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कर्तव्य

April 18, 2017 By प्रस्तुत करता - पवन कुमार Leave a Comment

समाज द्वारा बनाए गए नियम जो इंसानी जीवन के लिए निर्धारित एवं निश्चित किए गए हैं तथा जिनका पालन करना अनिवार्य होता है वह कर्तव्य कहलाते हैं । इन्सान के जन्म से लेकर मृत्यु तक अनेकों प्रकार के कर्तव्य निर्धारित होते हैं तथा इन्सान को परिवार, समाज, गृहस्थी, रिश्तों, धर्म, देश, प्राकृति एवं संसार के प्रति कर्तव्यों का पालन करना निश्चित किया गया है । कर्तव्य मुख्य तीन प्रकार के निर्धारित किए गए हैं प्रथम = पैत्रिक कर्तव्य, द्वितीय = स्वेच्छिक कर्तव्य, तृतीया = सामाजिक कर्तव्य । इन कर्तव्यों के पालन में जिस प्रकार के अंतर होते हैं उसी प्रकार से कर्तव्य ना निभाने वाले को दंड अथवा तिरस्कार का अंजाम भुगतना पड़ता है ।

इन्सान को जन्म के समय से अपने परिवार के प्रति अनेक कर्तव्य होते हैं जो उसे विरासत में प्राप्त होते हैं । माँ-बाप के आदेशों का पालन करना तथा उनकी सेवा करना । भाई- बहनों एवं बाकि परिवार के साथ ताल-मेल बनाए रखना तथा उनके प्रत्येक सुख-दुःख में सहायक की भूमिका बनाए रखना । परिवार से सम्बन्धित रिश्तों का आदर करना एवं उन रिश्तों के प्रति जिम्मेदारी निभाना । समाज में परिवार का सम्मान बनाए रखना तथा परिवार के सम्मान में वृद्धि करने का प्रयास करना आदि । यह कर्तव्य जन्म के समय से परिवार द्वारा विरासत में प्राप्त होते हैं इसलिए यह पैत्रिक कर्तव्य कहलाते हैं । जीवन जीने की शैली के नियमों को धर्म कहा जाता है तथा पैत्रिक कर्तव्य जन्म देने वालों एवं परवरिश, सुरक्षा एवं सक्षम बनाने वालों के प्रति होते हैं इसलिए यह धर्म की श्रेणी में आते हैं । पैत्रिक कर्तव्यों का पालन ना करने वाले को परिवार का तिरस्कार अवश्य सहन करना पड़ता है परन्तु इसके लिए समाज या कानून द्वारा किसी प्रकार की सजा का प्रावधान नहीं है । पैत्रिक कर्तव्यों से विमुख इन्सान को अधर्मी समझा जाता है अर्थात यह अपने धर्म का पालन करने से विमुख रहा है ।

इन्सान गृहस्थ जीवन स्वेच्छा से अपनाता है जिसमें सर्वप्रथम पति-पत्नी का आपस में एक दूसरे के प्रति सम्पूर्ण जीवन साथ निभाने तथा अपनी गृहस्थी को सुचारू रूप से चलाने का कर्तव्य होता है । गृहस्थी इन्सान के लिए कर्म स्थली है क्योंकि इन्सान अपने कर्मों के द्वारा ही गृहस्थ जीवन जीवन निर्वाह करता है इसलिए उसके कर्तव्य भी अधिक हो जाते हैं । इन्सान सन्तान उत्पन्न करता है तो उनकी परवरिश, सुरक्षा एवं उन्हें सामर्थ्यवान बनाना परम कर्तव्य होता है । स्वेच्छिक कर्तव्य इन्सान अपनी इच्छा से निर्धारित करता है जिन्हें वह कम या अधिक कर सकता है । कम सन्तान कम कर्तव्य एवं अधिक सन्तान के साथ कर्म तथा कर्तव्य में भी वृद्धि हो जाती है । गृहस्थी एवं सन्तान की उत्पत्ति इन्सान स्वेच्छा से करता है इसलिए यह स्वेच्छि कर्तव्य होते हैं । गृहस्थी बसाने के लिए इन्सान को धर्म, समाज एवं कानून के नियमों का पालन करना पड़ता है इसलिए गृहस्थी के कर्तव्य पूर्ण ना करने पर वह धर्म, समाज एवं कानून का गुनाहगार बन जाता है । गृहस्थी के कर्तव्य कर्मों से सम्बन्धित होते हैं इसलिए इनका पालन ना करने वाले को कर्महीन अर्थात कर्मों से भागने वाले की श्रेणी में रखा जाता है ।

