खुद को परिवर्तित करना सरल कार्य है इसका आरम्भ करने पर ही धर्म में शुद्धिकरण और नवीनीकरण होता है जिसकी पहल करनी वर्तमान की आवश्यकता है । धर्म के नाम पर मूर्ख बनने वाले को यह समझना आवश्यक है कि धर्म जीवन की सुविधा के लिए बना है इन्सान धर्म के लिए नहीं बना और इन्सान का पहला व अंतिम एक ही धर्म है इंसानियत ।

ईश्वर

April 26, 2014 By Amit Leave a Comment

bhagwan

असंख्य तारों का यह विशाल ब्रह्माण्ड और इसके अद्भुत सौर मंडल में अपने पथ पर सूर्य का करोंडो वर्षो से भ्रमण करती पृथ्वी तथा पृथ्वी पर उपलब्ध जीवन जिसके रहस्यों को खोजता इन्सान अपनी उपलब्धिओं पर खुश होता एंव अपनी पीठ ठोकते नहीं अघाता । परन्तु इस ब्रह्माण्ड की रचना और इसमें जीवन मृत्यु का चक्र नियन्त्रण करने वाली ब्रह्माण्ड की रहस्यमय महानतम शक्ति जिसे ईश्वर, अल्लाह या गॉड किसी भी नाम से पुकारा जाए उसके बारे में इन्सान की जानकारी नगण्य है । संसार के अनेकों रहस्य ऐसे हैं जिनका पता लगाने में इन्सान असमर्थ है वह इन रहस्यों को ईश्वर की अद्भुत रचना मानकर छोड़ देता है । आदिकाल से वर्तमान तक इन्सान ईश्वर को खोज कर उसका सानिध्य प्राप्त करने की कोशिश में लगा हुआ है तथा इस कार्य के लिए इन्सान द्वारा प्रत्येक संभव प्रयास किया गया एंव होता रहेगा ।

संसार में जब इन्सान समस्याओं के चक्रव्यूह में फंस जाता है तथा उन समस्याओं का समाधान नहीं प्राप्त होता तो वह ईश्वर की खोज में निकल पड़ता है क्योंकि अपनी समस्याओं का जिम्मेदार वह ईश्वर को मानता है और समस्या का निवारण भी ईश्वर के द्वारा चाहता है । इन्सान की इसी कमजोरी को पहचान कर धूर्त इन्सान ईश्वर के नाम पर तरह तरह के आडम्बर रचते हैं और उसे मूर्ख बना कर लूटते हैं । ईश्वर के दर्शन तथा उसके द्वारा आशीर्वाद प्राप्त करने की इच्छा इन्सान को मन्दिरों में पहुँचा देती है जहाँ पर अनेकों प्रकार की मूर्तियाँ अलग अलग प्रकार से सजी धजी खड़ी रहती हैं । उन मूर्तियों को ईश्वर या उसका प्रतिनिधि जानकर उसके आगे आराधना कर प्रसाद व फूल अर्पण करके अपनी व्यथा प्रकट करने वाला इन्सान उनसे उम्मीद करता है कि वें उसके जीवन की सभी समस्याओं को समाप्त करके उसके जीवन को खुशियों से भर देंगे ।

इन्सान की कल्पना को फलीभूत होने में अनेक प्रश्न उत्पन्न होते हैं जिनका उत्तर उसका उचित मार्गदर्शन कर सकता है । जिन मूर्तियों को वह ईश्वर के प्रतिनिधि के रूप में देखता है वे सभी हजारों वर्ष पूर्व होते थे तथा मूर्ति का निर्माण कुछ समय पूर्व हुआ है फिर बिना देखे किस प्रकार किसी की मूर्ति बनाई जा सकती है । मूर्ति को बांसुरी पकड़ा देने से वह कृष्ण की मूर्ति कहलाती है यदि कंधे पर तीर कमान रख दिया जाए तो वह राम हो जाता है । गले में सर्प की माला होने से शिव की मूर्ति कहलाती है अर्थात बांसुरी या तीर कमान व सर्प उनकी पहचान है तो बंसुरी या तीर कमान या सर्प से ही अपनी इच्छाओं की पूर्ति की आस लगाना क्या उचित निर्णय है क्योंकि मूर्ति तो किसी की भी नहीं है वह सिर्फ मूर्तिकार की कल्पना मात्र है । इसी प्रकार तस्वीरों से अपनी समस्याओं का निवारण चाहने वालों को समझना पड़ेगा कि यह तस्वीर किसी चित्रकार की कल्पना मात्र है एंव कल्पनाएँ किसी का भला नहीं कर सकती हैं ।

