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परिवार

May 22, 2014 By Amit Leave a Comment

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भारतीय समाज में एकत्रित तथा सम्मिलित परिवार सम्मान का विषय है तथा सम्मिलित परिवार भारतीय सभ्यता एंव संस्कृति की पहचान रहे हैं । सम्मिलित परिवार में माँ बाप व भाई बहन के अतिरिक्त पिता के भाई और उनकी संतानें तथा दादा दादी सभी एक साथ व एक ही घर में बसने से उसे सम्मानित परिवार माना जाता है क्योंकि अधिक सदस्यों के परिवार की एकता उनके आचरण तथा सदभावना को प्रदर्शित करती है । परिवार के सदस्यों की आपसी प्रेम भावना तथा सदभावना ही उन्हें एक सूत्र में बांधे रख सकती है । परन्तु वर्तमान समय में परिवार टूट कर बिखर रहे हैं परिवार के युवा सदस्य एकांत प्रिय होते जा रहे हैं और स्वयं पर किसी प्रकार का अंकुश बर्दाश्त नहीं करते हैं । परिवार के बुजुर्ग सदस्यों के प्रति युवा वर्ग द्वारा सम्मान में सिर्फ दिखावा करने से अधिक कुछ नहीं हैं ।

जो युवा वर्ग बुजुर्गों के सम्मान में उनके इशारे पर कार्य करने के लिए तत्पर रहता था वह अब उनसे बचकर निकल जाता है । परिवार के सदस्य बुजुर्गों के आशीर्वाद पाने के लिए उनके चरणों में स्थान ग्रहण करते थे परन्तु वर्तमान में सामने पधार कर तानाकशी करते हैं । परिवार के सदस्यों की आज्ञा मानने के स्थान पर उनके जीवन के कार्यों तथा सफलताओं पर प्रश्न करना एंव व्यंग द्वारा उनको प्रताड़ित करना युवा वर्ग का स्वभाविक कार्य होता जा रहा है । प्रत्येक वार्ता में झगड़ना, बदजुबानी, आरोप प्रत्यारोप व कटाक्ष करने से तंग आकर आक्रोश वश परिवार से सरलता पूर्वक अलगाव प्राप्त करना युवा वर्ग की बुद्धिमानी की कहानी है ।

परिवार से अलग ग्रहस्थी बसाने से होने वाली हानि तथा समस्याओं की समीक्षा न करने के कारण जीवन संघर्ष पूर्ण हो जाता है तथा कभी कभी अत्यधिक भयंकर परिणाम सामने आते हैं । सम्मिलित परिवार में कम आमदनी होने अथवा कभी बेरोजगारी की समस्या आने पर भी जीवन सरलता पूर्वक निर्वाह हो जाता है जो अलग रहने पर मुमकिन नहीं है । बेरोजगारी अथवा अल्प आमदनी के समय परिवार के अन्य सदस्यों द्वारा सरलता पूर्वक सहायता प्राप्त हो जाती है जो अन्य किसी इन्सान से प्राप्त नहीं हो सकती । किसी बीमारी के समय परिवार के अन्य सदस्यों द्वारा तीमारदारी बहुत अधिक राहत का कार्य करती है जिसे अलग बसने पर प्राप्त नहीं किया जा सकता ।

परिवार से अलग रहने पर बच्चों को बुजुर्गों का दुलार तथा संस्कार प्राप्त नहीं होते तथा किसी का साथ ना मिलने के कारण उनका समय टी वी तथा कम्प्यूटर के साथ व्यतीत होता है जिससे बच्चों में आक्रोश तथा खुदगर्जी की भावना उत्पन्न होती है । अलग रहने वाले परिवार में पति पत्नी यदि दोनों कार्यरत हों तो बच्चे नौकरों अथवा आया के सहारे पलते हैं जो बच्चों को किस प्रकार का पोषण देते हैं यह देखने वाला कोई नहीं होता । नौकर के लिए बच्चे को नहलाना या कपड़े अथवा बर्तन साफ करना एक समान है तथा बच्चों को भोजन किस प्रकार का व किस मात्रा में उपलब्ध है यह देखना भी असम्भव है ।