इन्सान सामाजिक प्राणी है कोई भी इन्सान अन्य जीवों की तरह अकेले अपने बल पर जीवन निर्वाह नहीं कर सकता क्योंकि भोजन वस्त्र से लेकर अन्य सभी आवश्यकताएँ पूर्ति के लिए समाज का सहारा लेना ही पड़ता है । जीवन निर्वाह के लिए जो भी कर्म इन्सान करता है जैसे व्यापार अथवा नौकरी सभी के लिए समाज अनिवार्य है । समाज में रहने के लिए समाज के नियम पालन करना भी आवश्यक होते हैं । समाज द्वारा सभी इंसानों के लिए नियम निर्धारित हैं । समाज में सर्वप्रथम कर्तव्य अनुशासन व शांति बनाए रखना है । इन्सान का अन्य जीवों, प्राकृति एवं देश के लिए भी कर्तव्य निर्धारित हैं । जो कर्तव्य समाज द्वारा निर्धारित होते हैं उन्हें सामाजिक कर्तव्य कहा जाता है । समाज के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन ना करने वाले इन्सान को समाज द्वारा असामाजिक माना जाता है तथा उसका समाज में किसी प्रकार का सम्मान नहीं होता ।

जो इन्सान अपने सभी कर्तव्यों का पूर्ण निष्ठा से पालन करता है परिवार एवं समाज में सम्मानित दृष्टि से देखा जाता है तथा समाज उसके लिए सदैव सहायक होता है । जो इन्सान कर्तव्य पालन करने में अक्षम होते हैं उन्हें समाज से मात्र सहानभूति ही प्राप्त होती है । जो इन्सान सक्षम होते हुए भी कर्तव्य पालन नहीं करते उन्हें परिवार एवं समाज में घ्रणित दृष्टि से देखा जाता है तथा किसी प्रकार की  होने पर कोई सहायता प्रप्त नहीं होती । कर्तव्यों के प्रति पूर्ण निष्ठा से पालन करने का प्रयास करना तथा उन्हें पूर्ण करने वाला इन्सान ईमानदार कहलाता है । कर्तव्यों से बचने का प्रयास अथवा विमुख होना इन्सान को बेईमान की श्रेणी में पहुँचा देता है । समाज में अपनी पहचान एवं सम्मान बनाए रखने का साधन भी कर्तव्य परायणता ही होती है ।

सिद्धांत – siddanth

April 30, 2017 By प्रस्तुत करता - पवन कुमार 2 Comments

इन्सान की जीवन शैली दो प्रकार की होती है | 1. नियमित 2. अनियमित । वह इन्सान जो समय एवं मौके के अनुसार जीवन में परिवर्तन करते रहते हैं वह मौका परस्त अर्थात अनियमित होते हैं । जो इन्सान अपने जीवन के कार्य नियम अनुसार करते हैं तथा नियमों को जीवन के लिए आवश्यक मानते हैं | वह नियमित जीवन निर्वाह करते हैं । नियमित जीवन में कुछ इन्सान ऐसे नियम निर्धारित करते हैं | जो उत्कर्ष्ठ एवं श्रेष्ठ नियम होते हैं तथा जिनसे इन्सान समाज में अपनी अलग पहचान स्थापित करता है | वह नियम सिद्धांत (siddanth) कहलाते हैं । सिद्धांत (siddanth) के नियमों का पूर्ण निष्ठा से पालन करने वाला इन्सान सिद्धांतवादी कहलाता है । सिद्धांत (siddanth) के नियम कठोर अवश्य होते हैं परन्तु सदैव लाभदायक एवं भविष्य के निर्माण कर्ता भी होते हैं ।