ईश्वर को सृष्टि का रचेयता मान कर इन्सान का यह मानना है कि सभी जीवों को चाहे वह पशु हो या पक्षी इन्सान हो या जानवर जलचर हो या नभचर भोजन ईश्वर के द्वारा उपलब्ध होता है । परन्तु इन्सान ईश्वर को भोग लगाकर उसका तिरस्कार करता है तथा छोटा सा दीपक जलाकर, फूल चढाकर, धूपबत्ती या अगरबत्ती जला कर उसके बदले में संसार के सभी सुख प्राप्त करना चाहता है । इन्सान किसी मूर्ति के आगे प्रार्थना करते समय उसे अपना पूरा परिचय एंव पता देना भी भूल जाता है जिसके कारण भी काम में बाधा उत्पन्न हो जाती है । संसार की इतनी आबादी में किसी की पहचान करने जैसा कार्य इतना सरल नहीं होता इसलिए अपना पूरा पता उचित प्रकार से देने पर भूल होने की संभावना समाप्त हो जाती है ।

ईश्वर जीवन प्रदान करने के पश्चात किसी के जीवन में किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करता क्योंकि ईश्वर द्वारा किसी प्रकार का हस्तक्षेप का कोई प्रमाण नहीं है एंव यदि उसे हस्तक्षेप करना होता तो वह संसार में होने वाले पाप तथा अत्याचार को अवश्य रोकता जिससे उसकी बनाई हुई दुनिया का सर्वनाश होने से बच जाए । संसार में सबसे बुरे कार्य इन्सान द्वारा ही होते हैं जिसमे बलात्कार व हत्या सबसे घिनौने व जघन्य अपराध हैं जिससे ईश्वर की सृष्टि के नियम भंग होते हैं । बलात्कारी एंव हत्यारे को सजा ना दे सकने का कारण ईश्वर का किसी के कार्य में हस्तक्षेप ना करने का प्रमाण है । इसलिए ईश्वर की आराधना किसी प्रकार की प्राप्ति के लिए करना मूर्खता पूर्ण कार्य है ईश्वर के विषय पर भ्रमित करके धूर्त व चालाक इन्सान भोले इंसानों की भावनाओं का नाजायज लाभ उठाते हैं इसलिए अपने अंत:करण में झांककर अपने विवेक द्वारा सच्चाई का पता लगा कर ही किसी पर विश्वास करना उचित निर्णय होता है ।

किसी से वह वस्तु मांगी जा सकती है जो उसकी हो अथवा जिस पर उसका अधिकार हो इसलिए ईश्वर से भौतिक वस्तुएं मांगना नादानी है क्योंकि इस संसार में सुई से लेकर हवाई जहाज तक इन्सान द्वारा निर्मित है । किसी प्रकार की नौकरी मांगना भी नादानी ही है क्योंकि ईश्वर ने किसी को किसी का नौकर नहीं बनाया ईश्वर की तरफ से सभी जीव आजाद हैं । धन सम्पदा मांगने से उत्तम ईश्वर से सद बुद्धि अवश्य मांगी जा सकती है क्योंकि बुद्धि ईश्वरीय देन है तथा बुद्धि के बल पर कोई भी प्राप्ति या कार्य सरलता से किया जा सकता है । ईश्वर किसी मंदिर के आश्रित नहीं है अथवा किसी मंदिर में शरणागत नहीं है ईश्वर प्रत्येक स्थान पर विराजमान है तो फिर क्यों स्थान – स्थान पर उसे तलाशना सिर्फ अपने विवेक का उपयोग करने की आवश्यकता है ईश्वर को तलाशने की आवश्यकता स्वयं समाप्त हो जाएगी ।