बच्चों का नौकरों द्वारा योन शोषण स्वभाविक किर्या है जिससे बच्चों के कोमल मन को कितना कष्ट पहुंचता है इसका अनुमान लगाना कठिन है । बच्चों के साथ नौकरों द्वारा योन शोषण जैसी घटनाओं से उनमे कुंठा व घृणा की भावना उत्पन्न होना स्वभाविक है जिससे उनके मन में जीवन के प्रति नफरत की भावना जन्म लेती है । मनचाही सफलता प्राप्त करने तथा अधिक धन एकत्रित करने की कोशिश में अपनी सन्तान के शोषण पर ध्यान ना देने का अंजाम कितना भयंकर हो सकता है यह घटित होने के पश्चात ही जान पड़ता है । माँ बाप व परिवार के प्यार को तरसते बच्चों से प्यार एंव सम्मान की कामना करना सिर्फ मूर्खता का प्रश्न रह जाता है ।

एकाकी जीवन निर्वाह जानवर का प्राकृतिक स्वभाव है उसे सिर्फ भरपेट भोजन की आवश्यकता होती है परन्तु इन्सान समाजिक प्राणी है एकांत इन्सान को आक्रोशि तथा खुदगर्ज बना देता है । अलग रहने वालों में आक्रोश तथा खुदगर्जी की भावना धीरे धीरे इतनी अधिक हो जाती है जिसके कारण वें किसी की भावनाओं का सम्मान करना आवश्यक नहीं समझते । एकाकी ग्रहस्थी में किसी कारण कलह उत्पन्न हो जाए तो उसका निवारण कराने वाला उपलब्ध नहीं होता परिणाम स्वरूप ग्रहस्थी टूटने के कगार पर पहुंच जाती या टूट जाती है । भारतीय संस्कृति में तलाक जैसे शब्द घृणित माने जाते थे परन्तु वर्तमान में तलाक का प्रचलन बढ़ रहा है जिसका कारण परिवार का साथ ना होना है क्योंकि परिवार त्रुटियाँ होने से रोकता है तथा होने पर सुलह करवा देता है जिससे परिणाम तलाक तक ना पहुंचे ।

एकाकी जीवन में परिवार की मर्यादा तथा समाज की सद्भावना सभी का अंत निश्चित है तथा इन्सान सिर्फ धन तथा धन से प्राप्त होने वाली वस्तुओं का भोग कर सकता है । किसी की प्रेम भावना तथा आदर सम्मान व संस्कृति एंव संस्कार सम्मिलित परिवार में ही प्राप्त हो सकते हैं अलगाव से प्राप्त होती है सिर्फ खुदगर्जी । परिवार इन्सान के लिए संसार में सबसे सुरक्षित तथा सबसे विश्वसनीय शरण स्थली है एंव परिवार के सदस्यों से जो प्रेम व सहानभूति प्राप्त हो सकती है वह अन्य किसी से प्राप्त होना कठिन है यह समझने पर ही इन्सान को परिवार की महत्वता का उचित अनुमान हो सकता है । किसी भी विपदा के समय सिर्फ परिवार ही रक्षक बनकर उपलब्ध होता है इसे समझना भी आवश्यक है ।

माँ बाप

May 22, 2014 By Amit Leave a Comment

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जिनसे जीवन प्राप्त होता है वें माँ बाप कहलाते हैं जो अपनी सन्तान के जीवन को सुखी तथा सफल बनाने के प्रयासों में अपने जीवन का प्रत्येक क्षण न्योछावर करने के लिए तत्पर रहते हैं । माँ बाप अपने जीवन का प्रत्येक कार्य अपनी सन्तान की भलाई तथा सफलता प्राप्ति के लिए करते हैं एंव अपनी सन्तान को आशीष तथा शुभ कामनाएँ प्रदान करते हुए उनकी तरफ सदैव दयानीय दृष्टि से देखते रहते हैं । इन्सान के अतिरिक्त संसार का प्रत्येक जीव सन्तान उत्पन्न करने के पश्चात उसका साथ उस समय तक देता है जब तक उसकी सन्तान अपनी रक्षा करने तथा अपना जीवन निर्वाह करने लायक ना हो जाए और जीवन निर्वाह करने के लायक होते ही सभी जीव अपनी सन्तान का त्याग कर देते हैं । परन्तु इन्सान अपनी सन्तान के जन्म से लेकर अपनी या उनकी मृत्यु होने तक साथ निभाता है ।