सिद्धांत (siddanth) के नियम साधारण जीवन से आरम्भ होकर विशेष कार्यों एवं कर्मों के लिए निर्धारित होते हैं । सिद्धांत के मुख्य नियम हैं समय पर कार्य करना, सदैव कार्य सम्पूर्ण करना, उचित कार्य ही करना, अनुशासन पालन करना इत्यादि । समय की बर्बादी, अधूरे कार्य, अनुचित कार्य, अनुशासन हीनता इन्सान को साधारण अथवा तुच्छ बना देते हैं । सिद्धांत इन्सान की दिनचर्या से ही आरम्भ हो जाते हैं क्योंकि सिद्धांतवादी इन्सान अपनी दिनचर्या भी सिद्धांतों के अनुसार ही व्यतीत करता है । सिद्धांत के अनुसार सोने जागने के नियम भी प्राकृति के अनुसार निर्धारित होते हैं जिस प्रकार संसार के अन्य जीव प्राकृति के नियमों का पालन करके स्वस्थ रहते हैं उसी प्रकार पालन करने से इन्सान स्वस्थ एवं सुखी रह सकता है । सिद्धांत अनुसार भोजन जिव्हा का स्वाद देखकर नहीं स्वास्थ्य के लिए लाभकारी एवं पौष्टिक होना आवश्यक है । वस्त्र वगैरह भी फैशन त्यागकर शारीरिक स्वास्थ्य के अनुसार ग्रहण करना ही सिद्धांतवादी बनाता है । जो इन्सान निजी जीवन में सिद्धांतों का पालन नहीं कर सकते वह अन्य सिद्धांत अपनाकर भी ढोंगी ही कहलाता है ।

कर्म एवं जीवन निर्वाह के कार्यों में सिद्धांत इन्सान को पृथक पहचान दिलाते हैं । व्यापार हो अथवा नौकरी सर्वप्रथम समय का पालन करना आवश्यक है । समय पर कार्य पर पहुँचना तथा अपने सभी कार्य समय पर सम्पूर्ण करना एवं सदैव उचित कार्य ही करना इन्सान को ईमानदार इन्सान की श्रेणी में पहुँचा देता है । अनुशासित होने से संगी साथी एवं सम्बन्धित इन्सान सदैव सम्मान प्रदान करते हैं । सिद्धांतवादी इन्सान को किसी कार्य के लिए यदि सहायता की आवश्यकता अथवा किसी प्रकार के कर्ज की आवश्यकता होने से सरलता से प्राप्त हो जाता है । सिद्धांतवादी इन्सान को सरलता से सहायता एवं कर्ज प्राप्त होने का मुख्य कारण उसके किए हुए वादे पर विश्वास होना है तथा मान्यता होती है कि सिद्धांतवादी इन्सान ईमानदार होते हैं जो झूटे वादे कभी नहीं करते ।

झूट एवं फरेब का सिद्धांतवाद में कोई स्थान नहीं होता क्योंकि सिद्धांतवाद में समझौते करने का कोई स्थान नहीं होता । समझौता करना अनुचित कार्य का आरम्भ होता है वह चाहे नियमों के सन्दर्भ में किया गया हो अथवा किसी अन्य विषय में हो क्योंकि समझौता सदैव अनुचित एवं उचित के मध्य होता है  । समझौते में उचित आधा अनुचित हो जाता है तथा अनुचित को आधा उचित होने का श्रेय प्राप्त हो जाता है । सिद्धांत अर्थात उसूल इन्सान को समाज तथा संसार में सम्मान प्रदान करवाते हैं क्योंकि सिद्धांत का अर्थ है अडिग एवं चट्टान की तरह मजबूत इन्सान । सिद्धांतवादी इन्सान की इच्छाशक्ति सदैव प्रबल एवं दृढ होती है । संसार में जितने भी महापुरुष हुए हैं सभी सिद्धांतवादी अवश्य हुए हैं । कोई भी इन्सान जब तक अपने जीवन में सिद्धांतों को नहीं अपनाता वह समाज में अपनी पृथक पहचान स्थापित नहीं कर सकता । सिद्धांत इन्सान को पृथक पहचान एवं सम्मान इसलिए दिलवाते हैं क्योंकि सिद्धांत दृढ मानसिकता एवं श्रेष्ठ चरित्र का प्रमाण् पत्र होते हैं ।