साधू व संत

April 26, 2014 By Amit Leave a Comment

sadhu sant

इन्सान मंदिरों से व भगवान से निराश होकर साधू या संतों का सहारा लेता है कि शायद ये उसके दुखी जीवन में ख़ुशी प्रदान करेंगे , इंसान की नजर में साधू या संत तो ईश्वर की तरह होता है इस सच्चाई को जानने की आवश्यकता है कि साधू और संत का आधार क्या है अर्थात साधू या संत कैसे उत्पन्न होते हैं । जन्म से कोई साधू या संत नहीं होता । दो प्रकार से साधू या संत उत्पन्न होते हैं प्राकृतिक तथा अप्राकृतिक

प्राकृतिक: मनुष्य के जन्म के पश्चात सर्व प्रथम उसमें उत्पन्न होने वाला विकार (मोह) है एंव मोह के दो रूप हैं: भौतिक व देहिक

भौतिक मोह से (लोभ) उत्पन्न होता है जिसका बहूरूप भ्रष्टाचार है दैहिक मोह से (काम) जन्म लेता है जिसका विकराल रूप बलात्कार है । जब मनुष्य कुछ प्राप्त कर लेता है तो (अहंकार) पनपता है एंव अहंकार है तो (क्रोध) अवश्य उत्पन्न होगा ये पाँच विकार मनुष्य को पूर्ण रूप से सांसारिक बनाते है । किसी मनुष्य में संसारिक दुखों से द्रवित होकर जीवन के प्रति मोह भंग होने लगता है ऐसी स्थिति में लोभ व काम दम तोड़ने लगते हैं, तब उसके मन में वैराग्य उत्पन्न होने लगता है । मोह नहीं तो अपने व पराये में कोई भेद नहीं रहता । लोभ नहीं तो धन क्या जायदाद क्या । काम नहीं तो जवानी क्या बुढापा क्या स्त्री पुरुष सभी प्रकार के भेद समाप्त हो जाते हैं । वैराग्य की चरम सीमा अहंकार व क्रोध का समूल नाश कर देती है । अहंकार व क्रोध नहीं तो मान अपमान की सोच भी नहीं होती । तब सांसरिक इन्सान साधू बनता है ।

साधू जब अपने अंतर मन से विचारों का मंथन करते हुए सत्य की खोज में साधना करता है तो कभी-कभी किसी साधु को अध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है । तब वह साधू-संत में परिवर्तित हो जाता है, संत वह शक्ति है जो अपने ज्ञान से समाज को नई दिशा प्रदान करने की शक्ति रखता है , जैसे गौतम बुध द्वारा कठिन साधना से प्राप्त ज्ञान से जब उन्होंने उपदेश  दिए तो तब बौध धर्म का जन्म हुआ, जैसे महावीर स्वामी के ज्ञान से जैन धर्म को ठोस स्तम्भ मिला जैसे मोहम्मद साहब के ज्ञान से इस्लाम धर्म का जन्म हुआ, जैसे ईसा के ज्ञान से ईसाई धर्म स्थापित हुआ । संत कबीर के दोहे आज भी हमारे जीवन को ज्ञान की रोशनी प्रदान करते हैं जैसे गुरू नानक देव के ज्ञान से सिक्ख धर्म की स्थापना हुई, जैसे महर्षि दयानन्द सरस्वती के ज्ञान से आर्य समाज की स्थापना हुई । सदियों में कोई संत उत्पन्न होता है जो एक प्राकृतिक उपलब्धि है ।

अप्राकृतिक: जब कोई इन्सान संसारिक दुःखों से डर जाता है तथा वह कर्मों से भाग कर साधू का चोला धारण कर लेता है एंव हमारे शास्त्रों से कुछ ज्ञान प्राप्त करके अपनी अधूरी कामनाओं की पूर्ति हेतु समाज को मूर्ख बनाता है तथा समाज का भरपूर शोषण करता है । वह खुद को चाहे संत कहे या धर्म गुरू सब पांखड है । यह अंतर सांसारिक इन्सान तथा साधू व संत का है इसे हमारे समाज को स्वंय समझना पड़ेगा । ऐसा नही है कि सांसारिक इन्सान में ज्ञान कम है किसी-किसी मनुष्य में संतों से भी अधिक ज्ञान है, परन्तु पाँचो विकार मोह, लोभ, काम, क्रोध, अहंकार उसके ज्ञान को प्रभावित करते हैं जिसके कारण वह सत्य बोलने से भी डरता है ।