आरम्भ में अपनी माँ के आंचल की छाँव में सन्तान सभी विपदाओं से सुरक्षा महसूस करती है तथा उसे लगता है कि किसी भी प्रकार की भयंकर से भयंकर आफत उसकी माँ के आंचल से टकराते ही चकनाचूर हो जाएगी । बाप के साये में संसार की सभी कामनाओं की पूर्ति होने की आशा सन्तान को आत्मविभोर कर देती है । बाल्यावस्था से युवा अवस्था होने तक सन्तान को अपने माँ बाप जीवन रक्षक दिखाई पड़ते हैं परन्तु युवा होते होते समय के साथ सन्तान को जीवन रक्षक नजर आने वाले माँ बाप भक्षक दिखाई पड़ने लगते हैं क्योंकि उनकी भुजाएं कुछ सबल होकर किसी प्रकार के कार्य करने में सक्षम होने लगती हैं ।

समय के साथ थकते शरीर के कारण माँ बाप द्वारा किसी कार्य के लिए सन्तान को पुकारे जाने पर सन्तान आक्रोशित होकर भडक जाती है क्योंकि उन्हें लगता है कि माँ बाप उनके आराम या कार्य में विघ्न उत्पन्न करने की अनावश्यक कोशिश करते हैं । जीविका उपार्जन के कार्यों में सक्षम होते ही सन्तान की दृष्टि में माँ बाप लोभी व कपटी दिखाई पड़ने लगते हैं जैसे उनकी आमदनी को हडपकर स्वयं उस पर ऐश करेंगे । सन्तान को समय के साथ माँ बाप सुखों में बाधक नजर आने लगते हैं जैसे उनके रहते ना सुख प्राप्त होगा तथा ना शांति प्राप्त होगी । माँ बाप से बिछड़ने की सोच से कांप उठने वाली सन्तान उनसे छुटकारा पाने एंव उन्हें प्रतिपल दूर करने के प्रयास करने लगती है ।

प्रत्येक दम्पत्ति जीवन भर मेहनत करके जमा करा हुआ धन अपनी सन्तान की भलाई व सुखों के लिए खर्च करने को तत्पर रहते हैं । सन्तान की परवरिश तथा शिक्षा प्राप्ति एंव सेवा कार्य अथवा व्यवसाय तथा सन्तान का विवाह करने के लिए जमा किया हुआ एक एक पैसा खर्च करने पर भी उनके चेहरे पर शिकन तक नहीं उभरती । अपने मुँह तक निवाला ले जाने से पूर्व सन्तान की भूख का ध्यान रखना प्रत्येक माँ बाप का कर्तव्य होता है तथा सन्तान की खुशियों के लिए अपनी इच्छाओं का दमन करना माँ बाप का स्वभाविक कार्य होता है । सन्तान की इतनी सेवा करने के पश्चात भी उनसे सिर्फ सम्मान तथा सहानभूति की अपेक्षा होती है तथा सम्पूर्ण सम्पदा उन्हें प्रदान करके वृद्धावस्था में जीवन निर्वाह के लिए भोजन की आवश्यकता होती है ।

माँ बाप वृद्धावस्था में भी सन्तान की घरेलू कार्यों में सहायता तथा घर की देख रेख एंव उनकी सन्तान की परवरिश के कार्य करते हैं तथा सदैव सन्तान के सुखों के लिए ईश्वर से प्रार्थना करना एवं उन्हें शुभ आशीष देना उनका दैनिक कार्य होता है । वृद्ध माँ बाप की किसी त्रुटी पर उन्हें प्रताड़ित करने से पूर्व सन्तान यह भी ध्यान रखना आवश्यक नहीं समझती कि उनकी कितनी ही त्रुटियों को नादान समझकर क्षमा किया गया होगा तथा उनकी अपनी सन्तान भी भविष्य में उसे इस प्रकार प्रताड़ित करेगी तो कितनी पीड़ा होगी । कुछ इस प्रकार की नालायक सन्तान भी होती हैं जो सम्पत्ति हडपने के लिए अपने जन्मदाता एंव पालनहार माँ बाप की मृत्यु की कामना करते हैं परन्तु अपनी सन्तान द्वारा इसी प्रकार की कामनाएँ करने की कल्पना तक नहीं करते ।