संस्कार – sanskar

April 30, 2017 By प्रस्तुत करता - पवन कुमार Leave a Comment

इन्सान का व्यवहार एवं आचरण तथा उसके कर्म मिलकर उसकी जैसी छवि समाज में प्रस्तुत करते हैं | वह उसके संस्कार (sanskar) कहलाते हैं । संस्कार (sanskar) इन्सान की अपनी तथा परिवारिक पहचान सहित उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा का आधार भी होते हैं । संस्कारों से इन्सान अपनी तथा अपने परिवार की श्रेष्ठता का स्तर प्रमाणित करता है ।

इन्सान के जैसे संस्कार (manners) होते हैं उसे समाज द्वारा उसी स्तर के सम्मान की प्रतिकिर्या प्राप्त होती है । संस्कार (sanskar) समाज में मौलिक पहचान के साथ इन्सान के मूल्य का आधार भी होते हैं क्योंकि किसी भी प्रकार की आवश्यकता होने पर संस्कारों के आधार पर ही समाज से सहायता प्राप्त होती है । संस्कारों के द्वारा इन्सान परिवार एवं समाज में अपना कितना भी ऊँचा स्थान प्राप्त कर सकता है ।

संस्कारों में सर्वप्रथम स्थान इन्सान के व्यवहार का होता है | क्योंकि अव्यवहारिक इन्सान समाज में कभी संस्कारी नहीं माना जाता । व्यवहार इन्सान की वाणी में मधुरता एवं शब्दों की श्रेष्ठता तथा विचारों की महत्वता से प्रमाणित होता है । वाणी की मधुरता व्यवहार का स्तर प्रमाणित करती है | तथा शब्दों का चयन भी व्यवहार का पैमाना होता है | क्योंकि श्रेष्ठ शब्दों से श्रेष्ठता एवं ओछे शब्दों से इन्सान का ओछापन प्रमाणित होता है ।

इन्सान का कथन जितना स्पष्ट होता है उसके विचार भी उतने ही स्पष्ट होते हैं यह स्पष्टता इन्सान को स्पष्टवादी प्रमाणित करते हैं क्योंकि अस्पष्ट कथन से इन्सान फरेबी एवं धोखेबाज समझा जाता है । तानाकशी, बहस या आलोचना करना इन्सान को अव्यवहारिक बना देता है । व्यवहार का मुख्य आधार परिवार माना जाता है इसलिए तुच्छ व्यवहार परिवार को भी तुच्छ घोषित करवा देता है । अपने श्रेष्ठ व्यवहार के द्वारा ही इन्सान समाज में खुद को तथा अपने परिवार को सम्मानित करवा सकता है ।

आचरण इन्सान के चरित्र से सम्बन्धित विषय है | इसलिए संस्कारों में आचरण को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त होता है । आचरण इन्सान के चरित्र का दर्पण भी कहलाते हैं जो उसकी मानसिकता को स्पष्ट करते हैं । अच्छा चरित्र उत्तम मानसिकता की निशानी होती है तथा अय्याशी एवं आवारागर्दी इन्सान के ओछे चरित्र को दर्शाते हैं जिसके कारण उसके आचरण घ्रणित समझे जाते हैं । जुआ, सट्टा खेलना, नशा करना, बकवास करना, अफवाह फैलाना, दूसरों की बुराई करना, आपस में फूट डालना इन्सान को तुच्छ मानसिकता की श्रेणी में पहुँचा देते हैं । आचरण इन्सान में परिवार तथा सोहबत से पनपते हैं जिसमे उत्तम आचरण परिवार द्वारा तथा ओछे आचरण सोहबत द्वारा बनते हैं परन्तु ओछे आचरणों की बदनामी का परिणाम फिर भी परिवार को ही भुगतना पड़ता है । आचरणों के विषय में इन्सान का मानना है कि यह उसके निजी हैं जिसका समाज से कोई सम्बन्ध नहीं है परन्तु आचरण ओछे या अनुचित होने पर समाज उन्हें सामाजिक गंदगी मानता है ।