इन्सान की विकृत बुद्धि एवं उसके मन का अधिकार मानसिकता पर हो जाने से वह सच्चाई से दूर भागता है तथा बहस करता है । कभी कभी तो मनुष्य चिल्ला-चिल्ला कर बहस करके सच्चाई को दबाने का प्रयास करता है । लालची तथा अहंकारी साधू हो या संत के चोले में जो भी इंसान है वह कभी किसी का भला नहीं कर सकता । वह समाज में दुःखी इंसानों को ढूंढ कर अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहता है । संत कहे जाने वाले ये धन के लालची इन्सान अपनी लच्छेदार बातों से फंसा कर इंसानो को तन, मन व धन से लूट लेते हैं तथा इनके द्वारा लुटे हुए इन्सान शर्म से समाज में अपना मुँह खोलने से भी कतराते हैं कहीं समाज उन्हें मूर्ख न समझे यही हमारे समाज की वास्तविकता है ।

श्रद्धा

April 3, 2016 By Amit Leave a Comment

प्राकृति संचालक, महान विभूति, महान हस्ती अथवा कोई मार्ग दर्शक जिनसे किसी प्रकार की प्राप्ति होने की आशा होती है उनके प्रति जब कोई अपनी भावनाओं के वशीभूत खुद को समर्पित करते हुए सेवा एवं नमन करता है उसे इन्सान की श्रद्धा कहा जाता है । श्रद्धा एक प्रकार का मूल्य है जिसे चुकाकर इन्सान अपनी इच्छित वस्तु या विषय को मुफ्त प्राप्त करना चाहता है क्योंकि अन्य किसी प्रकार का मूल्य चुकाकर प्राप्ति होने से इन्सान किसी प्रकार की श्रद्धा नहीं रखता ।

श्रद्धा इन्सान सर्वाधिक प्राकृति संचालक अर्थात ईश्वर के प्रति रखता है परन्तु इसके अतिरिक्त अनेक प्रकार के देवी देवताओं, साधू संतों, तांत्रिकों, धर्म गुरुओं यहाँ तक कि पीर व मजारों पर भी भरपूर श्रद्धा रखता है । इन्सान की श्रद्धा धर्म व धर्म से सम्बन्धित विभूतियों के प्रति होती है कभी-कभी इन्सान अपने परिवार के बुजुर्गों या किसी महान आविष्कारक, दार्शनिक अथवा गुरु, महान लेखक या कलाकार के प्रति भी रखता है । श्रद्धा उत्पन्न होने के अनेक कारण होते हैं जैसे भय, लोभ, दिखावा, विश्वास, प्रेम इत्यादि एवं श्रद्धा करने वालों के दो प्रकार हैं उदारवादी तथा कट्टरवादी ।

इन्सान के जीवन में सर्वाधिक महत्व भय का है क्योंकि भय इन्सान की मानसिकता को प्रभावित करके उसकी बौद्धिक क्षमता स्थिर एवं कुंठित करता है तथा असफलता का कारण बन जाता है । भय इन्सान को जीवन निर्वाह से आरम्भ अनेक प्रकार की समस्याओं, बिमारियों, सन्तान की परवरिश, शिक्षा, विवाह, आमदनी वगैरह के प्रति सदैव सताता है जिसके निवारण के लिए इन्सान सदैव सहायता करने वालों की तलाश करता रहता है । इन्सान को जिनसे मुफ्त सहायता प्राप्त होने की आशा होती है वह उनको अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करके उनसे प्राप्ति की आशा करता रहता है । इन्सान अधिकतर ईश्वर के प्रति अपनी श्रद्धा भय के कारण ही करते हैं क्योंकि उन्हें लगता है जो संसार का संचालन कर्ता है वह उनकी श्रद्धा से प्रसन्न होकर उन्हें किसी प्रकार का वरदान देगा अथवा उनकी समस्याएँ अवश्य निपटा देगा तथा उन्हें जीवन भर सुखी रखते हुए भय मुक्त रखेगा । इन्सान भय के कारण मन्दिरों, आश्रमों एवं साधू संतों तथा कभी-कभी तांत्रिकों के चरणों में अपनी श्रद्धा प्रकट करके खुद को संतावना देता रहता है कि जीवन सुधरने वाला है ।