संसार में माँ बाप एक मात्र ऐसा सम्बन्ध है जो अपनी सन्तान की किसी भी प्रकार की भयंकर से भयंकर त्रुटी को क्षमा करने का साहस रखते हैं तथा कभी सन्तान के अनिष्ट की कल्पना तक नहीं करते , जीवन में अध्यात्मिक सुख तथा आत्मिक शांति की कामना हो तो कम से कम माँ बाप के साथ किसी प्रकार का दुर्व्यहवार करने से बचना आवश्यक होता है ।

पति पत्नी

May 22, 2014 By Amit Leave a Comment

pati patni

आदिकाल में जब इन्सान द्वारा सभ्यता अपनाई गई तथा समाज का निर्माण किया गया तब सर्वप्रथम स्त्री पुरुष के सम्बन्ध स्थापित करने के लिए नियम निर्धारित किए गए तथा विवाह प्रथा का निर्माण किया गया एवं स्त्री पुरुष की ग्रहस्थी बसाई गई जिसमे स्त्री को पत्नी तथा पुरुष को पति का दर्जा प्राप्त हुआ । पति पत्नी के सम्बन्ध या रिश्ते को समाज में विशेष स्थान प्राप्त है और इस रिश्ते को बहुत महत्व दिया जाता है । दो अपरिचित इंसानों को सम्पूर्ण जीवन एक दूसरे का साथ निभाने के लिए समाज तथा दोनों के परिवारों द्वारा एक सूत्र में बांध दिया जाता है । जीवन में सभी परिवारिक रिश्ते समय समय पर साथ छोड़ जाते हैं माँ, बाप, भाई, बहन यहाँ तक कि अपनी सन्तान भी साथ छोड़ कर चली जाती है परन्तु पति पत्नी जब तक दोनों जीवित होते हैं साथ निभाते हैं । इस ग्रहस्थ रिश्ते का अंत दोनों में से किसी एक या दोनों की मृत्यु के पश्चात होता है इसलिए इन्हें जीवन साथी पुकारा जाता है ।

ग्रहस्थ जीवन का सम्बन्ध जितना प्रगाढ़ होता है उतना ही समस्या पूर्ण, जटिल तथा नाजुक भी होता है क्योंकि इस रिश्ते में परिवार के सदस्य ही दरार डालने तथा कलह करवाने का कार्य करते हैं । अधिकांश पुरुष पक्ष के कपटी सदस्य अपनी चालाकी तथा शरारतों से इस रिश्ते में कलह के बीज बो कर अपना स्वार्थ सिद्ध करने की कोशिश को अंजाम देने में लगे रहते हैं । कभी कभी स्त्री पक्ष के सदस्य भी ग्रहस्थ रिश्ते को अपने किसी स्वार्थ की पूर्ति हेतु खराब करने की कोशिश करते हैं । दो अपरिचित इंसानों के मध्य प्रेम तथा विश्वास की बुनियाद पर स्थापित किया गया यह रिश्ता आपसी मनमुटाव के कारण कभी कभी अलगाव की स्थिति तक पहुंच जाता है जिसमे अधिकतर पुरुष की नासमझ बुद्धि तथा उसका अहंकार रिश्ते के अंत का कारण बन जाता है ।

पति पत्नी के रिश्ते के अतिरिक्त किसी अन्य रिश्ते को स्थापित करने के लिए किसी को मित्र बनाने के समान कार्य होता है किसी से माँ, बाप, भाई, बहन, पुत्र, पुत्री या अन्य कोई रिश्ता स्थापित करना हो तो सिर्फ कह देने तथा मान लेने से कार्य सम्पन्न हो जाता है । परन्तु स्त्री पुरुष के मध्य ग्रहस्थ सम्बन्ध स्थापित करने के लिए धर्म, समाज एंव क़ानूनी प्रकिर्या के नियमों का पालन करना अनिवार्य होता है इससे प्रमाणित होता है कि यह कितना महत्वपूर्ण सम्बन्ध है । ऐसे महत्वपूर्ण सम्बन्ध को किसी के द्वारा हस्तक्षेप करने अथवा किसी प्रकार की अफवाह के कारण हानि पहुँचाने से पूर्व सभी पहलुओं का आकलन करना तथा वार्तालाप द्वारा सम्पूर्ण सत्यता की समीक्षा करना अत्यंत आवश्यक होता है । शरारती अथवा कपटी इंसानों के कथन से अपने ग्रहस्थ जीवन को दांव पर लगाना मूर्खता का कार्य होता है ।