कर्म इन्सान के जीवन का सबसे महत्वपूर्ण विषय है जिसके द्वारा उसका तथा उसके परिवार का निर्वाह होता है । कर्म इन्सान के निजी अवश्य होते हैं परन्तु अनुचित या दुष्कर्मों का प्रभाव सम्पूर्ण समाज पर पड़ता है । साधारण इन्सान व्यापार अथवा नौकरी द्वारा कर्म करके अपना जीवन निर्वाह करते हैं । जो असाधारण प्रतिभा के इन्सान होते हैं वह कोई श्रेष्ठ कार्य अथवा किसी प्रकार का अविष्कार करके समाज के विकास तथा सम्मान वृद्धि में सहायक होते हैं । जो इन्सान दुष्कर्म या अपराध करते हैं वह समाज में गंदगी फ़ैलाने तथा सामाजिक पतन का कारण बन जाते हैं । चोरी, धोखेबाजी, लूट, भ्रष्टाचार, बलात्कार, हत्या आदि जैसे घ्रणित कर्म करने वाले ऐसे इन्सान होते हैं जिन्हें संस्कारों का अर्थ भी शायद मालूम नहीं होता तथा इन जैसे इंसानों को सम्मान या नैतिकता से किसी प्रकार का मतलब नहीं हो सकता । समाज का विकास जिन कर्मों से होता है वह ही अच्छे संस्कारों की श्रेणी में आते हैं ।

संस्कारों का निर्माण कर्ता इन्सान स्वयं होता है जो अपनी इच्छानुसार अच्छे या बुरे संस्कार अपना सकता है | परन्तु यह समझना भी आवश्यक है कि इंसानों के संस्कार मिलकर ही किसी संस्कृति का निर्माण होता है । इन्सान को अपना सामाजिक मूल्य निर्धारित करने एवं समाज में अपनी पहचान स्थापित करने के लिए अपने संस्कारों का सहारा लेना ही पड़ता है । संस्कार इन्सान की सामाजिक कसौटी है जिससे परखकर इन्सान के व्यवहार, आचरण एवं कर्मों की पहचान होती है । सम्मान की इच्छा रखने वाले को संस्कारों का मूल्य ज्ञात करना आवश्यक है | क्योंकि समाज में संस्कारी इन्सान को ईमानदार एवं सहृदय इन्सान माना जाता है । संस्कारों के विषय में यह समझना सबसे आवश्यक है कि संस्कारों से इन्सान के परिवार का सम्मान एवं परिवार की मर्यादा जुडी होती है | इसलिए अपने परिवार की प्रतिष्ठा को ध्यान में रखकर ही संस्कारों के विरुद्ध कार्य करना चाहिए ।

प्रशंसा

May 21, 2017 By प्रस्तुत करता - पवन कुमार Leave a Comment

उत्तम कार्यों, प्रतिभा एवं महत्त्व का सकारात्मक अलंकृत वर्णन करना प्रशंसा कहलाती है । प्रशंसा श्रेष्ठता एवं प्रसन्नता का प्रतिक होती है क्योंकि प्रशंसा जिसके भी विषय में हो उसे श्रेष्ठ प्रमाणित करती है तथा उसको प्रसन्न करने का कार्य भी करती है । प्रशंसा वार्तालाप के वातावरण को खुशनुमा एवं सम्बन्धित इंसानों को खुशियाँ प्रदान करने का सबसे सरल साधन होता है । प्रशंसा करने के कई प्रकार होते हैं जैसे सामान्य प्रशंसा, अधिक प्रशंसा, वास्तविक प्रशंसा, झूटी प्रशंसा वगैरह । प्रशंसा का विशेष रूप भी होता है जिसे चापलूसी कहा जाता है ।

