जीवन का सत्य

जीवन सत्यार्थ

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March 10, 2014 By Amit

मोह = वह भंवर जिसमे फंसकर जीवन दुखों से भर जाता है।

लोभ = वह तृष्णा जो सुख शांति व सब्र का नाश कर देती है।

काम = वह अग्नि जो बुद्धि, आत्मा, व शारीर को जलाकर जीवन नरक बना देती है।

अहंकार = वह दलदल है जिसमे फंसकर मित्रों व शुभचिंतकों का साथ छूट जाता है।

क्रोध = ऐसा अजगर जो बुद्धि, व्यवहार, और आचरण को निगल जाता है।

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मोह

April 26, 2014 By Amit Leave a Comment

moh

जिस प्रकार किसी मशीनी उपकरण के कार्य करते समय कोई खराबी उसके कार्य को प्रभावित करती है जैसे कम्प्यूटर में वायरस का होना उसी प्रकार इन्सान की सोच में आई खराबी जो उसे गलत सोचने एंव त्रुटियाँ करने पर मजबूर करती है उसे विकार कहा जाता है । इन्सान का मानसिक तन्त्र अनेक विकारों से भरा पड़ा है जिसके कारण यह संसार नर्क समान हो गया है जिससे संसार में हत्या, अपहरण, लूट, बलात्कार, चोरी जैसे जघन्य अपराध उत्पन्न हो गए हैं । वैसे तो विकार अनेक प्रकार के हैं परन्तु अनेक विकारों में मुख्य पांच प्रकार के विकार होते हैं मोह, लोभ, काम, क्रोध, अहंकार । इन पांच विकारों से ही बाकि सभी प्रकार के विकारों का प्रभाव मस्तिक पर होता है जो इन विकारों की देन है । पांचो विकारों में भी जन्म के पश्चात इन्सान में उत्पन्न होने वाला सबसे पहला विकार मोह है बाकि सभी विकार मोह के पश्चात उत्पन्न होते हैं अर्थात कहा जाए तो सभी विकार मोह के कारण ही उत्पन्न होते हैं । मोह सभी विकारों की जड़ है ।

मोह इन्सान के जीवन की स्वभाविक प्रक्रिया है परन्तु इसका असंतुलित होना अत्यंत हानिकारक होता है संतुलन में होने से अधिक प्रभाव नहीं होता । मोह ऐसा विकार है जिसकी अधिकता इन्सान के जीवन को संघर्ष पूर्ण एंव कष्टकारी बनाती है अर्थत जितना अधिक मोह होगा उतना अधिक कष्टदायक जीवन हो जाता है क्योंकि मोह के मद में इन्सान का विवेक कार्य नहीं करता और वह अपने मन एवं भावनाओं का गुलाम बन कर रह जाता है । जन्म के बाद सर्वप्रथम परिवार के सदस्यों के प्रति मोह उत्पन्न होता है तथा भोजन की वस्तुओं के मोह का आगमन भी होने लगता है फिर खेलों के सामान का मोह भी आरम्भ हो जाता है ।

जिनमे खाने या खेलने के प्रति अधिक मोह होता है उनकी शिक्षा को ग्रहण लग जाता है क्योंकि खाने या खेलने में फंसा मन शिक्षा की तरफ ध्यान देने से मना करता है , खाने का मोह शरीर में वसा की मात्रा बढ़ा कर शरीर को आलसी बना देता है जिसके कारण शिक्षा प्राप्ति में बाधा उत्पन्न हो जाती है । जो खेलों के मोह में फंस जाते हैं उनकी बुद्धि और शरीर की थकावट के कारण वे शिक्षा से दूर हो जाते हैं । खाने और खेलों के मोह वाले इन्सान शिक्षा को बोझ समझकर उसे प्राप्त तो कर लेते हैं परन्तु अपने विषयों में विशेषता प्राप्त करना उनके वश का कार्य नहीं होता । परिवार के सदस्यों का मोह होना स्वभाविक है परन्तु मोह की अधिकता होने पर परिवार के दूसरे सदस्य उसका लाभ प्राप्त कर उसे इस्तेमाल करते हैं तथा कभी कभी तो उसके सभी हक एंव विरासत को हडप जाते हैं ।