अधिकतर पुरुष परिवार के सदस्य अपनी महत्वता प्रमाणित करने तथा भविष्य में खुद को महत्वपूर्ण बनाए रखने के लिए वधु को प्रताड़ित करना अपना अधिकार समझते हैं जिसके लिए प्रत्येक छोटी से छोटी त्रुटी या नादानी को माध्यम बनाया जाता है । ग्रहस्थ जीवन में हस्तक्षेप करने तथा कटुता उत्पन्न करने वाले के लिए अपनी ग्रहस्थी की ओर ध्यान देना भी आवश्यक होता है जिसमे किसी के द्वारा विघ्न उत्पन्न करने से होने वाली पीड़ा का अहसास मार्गदर्शन कर सकता है । सम्मानित सदस्यों द्वारा प्रताड़ित करने से उत्पन्न होने वाली दूरियां समय के साथ उनके लिए हानिप्रद हो जाती हैं इसके लिए सन्तान की ग्रहस्थी को प्रताड़ित करने के स्थान पर संवारने की कोशिश करने पर ही उचित सम्मान प्राप्त होता है ।

भारतीय परिवारों में पुत्री का स्तर पुत्रवधू से उच्च माना जाता है तथा पुत्री द्वारा पुत्रवधू का शोषण करने पर भी परिवार पुत्री का ही साथ देता है जिसके फलस्वरूप परिवार में कटुता उत्पन्न होने लगती है । पुत्री जिस परिवार में पुत्रवधू होगी वहां उसका शोषण होने से उत्पन्न होने वाली पीड़ा भी परिवार को समझाने में असफल रहती है जिसका परिणाम सदैव खराब ही निकलता है । झूट व फरेब की बुनियाद पर ग्रहस्थ सम्बन्ध अधिक समय तक सफल नहीं रहते तथा धन के कारण अथवा स्वार्थ वश रिश्तों का शोषण करना जीवन नर्क समान बना देता है । पति पत्नी के रिश्ते को काम वासना की दृष्टि से देखना अथवा आचरण पर शक करना व एक दूसरे पर व्यंग करना या कटाक्ष करना तथा एक दूसरे के परिवार के सदस्यों पर कटाक्ष करना तथा उनके लिए अनुपयुक्त शब्दों का प्रयोग करना ग्रहस्थ सम्बन्धों को खोखला करना है ।

ग्रहस्थी में पुरुष से अधिक स्त्री की महत्वता है क्योंकि परिवार को एक सूत्र में बांध कर रखना तथा आस पास के रिश्तों को संवारना स्त्री के कारण ही संभव होता है तथा सन्तान पिता की अपेक्षा माँ को अधिक प्यार तथा सम्मान देती है । जब सन्तान युवा हो जाती है तो माँ का साथ देती है और पिता द्वारा करी गई हिंसा के लिए उसे प्रताड़ित करती है ऐसी अवस्था में पुरुष को अपनी त्रुटियों का अहसास होने तथा पश्चाताप करने के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं रहता । अच्छा व्यहवार ही सुखी ग्रहस्थ जीवन प्रदान करता है इसलिए जीवन में संतुलन बनाने के लिए एक दूसरे का आदर करना और आपस में भावनाओं का ध्यान रखकर कार्य करना अत्यंत आवश्यक होता है ।