लोभ इन्सान का ऐसा विकार है जो उससे किसी भी प्रकार का कार्य करवाने की क्षमता रखता है । लोभ के वशीभूत इन्सान अधिक से अधिक प्राप्त करने के प्रयास में प्रत्येक उस कार्य करने को तत्पर रहता है जहाँ उसे मुफ्त एवं अधिक प्राप्त हो सके । मुफ्त प्राप्ति का साधन इन्सान ईश्वर, देवी देवताओं तथा संसार की अध्यात्मिक शक्तियों को समझता है इसलिए उन्हें लुभाने के लिए अपनी श्रद्धा प्रकट करके प्रसन्न करने का भरसक प्रयास करता है । यदि इन्सान को परिवार के किसी सदस्य से या किसी सामर्थ्यवान से मुफ्त प्राप्ति अथवा अपनी समस्याओं का समाधान दिखाई पड़ता है तो लोभ के वशीभूत उनपर अपनी श्रद्धा प्रकट करने का प्रयास अवश्य करता है ।

श्रद्धा का दिखावा करना भी संसार में पूर्ण प्रचिलित है जिसमे तिलक लगाना, प्रतिदिन मन्दिरों में दिखाई पड़ना, अपनी धार्मिक यात्राएं बखान करना एवं धर्म के विषय में अनेकों प्रकार के भाषण देकर खुद को धार्मिक प्रमाणित करने का प्रयास करना । श्रद्धा का दिखावा खुद को धर्म के विषय में विद्वान् प्रमाणित करके सम्मान प्राप्ति अथवा किसी प्रकार का स्वार्थ सिद्ध करना होता है । धर्म शास्त्रियों, साधू संतों एवं तांत्रिकों का कार्य भी खुद को दैविक शक्तियों की श्रद्धा से प्राप्त कृपा एवं अद्भुत शक्तियों से परिपूर्ण दिखाकर नादानों को लूटने का प्रयास ही होता है तथा उनका दिखावा इतना सशक्त होता है कोई भी साधारण इन्सान इनके सुदृढ़ जाल में सरलता से फंस जाता है ।

साधारण इन्सान मन्दिरों, साधू संतों, तांत्रिकों एवं धर्म गुरुओं व शस्त्रियों को आलोकिक व अध्यात्मिक शक्तियों के मालिक होने का विश्वास करते हुए उनके प्रति अत्यधिक श्रद्धा रखते हैं । साधारण इन्सान की मान्यता है कि यें आलोकिक शक्तियों द्वारा इनके जीवन के सभी दुखों को दूर करके इनके जीवन को खुशियों से भर देंगें यह विश्वास साधारण इन्सान को इनके प्रति श्रद्धा रखने पर मजबूर कर देता है ।

इन्सान किसी देवी देवता की मूर्ति या साधू संत अथवा किसी महापुरुष को आलोकिक शक्तियों से परिपूर्ण मानकर व उनसे प्रभावित होकर पूर्णतया भावनात्मक समर्पण कर देता है तथा किसी भी प्रकार की अभिलाषा नहीं रखता तो यह इन्सान की भावनाओं से उत्पन्न प्रेम के कारण होने वाली श्रद्धा होती है प्रेम के कारण उत्पन्न श्रद्धा इन्सान की श्रद्धा का उत्कृष्ट एवं महानतम रूप है । प्रेम से उत्पन्न श्रद्धा में डूबकर इन्सान सिर्फ अपने ईष्ट के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित ही नहीं होता अपितु उसपर अपना सर्वस्य लुटा देता है ।

इन्सान के जीवन में श्रद्धा का मूल आधार धर्म एवं धार्मिक विषय हैं इसलिए ईश्वर, देवी देवताओं, साधू संतों व धर्म गुरुओं एवं शास्त्रियों जिस पर भी वह श्रद्धा रखता है उसे धर्म से जोडकर ही देखता है । जो अपनी श्रद्धा के प्रति उदारवादी होते हैं वें जिस पर श्रद्धा रखते हैं उसके विषय में यदि कोई तर्क करता है या त्रुटी प्रस्तुत करता है तो उस पर ध्यान देते हैं तथा त्रुटी मान भी लेते हैं । उदारवादी इन्सान धार्मिक विषयों की रुढ़िवादी प्रथाओं में संशोधन को स्वीकारते हैं तथा आवश्यकता अनुसार संशोधन करने के प्रयास भी करते हैं ।