इन्सान किसी बाहरी इन्सान के मोह में फंस जाए तो उसके दो प्रकार होते हैं कोई मित्र बन कर मोहित करता है तथा कोई शरीरिक आकर्षण अर्थात भिन्न लिंगी के चक्रव्यूह में फंस जाता है । मित्रता कोई बुरा विषय नहीं है क्योंकि जीवन में यदि सच्चा मित्र प्राप्त हो जाए तो जीवन व्यतीत करने में सरलता हो जाती है यदि कोई बुरा इन्सान मित्र के रूप में प्राप्त हो जाए तो वह कोई भयंकर नुकसान कर सकता है । मित्र का मोह संतुलित होगा तो वह अच्छा या बुरा हो अधिक नुकसान नहीं कर सकता परन्तु मोह की अधिकता में बुरा मित्र धन, इज्जत व जीवन तक कुछ भी लूट सकता है ।

शरीरिक आकर्षण का दुष्परिणाम तो अधिक भयंकर होता है क्योंकि काम वासना की कामाग्नि इन्सान की बुद्धि और विवेक को खा जाती है तथा रह जाता है सिर्फ मन जो अपने प्रिय के मोह में जान देने को तैयार रहता है । शरीरिक आकर्षण में फंसा इन्सान अपने जीवन का कोई भी गलत से गलत फैसला ले सकता है इसलिए इन्सान को किसी के मोह में फंसकर अपने विवेक और बुद्धि का प्रयोग करना नहीं छोड़ना चाहिए । मोह के अनेक रूप हैं जैसे धन का मोह, किसी भौतिक वस्तु का मोह, किसी वाहन का मोह, किसी जानवर का मोह वगैरह कोई भी मोह हो जीवन में दुःख अवश्य देगा क्योंकि संसार की प्रत्येक वस्तु व जीव सभी का समाप्त होना तय है । जिस से मोह हो जाए उसका विछोह इन्सान के दुखों का कारण बनता है ।

मोह से इन्सान के मन में भय उत्पन्न होता है क्योंकि जिससे मोह हो जाए उसके साथ किसी दुर्घटना की आशंका इन्सान को भयभीत करती है । यदि किसी इन्सान से मोह की अधिकता हो तो उसके द्वारा की गई गलतियों को नजर अंदाज करके स्वयं को मुसीबत में फंसाना यह इंसानी आदत है क्योंकि गलती करने पर समझाया न जाए या दंड न दिया जाए तो गलती करने की आदत में वृद्धि हो जाती है जिसका दुष्परिणाम अपराधिकता को बढ़ावा देना है तथा अपराधी का मोह मुसीबत का कारण ही बनता है । जीवन में मोह को समाप्त नहीं किया जा सकता परन्तु समझदार इन्सान मोह होने पर भी सदा अपने विवेक द्वारा ही सभी प्रकार के फैसले लेते है जिसके कारण मोह उनके जीवन का कलंक नहीं बनता ।

लोभ

April 26, 2014 By Amit 1 Comment

lalach

लोभ इन्सान में उत्पन्न होने वाला दूसरा विकार है जो मोह के कारण ही उत्पन्न होता है । कहा जाए तो लोभ मोह का दूसरा रूप होता है यह किसी भी भौतिक वस्तु, धन, भोजन, जमीन जायदाद के प्रति मोह हो जाने पर अधिक से अधिक प्राप्त करने की मन की कामना को लोभ कहा जाता है । लोभ ऐसी तृष्णा है जिससे जीवन में सर्वप्रथम सब्र करने की शक्ति का अंत हो जाता है तथा जिस इन्सान का सब्र समाप्त हो जाता है उसके जीवन में सुख और शांति नहीं रहती क्योंकि लोभी इन्सान हमेशा अधिक प्राप्ति की इच्छा में भटकता रहता है । लोभ करने की आदत से इन्सान की समाजिक प्रतिष्ठा समाप्त हो जाती है क्योंकि समाज सदा त्याग करने एंव सेवा करने वाले इन्सान को सम्मान देता है किसी लोभी मनुष्य को कदापि नहीं ।