संतान

May 22, 2014 By Amit Leave a Comment

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सन्तान अर्थात इन्सान के जीवन की सबसे जटिल पहेली जिसे सुलझाते सुलझाते इन्सान का सम्पूर्ण जीवन व्यतीत हो जाता है परन्तु पहेली सुलझाने में इन्सान स्वयं उलझकर रह जाता है । सन्तान उत्पन्न करना अत्यंत सरल कार्य है परन्तु सन्तान का उचित प्रकार से शारीरिक तथा मानसिक पोषण करके उन्हें सफल एवं सुखी जीवन निर्वाह करने लायक बनाना इन्सान के जीवन का सबसे कठिन कार्य होता है । शिशु जन्म के समय अत्यंत अल्प बुद्धि होता है परन्तु उसकी विकासशील बुद्धि पर आस पास की सभी वस्तुओं की पहचान करना एवं वातावरण में होने वाली सभी प्रकार की हरकतों का प्रभाव बहुत तीव्रता से होता है । सन्तान जो शिक्षा प्राप्त करती है तथा उसके आचरण व व्यवहार एवं संस्कार सभी का मुख्य श्रेय माँ बाप को जाता है वैसे सन्तान पर माँ का प्रभाव अधिक होता है क्योंकि माँ के साथ सन्तान का सर्वाधिक समय व्यतीत होता है । माँ बाप के प्रत्येक आचरण तथा व्यवहार को संतान शीघ्रता पूर्वक धारण करती है तथा माँ बाप के द्वारा कहे गए प्रत्येक वाक्य सन्तान के मस्तिक पर सीधा असर करते हैं ।

संतान की परवरिश कोई साधारण कार्य नहीं है इसके लिए कुछ तथ्यों पर ध्यान देना आवश्यक है । इन्सान में मोह, लोभ, काम, क्रोध व अहंकार के अतिरिक्त अन्य विकार जैसे घृणा, डर, कायरता, कुंठा, अस्थिर आत्म विश्वास, असत्य वाणी, कटु वचन, ईर्षा, हिंसकता वगैरह सभी विकार उत्पन्न होने का कारण माँ बाप तथा परिवार होता है । बाल्यकाल में दुलार वश हाथापाई करने से हिंसकता उत्पन्न होती है एवं भोजन करने व दुग्ध पान अथवा किसी प्रकार का कार्य कराने के लिए किसी प्रकार के डरावने वाक्यों तथा हाव भाव बच्चों में डर तथा कायरता उत्पन्न करते हैं । किसी प्रकार की खाने की वस्तु का लालच देकर कार्य कराने की कोशिश लोभ में वृद्धि तथा रिश्वत प्राप्त करने की शिक्षा देती है ।

किसी के समक्ष सन्तान के कार्यों की प्रशंसा करने से उनमें अहंकार की वृद्धि होती है तथा किसी के समक्ष सन्तान की त्रुटियाँ प्रदर्शित करने से उनमें घृणा तथा कुंठा उत्पन्न होती है । सन्तान के समक्ष किसी अन्य इन्सान की बुराई करने या प्रशंसा करने से उनमें ईर्षा की भावना उत्पन्न होती है । सन्तान के समक्ष असत्य कथन से सन्तान भी असत्य बोलने की शिकार होती है क्योंकि उन्हें माँ बाप को असत्य बोलते देखकर असत्य कथन में कोई बुराई नजर नहीं आती । सन्तान के प्रश्नों के उत्तर देने के स्थान पर उन्हें डांटकर चुप कराने से उनमें जिज्ञासा प्रवृति का अंत तथा क्रोध करने का स्वभाव पनपता है तथा बार बार डांटने से कटु वचन एवं जिद करने का स्वभाव बन जाता है ।

बच्चे के कोमल अंगों से छेड़खानी करने से उनमें कामुकता पनपती है इस कारण सदैव ध्यान रखना आवश्यक है कि कोई उनके साथ इस प्रकार की शरारत ना कर सके । बाल्यावस्था से ही भगवान के मन्दिर में हाथ जोड़ने तथा पूजा करवाने से बच्चों के आत्म विश्वास में कमी आती है क्योंकि बच्चे समझते हैं कि भगवान के समक्ष हाथ जोड़ने से सभी कार्य सम्पन्न हो जाते हैं इसलिए उन्हें किसी प्रकार के परिश्रम की आवश्यकता नहीं है । सन्तान के समक्ष किसी प्रकार का दुर्व्यवहार अथवा त्रुटिपूर्ण व्यवहार करने से सन्तान के व्यवहार में भी उसी प्रकार की स्वाभाविकता उत्पन्न होती है ।