सामान्य प्रशंसा किसी के भी उत्तम कार्यों से प्रभावित होकर स्वयं इन्सान के मुँह से निकलने वाले प्रभावित मानसिकता के शब्द होते हैं । सामान्य प्रशंसा दैनिक जीवन की दिनचर्या का महत्वपूर्ण अंग है । धन्यवाद, वाह-वाह, बहुत अच्छे, अति सुंदर जैसे शब्द सामान्य प्रशंसा के सूचक होते हैं । अपने समीप के इंसानों एवं अपनों तथा मित्रों को प्रोत्साहित करने के लिए सामान्य प्रशंसा अत्यंत आवश्यक कार्य है इससे अच्छे कार्यों के प्रति उत्साह में वृद्धि होती है । इन्सान अपने उत्तम कार्यों की प्रशंसा सुनकर और अधिक उत्तम कार्य करने के लिए प्रेरित होता है । सामान्य प्रशंसा करना इन्सान के व्यवहार की श्रेष्ठता को भी प्रमाणित करती है क्योंकि अव्यवहारिक इन्सान कभी किसी की प्रशंसा नहीं करते ।

अधिक प्रशंसा उत्तम कार्यों एवं प्रतिभा तथा महत्व को अलंकृत करने का विषय है । अलंकृत अर्थात किसी भी वस्तु या विषय का श्रंगार करके अर्थात उसकी व्याख्या बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत करना होता है । अधिक प्रशंसा किसी को प्रसन्न करने के लिए करी जाती है ताकि उससे किसी प्रकार का कार्य सिद्ध करवाया जा सके अथवा उसे अपने पक्ष में किया जा सके । अधिक प्रशंसा प्रसन्न करके कार्य सिद्ध करने अर्थात स्वार्थ पूर्ति का सबसे सरल साधन होता है इसलिए अधिक प्रशंसा पर सचेत होकर समझ लेना आवश्यक होता है कि प्रशंसक किसी प्रकार का स्वार्थ सिद्ध करने का इच्छुक है ।

कार्य सम्पन्न होने के पश्चात ही वास्तविक होते हैं क्योंकि उनका परिणाम निर्धारित होता है जिसमे किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं किया जा सकता । जिनका परिणाम निश्चित ना हो अथवा उनमें किसी प्रकार का परिवर्तन किया जा सके उसे वास्तविक की श्रेणी में रखना नादानी होती है । वास्तविक प्रशंसा अर्थात किए हुए सराहनीय कार्यों की प्रशंसा करना। परीक्षा में उत्तीर्ण होना, प्रतियोगिता में विजय प्राप्त करना, कोई महत्वपूर्ण कार्य करना, कोई सामाजिक कार्य करना, किसी की भलाई या सेवा करना वगैरह वास्तविक प्रशंसा के कार्य होते हैं । जो भी कार्य वास्तविक हो उसकी प्रशंसा करना वास्तविक प्रशंसा होती है । इन्सान के विचारों में सदैव परिवर्तन होता रहता है परन्तु श्रेष्ठ विचारों की प्रशंसा वास्तविक प्रशंसा ही होती है क्योंकि विचारों की श्रेष्ठता सत्य होती है जो कभी समाप्त नहीं होती चाहे विचार व्यक्त करने वाला इन्सान स्वयं भी उन विचारों पर किर्याशील ना हो ।

जिसका परिणाम अनिश्चित हो अथवा उसके परिणाम में किसी प्रकार का परिवर्तन किया जा सकता हो वह भ्रमित श्रेणी के विषय होते हैं । भ्रमित श्रेणी के विषय पर निर्णय लेकर विचार व्यक्त करना भ्रम या अफवाह फ़ैलाने अथवा झूट बोलने के समान होता है । अनिश्चित या भ्रमित विषय पर प्रशंसा करना झूटी प्रशंसा होती है तथा प्रशंसक सदैव झूटा कहलाता है । परीक्षा परिणाम घोषित होने से पूर्व परीक्षार्थी की प्रशंसा करना, प्रतियोगिता में विजय से पूर्व प्रतियोगी की प्रशंसा करना, भविष्य में होने वाले कार्यों प्रशंसा करना जैसी प्रशंसा झूटी प्रशंसा की श्रेणी में आती है । किसी के स्वभाव, व्यवहार, कार्यों, आचरण वगैरह की प्रशंसा करना भी झूटी प्रशंसा प्रमाणित हो सकती है क्योंकि इनमे सदैव परिवर्तन होता रहता है ।