इन्सान का समाजिक पतन उसके आने वाले जीवन में कितना हानिकारक होगा उसका अनुमान लोभी इन्सान कभी नहीं लगाता । लोभ के कारण इन्सान की बुद्धि कुंठित हो जाती है तथा विवेक या तो होता ही नहीं यदि होता है तो कार्य नहीं करता क्योंकि लोभी इन्सान सदा मन के द्वारा ही जीवन के प्रत्येक निर्णय लेता है एवं मन सदैव इन्द्रीयों के वशीभूत कार्य करता है । लोभ इन्सान को कब बेईमान बना देता है उसे स्वयं भी अहसास तक नहीं होता । वह कब भ्रष्टाचारी एंव चोर बना तथा उसने कब किसी के मन को ठेस पहुंचाई इन सब बातों को सोचने और समझने की शक्ति लोभी इन्सान में नहीं रहती । बचपन से ही लोभी इन्सान को अपनी प्रिय वस्तुओं को छुपा कर रखना तथा किसी की वस्तु पसंद आने पर उसे चुरा लेना जैसी आदतें हो जाती हैं जो समय के साथ प्रगति करके उसे अपराधी भी बना सकती हैं ।

लोभ किसी भी प्रकार का हो जीवन को कष्टदायक ही बनाता है जैसे भोजन के लोभी मनुष्य स्वाद के चक्कर में भोजन अधिक मात्रा में खाकर पेट दर्द की पीड़ा से गुजरते हैं एंव अधिक व वसा युक्त एंव नुकसानदायक पदार्थों के सेवन से शरीर में वसा की अधिक मात्रा से अपना वजन बढ़ा लेते हैं जिससे भयंकर बीमारियाँ उनके जीवन को नर्क समान बना देती हैं । बिमारियों की पीड़ा और इलाज पर होने वाला खर्च एंव शरीर की कार्य क्षमता का नष्ट होना सभी इन्सान की समझदारी से रोका जा सकता है इन्सान यदि भोजन को स्वास्थ्य के लिए प्रयोग करे और स्वाद से दूर रहे तो उसका जीवन सुखमय होता है ।

जिस इन्सान में धन या जमीन जायदाद अधिक प्राप्त करने के लालच में वृद्धि हो जाती है वह खुद को किसी भी कष्ट में फंसा लेता है । अधिक प्राप्ति का लोभ इन्सान को भ्रष्ट और कपटी बना देता है जिससे वह अपने पराये की समझ खो देता है । धन का लोभी इन्सान किसी अपने को ही ठगने की कोशिश करता है क्योंकि पराया इन्सान किसी के जाल में तुरंत नहीं फंसता अपने को फंसाना सरल कार्य होता है । किसी को ठगने से शत्रुता होना स्वभाविक है और शत्रुता का अंजाम सदा बुरा होता है । जो इन्सान लोभ वश रिश्वत लेने जैसे कार्य करते हैं उनका जीवन सदा तलवार की धार पर चलने जैसा होता है क्योंकि जरा सी चूक होते ही नौकरी जाने के अतिरिक्त जीवन कारागार में कटता है तथा परिवार की मर्यादा को ठेस पहुंचती है जिसके कारण परिवार की प्रगति में बाधा उत्पन्न हो जाती है ।

लोभ के कारण अपराधिक कार्य करने वाले इन्सान के जीवन में शादी विवाह एंव रिश्ते सभी समस्या बनकर रह जाते हैं क्योंकि किसी अपराधी से समाज कोई सम्बन्ध नहीं रखना चाहता । कभी कभी लोभी इन्सान अधिक प्राप्त करने के चक्कर में खुद किसी जाल में फंस जाता है जब कोई असमाजिक तत्व किसी लोभी को पहचान लेता है तो उसे कोई मोटा लालच देकर फंसा लेता है तथा उसे भरपूर लूटता है । लोभ के कारण इन्सान धन, जमीन, आभूषन वगैरह जमा करने में लगा रहता है एवं उसका परिवार ऐश करता है परन्तु लोभी इन्सान का समाज द्वारा अपमान करने पर उसका परिवार स्वयं उसे प्रताड़ित करता है क्योंकि खुद को धनाड्य समझने वाला परिवार लोभी को ही अपने अपमान का कारण मानता है ।