अभिभावक सन्तान की शिक्षा प्राप्ति के लिए निरंतर प्रयासरत रहते हैं परन्तु सन्तान को शिक्षा के प्रति जागरूक करने के स्थान पर उनके कोमल तथा चंचल मन को भटकाने का कार्य भी करते हैं । बाल्यकाल में जिज्ञासु प्रवृति होने के कारण प्रत्येक रंग बिरंगी तथा आकर्षक वस्तु बच्चों का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित करती है तथा अभिभावकों द्वारा टी वी कार्यक्रम देखते हुए उनका ध्यान भी शिक्षा पर ना होकर टी वी पर ही होता है । घर में टी वी कार्यक्रमों के प्रति अपने मन को वश में करने के स्थान पर सन्तान को पढाई के लिए डांटना अभिभावकों की दोहरी तथा कमजोर मानसिकता को प्रमाणित करता है सन्तान को डांटने से उचित है कि स्वयं भी उनकी शिक्षा में जुड़ना और उनकी मदद करना तथा उन्हें शिक्षा के प्रति जागरूक करना जो उन्हें शिक्षा का महत्व समझाने पर ही आकर्षण उत्पन्न करती है ।

सन्तान माँ बाप के आचरण एवं व्यवहार का आईना होती है जिस प्रकार का आचरण तथा व्यवहार माँ बाप द्वारा किया जाता है सन्तान वैसा ही स्वभाव समाज के समक्ष प्रदर्शित करती है । जैसा स्वभाव सन्तान से अपेक्षित हो वैसा ही व्यवहार घर में एवं संतान के समक्ष करना उचित होता है । संतान की अपराधिक गतिविधियों का कारण भी परिवार होता है क्योंकि समय के अभाव में सन्तान का उचित मार्गदर्शन ना करने तथा उनकी जिज्ञासा शांत ना करने पर वें बाहर का रास्ता तलाश कर लेते हैं जहाँ पर किसी की सोहबत उन्हें किसी भी प्रकार के अपराधिक कार्य की तरफ आकर्षित कर सकती है । सन्तान को बाहरी सोहबत से दूर रखने के लिए उन्हें समय तथा मार्गदर्शन देना एवं उनकी जिज्ञासा शांत करना तथा उनके प्रश्नों के उचित समाधान करना अत्यंत आवश्यक कार्य है ।

सन्तान उत्पन्न करने से कार्य पूर्ण नहीं हो जाता उनका उचित पोषण तथा मार्गदर्शन ही उन्हें सम्मानित तथा सफल इन्सान बना सकता है । संतान को शिक्षा प्राप्ति के साथ उन्हें सामाजिक बुराइयों, छल, कपट व धोखे जैसे विषयों का ज्ञान देना भी आवश्यक है जिससे वें अपराधिक प्रवृति के इंसानों से अपनी रक्षा करने में सक्षम बन सकें । संतान समाज में माँ बाप की छवि प्रस्तुत करती है इसलिए समाज में अपना सम्मान कायम रखने के लिए संतान को व्यवहारिक बनाना भी आवश्यक है क्योंकि संतान को मिलने वाला सम्मान वास्तव में माँ बाप का सम्मान ही होता है ।

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जीवन सत्यार्थ

इंसान के जीवन में जन्म से मृत्यु तक के सफर में तृष्णा, कामना तथा बाधाएं उत्पन्न होकर मानसिकता में असंतोष तथा भटकाव की स्थिति उत्पन्न कर देते हैं जिससे जीवन कष्टदायक व असंतुलित निर्वाह होता है। जीवन सत्यार्थ ऐसा प्रयास है जिसके द्वारा सत्य की परख करके कष्टकारी मानसिकता से मुक्ति पाकर जीवन संतुलित बनाया जा सकता है। पढने के साथ समझना भी आवश्यक है क्योंकि पढने में कुछ समय लगता है मगर समझने में सम्पूर्ण जीवन भी कम हो सकता है और समझने से सफलता प्राप्त होती है।

प्रस्तुत कर्ता - पवन कुमार

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