कट्टरवादी इन्सान उदारवादी इंसानों के ठीक विपरीत होते हैं जो अपने धर्म व धार्मिक विषयों को पूर्णतया उचित मानते हुए किसी प्रकार का तर्क एवं संशोधन स्वीकार नहीं करते । कट्टरवादी इंसानों की दृष्टि में उनका धर्म एवं धर्म से जुड़े सभी विषय ईश्वर द्वारा उपहार स्वरूप भेंट किए हुए हैं जिनसे छेड़छाड़ करने से ईश्वर रुष्ट होकर उन्हें बर्बाद कर सकता है । कट्टरवादी अपनी श्रद्धा के वशीभूत मरने मारने पर भी उतारू हो जाते हैं परन्तु उदारवादी श्रद्धा के विषयों में किसी को कोई भी हानि करने के विषय में सोचते भी नहीं हैं ।

इन्सान द्वारा श्रद्धा का मुख्य कारण भय है क्योंकि संसार में अधिकतर इन्सान अभावग्रस्त या समस्या से पीड़ित हैं इसलिए वें पीड़ा मुक्त होने के लिए भय वश श्रद्धा रखते हैं । लोभ के कारण श्रद्धा रखने वालों की भी कोई कमी नहीं है जो अधिक प्राप्ति के लिए श्रद्धा रखते हैं । दिखावा करने वाले खुद को महत्वपूर्ण एवं सम्मानित प्रदर्शित करने के लिए श्रद्धा का ढोंग करते हैं । विश्वास के कारण श्रद्धा रखना भी स्वार्थ पूर्ति के लिए ही होता है । प्रेम के कारण श्रद्धा इन्सान की भावनाओं से उत्पन्न निस्वार्थ सेवा है ।

श्रद्धा इन्सान किसी पर भी एवं किसी भी प्रकार की रखता हो उसे वास्तविकता का ज्ञान होना आवश्यक है क्योंकि वास्तविकता समझे बगैर श्रद्धा रखने से सिर्फ इन्सान का धन एवं समय ही बर्बाद होता है । संसार में सच्चाई से पाखंड अधिक है तथा पाखंड के चक्रव्यूह में फंसकर इन्सान स्वयं घनचक्कर व मूर्ख ही बनता है । संसार में इन्सान को जो भी प्राप्ति होती है वह परिवार द्वारा तथा अपने कर्म के आधार पर प्राप्त होती है प्राप्ति के विषय पर सभी धर्म ग्रन्थों ने समझाने का भी भरपूर प्रयास किया है कि किसी भी प्रकार की प्राप्ति इन्सान सिर्फ अपने कर्मों द्वारा ही कर सकता है । किसी भी प्रकार की प्राप्ति की अभिलाषा से श्रद्धा करने का किसी भी प्रकार का कोई लाभ नहीं होता । श्रद्धा के पाखंड में किसी को फंसाकर लाभ अवश्य प्राप्त किया जा सकता है जिसे धूर्त इन्सान भलीभांति उपयोग कर रहे हैं एवं साधारण इन्सान चुपचाप लुट रहे हैं ।

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जीवन सत्यार्थ

इंसान के जीवन में जन्म से मृत्यु तक के सफर में तृष्णा, कामना तथा बाधाएं उत्पन्न होकर मानसिकता में असंतोष तथा भटकाव की स्थिति उत्पन्न कर देते हैं जिससे जीवन कष्टदायक व असंतुलित निर्वाह होता है। जीवन सत्यार्थ ऐसा प्रयास है जिसके द्वारा सत्य की परख करके कष्टकारी मानसिकता से मुक्ति पाकर जीवन संतुलित बनाया जा सकता है। पढने के साथ समझना भी आवश्यक है क्योंकि पढने में कुछ समय लगता है मगर समझने में सम्पूर्ण जीवन भी कम हो सकता है और समझने से सफलता प्राप्त होती है।

प्रस्तुत कर्ता - पवन कुमार

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