लोभ इन्सान में भय उत्पन्न करता है क्योंकि धन और आभूषनों की चोरी या जमीन जायदाद को किसी के द्वारा हडपने का भय सदा उसे सताता रहता है । बेईमानी से प्राप्त किए धन या जायदाद को कानून से छुपाना भी आवश्यक होता है इसलिए कानून व समाज का भय होना लोभी इन्सान की स्वभाविक प्रक्रिया है । जिस जीवन के लिए लोभ वश इन्सान अपने अंक में दुनिया समेटना चाहता है उस जीवन का कोई विश्वास नहीं है । मृत्यु कब किसे अपने आगोश में समा ले इसकी जानकारी प्रकृति के अतिरिक्त किसी इन्सान को नहीं है । लोभ इन्सान के जीवन का कलंक है परन्तु लोभ का होना भी आवश्यक है क्योकि लोभ इन्सान को प्राप्त करने की प्रेरणा देता है जिससे इन्सान कार्य करने की ओर अग्रसर होता है परन्तु लोभ का संतुलन होने से वह अपराध से नहीं मेहनत द्वारा प्राप्त करने पर विश्वास करता है ।

काम

April 26, 2014 By Amit 4 Comments

kaam

काम इन्सान में उत्पन्न होने वाला तीसरा विकार है जिसे इन्सान ने अपने कर्मों से इसे सबसे घिनौना विकार का रूप दे दिया है । वैसे यह भी मोह के कारण ही उत्पन्न होता है जैसे भौतिक मोह अर्थात लोभ होता है उसी प्रकार देहिक मोह अर्थात काम है । काम वासना की कामाग्नि शरीरिक आकर्षण के कारण उत्पन्न होती है विपरीत लिंग के शरीर की सुन्दरता के प्रति आकर्षण उत्पन्न होने से इन्सान में कामाग्नि का भडकना स्वभाविक है । काम प्राकृति की प्रत्येक जीव को देन है क्योंकि काम के कारण ही संसार में उत्पत्ति है जो जीवन का माध्यम है । काम की समाप्ति होने से संसार में जीवन समाप्त हो जाएगा अर्थात जीवन को संसार में उपलब्ध रखने के लिए काम का होना आवश्यक है परन्तु संतुलित प्रकार से ।

संसार के सभी जीव उत्पत्ति के लिए काम का प्रयोग करते हैं परन्तु इन्सान द्वारा इसे विकृत करके इसे विकार का रूप दे दिया गया । इन्सान की इन्द्रीओं से उसे जीवन संचालन में सहायता प्राप्त होती है जैसे मुख द्वारा भोजन प्राप्त करना, नासा द्वारा वायु से आक्सीजन प्राप्त करना, कानों से ध्वनी की प्राप्ति एंव नेत्रों द्वारा संसार का दृष्टि पात जो जीवन के लिए अति आवश्यक कार्य है । लिंग प्रकृति ने इन्सान को उत्पत्ति करने के लिए प्रदान किया परन्तु इन्सान ने इसे आनन्द प्राप्त करने का साधन समझकर इसका गलत प्रकार से उपयोग प्रारम्भ कर दिया जिसके कारण काम को विकारों की श्रेणी में रखा गया ।

वर्तमान में इन्सान ने अपनी काम वासना को शांत करने के इतने घिनौने तरीकों का प्रयोग किया है जिससे इन्सान संसार के सभी जीवों से नीच प्राणी बनकर रह गया है । स्त्री या पुरुष दोनों काम के मद में अपने पथ से भटक चुके हैं अपनी कामाग्नि की पूर्ति हेतू तथा अधिक से अधिक आनन्द प्राप्त करने की चाह में छोटे बच्चों तक से बलात्कार करने जैसे जघन्य अपराध करना इन्सान का स्वभाव बनता जा रहा है । ऐसे जघन्य अपराध से किसी बच्चे का जीवन नष्ट हो जाए या बलात्कारी को कानून द्वारा दंड मिले तथा उसका जीवन नष्ट हो जाए एंव उनके परिवार के सदस्यों का समाजिक पतन हो जाए इसकी परवाह काम वासना को शांत करने के लिए किए गए बलात्कार को बलात्कारी नहीं सोचते ।