प्रशंसा सदैव समय पर तथा आवश्यकता अनुसार करी जाती है जिसका कोई ना कोई कारण अवश्य होता है । किसी की अकारण या असमय बहुत अधिक तथा वास्तविक हो या झूटी प्रशंसा निरंतर करी जाती है वह चापलूसी कहलाती है । चापलूसी करने का कारण कभी स्पष्ट दिखाई नहीं देता परन्तु वास्तव में चापलूसी मूर्ख बनाकर कोई बड़ा स्वार्थ सिद्ध करने अथवा धोखा देने का प्रयास होता है । अपनी प्रशंसा सुनना सभी इंसानों को पसंद होता है परन्तु जो चापलूसों को पसंद करते हैं वह जीवन में धोखा अवश्य खाते हैं क्योंकि चापलूस की प्रशंसा से उनका विवेक कार्य करना बंद कर देता है जिसके कारण उनका अच्छाई-बुराई को समझने का ज्ञान प्रभावित हो जाता है ।

प्रशंसा सुनना एवं करना जीवन की आवश्यक किर्या है परन्तु कुछ तथ्यों को समझना आवश्यक है । सामान्य प्रशंसा इन्सान में उत्साह वृद्धि करने का कार्य करती है एवं महत्वपूर्ण कार्यों तथा प्रतिभा का विकास करने के लिए प्रेरित करती है । अपनों एवं मित्रों को प्रोत्साहित करने के लिए सामान्य प्रशंसा समय-समय पर करना आवश्यक है । अधिक प्रशंसा करने वाले का कार्य सिद्ध करवाने में सहायक होती है परन्तु सुनने वाले के लिए हानिकारक हो सकती है । प्रशंसा वास्तविक होने से प्रेरणादायक होती है एवं झूटी प्रशंसा मन को प्रसन्न अवश्य करती है परन्तु इन्सान को भ्रमित करके उसकी बुद्धि को प्रभावित करती है । चापलूसी करना शातिरों का प्रिय अस्त्र है जिसके प्रहार से इन्सान की बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है । प्रशंसा करने वाले से सुनने वाले को समझना अधिक आवश्यक है कि इस प्रशंसा का कारण क्या है क्योंकि प्रशंसा का प्रभाव करने वाले से अधिक सुनने वाले पर होता है । प्रशंसा सकारात्मक होने से लाभदायक तथा नकारात्मक होने से हानिकारक होती है ।

इन्सान सदैव दूसरों की प्रशंसा करता है जैसे धर्म के विषय में, साधू-संतों के विषय में, नेताओं, फ़िल्मी सितारों, खिलाडियों, प्रवक्ताओं, मित्रों एवं अनेक अन्य इंसानों के विषय में परन्तु अपने परिवार के सदस्यों से उनकी प्रशंसा करने में संकोच करता है । पति-पत्नी एक दूसरे की, सन्तान माँ बाप की, माँ बाप सन्तान की, भाई बहनें आपस में एक दूसरे की प्रशंसा करने से प्रेम एवं सेवा भाव में वृद्धि होती है तथा अच्छे कार्य करने के लिए प्रोत्साहन मिलता है इसलिए आपसी ताल-मेल बनाए रखने के लिए आपस में प्रशंसा करना आवश्यक होता है ।

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जीवन सत्यार्थ

इंसान के जीवन में जन्म से मृत्यु तक के सफर में तृष्णा, कामना तथा बाधाएं उत्पन्न होकर मानसिकता में असंतोष तथा भटकाव की स्थिति उत्पन्न कर देते हैं जिससे जीवन कष्टदायक व असंतुलित निर्वाह होता है। जीवन सत्यार्थ ऐसा प्रयास है जिसके द्वारा सत्य की परख करके कष्टकारी मानसिकता से मुक्ति पाकर जीवन संतुलित बनाया जा सकता है। पढने के साथ समझना भी आवश्यक है क्योंकि पढने में कुछ समय लगता है मगर समझने में सम्पूर्ण जीवन भी कम हो सकता है और समझने से सफलता प्राप्त होती है।

प्रस्तुत कर्ता - पवन कुमार

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