समाज ने कड़े कानून बनाए परन्तु इन विकृत इंसानों पर कोई असर नहीं हुआ इसका कारण हमारी शिक्षा प्रणाली भी है क्योंकि नैतिक शिक्षा त्यागकर धन प्राप्त करने की विकृत मानसिकता ने इन्सान को मशीन का रूप दे दिया है जो सिर्फ शिक्षा धन प्राप्त करने की वजह से ग्रहण करता है । अपनी वासना शांत करने के लिए विपरीत लिंग के इन्सान को धन के द्वारा फंसाना या प्रेम जाल का प्रयोग करके फंसाना तथा न फंसने पर बल प्रयोग करना साधारण सी कार्यवाही हो गई है । परन्तु इन्सान का इससे भी घिनौना रूप प्रस्तुत हुआ है जो अप्राकृतिक सम्भोग अर्थात समलैंगिक सम्बन्ध है जिसमे नर से नर मादा से मादा सम्भोग करने का कार्य करते हैं ।

समलैंगिक सम्बन्ध के विषय में जानकर ईश्वर भी आश्चर्य चकित अवश्य होगा क्योंकि सभी जीवों की रचना और उनके कार्यों से इन्सान का यह कार्य संसार में सबसे पृथक व अद्भुत है । काम इन्द्रीओं का ऐसा उपयोग ईश्वर की समझ से बाहर की क्रिया होगी परन्तु समाज के ठेकेदार, जननेता और जननायक समलैंगिकता को क़ानूनी मान्यता प्रदान करने की तरफदारी करते नहीं थकते । इन्सान ने सम्भोग के लिए तथा अपनी कामाग्नि शांत करने के लिए शायद जानवरों का उपयोग भी किया हो तो कोई आश्चर्य नहीं होगा । कामान्धता में फंसे इंसानी दरिन्दे वासना शांति के लिए लाशों पर से गुजर कर भी अपनी पिपासा शांत करने से नहीं हिचकते ।

कामुकता स्वभाविक रूप में प्रेम को उत्पन्न करती है परन्तु विकराल होने पर हत्या करना, धोखा करना, बलात्कार करना, तेजाब या अग्नि द्वारा जलाना जैसे जघन्य अपराधों को उत्पन्न करती है । कामुकता की अधिकता विकार बनकर बुद्धि और विवेक को नष्ट कर देती है जिससे इन्सान का मन स्वतंत्र होकर अपराधिक कार्यों को अंजाम देता है । जवानी में करी गई अय्याशी वृद्धा अवस्था में मन को कचोटती है क्योंकि अय्याश इन्सान का बुढ़ापा बिमारियों से भरपूर होता है जिससे शरीर जर्जर होकर जीवन कष्टदायक हो जाता है । अय्याशी के कारण परिवार के सदस्य उसे कभी सम्मान नहीं देते तथा समाज तो ऐसे इंसानों से दूर रहता है । काम को इन्सान किस प्रकार प्रयोग करता है उसकी अपनी सोच है प्रेम के रूप में या विकराल रूप में।

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जीवन सत्यार्थ

इंसान के जीवन में जन्म से मृत्यु तक के सफर में तृष्णा, कामना तथा बाधाएं उत्पन्न होकर मानसिकता में असंतोष तथा भटकाव की स्थिति उत्पन्न कर देते हैं जिससे जीवन कष्टदायक व असंतुलित निर्वाह होता है। जीवन सत्यार्थ ऐसा प्रयास है जिसके द्वारा सत्य की परख करके कष्टकारी मानसिकता से मुक्ति पाकर जीवन संतुलित बनाया जा सकता है। पढने के साथ समझना भी आवश्यक है क्योंकि पढने में कुछ समय लगता है मगर समझने में सम्पूर्ण जीवन भी कम हो सकता है और समझने से सफलता प्राप्त होती है।

प्रस्तुत कर्ता - पवन कुमार

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