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संकोच – sankoch

April 6, 2020 By प्रस्तुत करता - पवन कुमार Leave a Comment

किसी भी कार्य को सम्पन्न करने में इन्सान की मानसिकता में शर्म अथवा भय उत्पन्न होकर कार्य में बाधा बनते हैं तो वह उसका संकोच (sankoch) होता है | संकोच (sankoch) मानसिकता का सबसे घातक विकार है | क्योंकि इन्सान के जीवन में अभाव एवं असफलताओं का मुख्य कारण उसका संकोच (hichkichana) होता है | संकोच (sankoch) के कारण इन्सान अपने जीवन को स्वयं अभावग्रस्त तथा असफल बना लेता है तथा दोष सदैव अपनी किस्मत को देता है | एक सफल एवं सक्षम जीवन निर्वाह करने के लिए इस विषय को समझकर अपनी मानसिकता में परिवर्तन करना आवश्यक है अन्यथा पश्चाताप सम्पूर्ण जीवन प्रताड़ित करता है |

 संकोच (hichkichana) के कारण समय पर समस्या का समाधान ना होने से समस्या में वृद्धि हो जाती है | समय पर आवश्यकता पूर्ति ना होने पर कार्य असफल हो जाते हैं | समय पर सहायता प्राप्त ना होने से हानि होती है | समय पर वस्तु या धन उपलब्ध ना होने से कार्य असफल होते हैं | समय पर कार्य सम्पन्न ना होने से अभाव उत्पन्न  हो जाता है | किसी भी कार्य में दूसरों की सहायता लेने से जब इन्सान संकोच (hasitation) करता है तो उसे किसी ना किसी प्रकार की हानि अवश्य होती है जो उसके जीवन को अभावग्रस्त बनाती है | कभी-कभी इन्सान संकोच के कारण किसी के समक्ष भूखा होने पर भी कुछ खाने या भोजन करने से भी मना कर देता है |

 संकोच (hesitation) इन्सान के बाल्यकाल से ही उसकी मानसिकता को प्रभावित करने लगता है जिसका मुख्य कारण परवरिश के समय लापरवाही होती है | अपनी बात, समस्या अथवा आवश्यकता को बताने पर परिवार द्वारा प्रताड़ित करना बाल्यावस्था में संकोच का आरम्भ होता है | परिवार को प्रतिष्ठित बताकर किसी से सहायता मांगने को ओछा कार्य बताना सन्तान की मानसिकता में अहंकार उत्पन्न करता है जिसके कारण वह किसी से भी सहायता मांगने में सदैव संकोच करता है | दूसरे इंसानों की द्वारा अधिक प्रशंसा या चापलूसी करने से भी अहंकार उत्पन्न होकर इन्सान को संकोची बना देता है | अपनी समस्या का समाधान करने, किसी प्रकार की सहायता मांगने, कोई वस्तु या धन उधार मांगने, अथवा किसी कार्य को करवाने की आवश्यकता होने पर भी इन्सान अपनों से भी संकोच के कारण खुद को अभावग्रस्त एवं असफल बना लेता है |

संकोच (sankoch) करने के प्रभाव के कारण इन्सान की मानसिकता में हीनभावना उत्पन्न होने लगती है | संकोच (hasitation) करने वाले इन्सान किसी के द्वारा शोषण होने पर अपमान के भय से बताने से भी संकोच (sankoch) करते हैं जिसके प्रभाव से उनमें कायरता उत्पन्न होने लगती है | किसी के द्वारा मूर्ख बनाने या धन लेकर वापस ना करने पर भी संकोच करने वाले सार्वजनिक नहीं करते क्योंकि उन्हें लगता है उनको मूर्ख एवं कायर समझा जाएगा | संकोच के कारण अपनी समस्या किसी को ना बताने के कारण मानसिक तनाव बढने लगता है जो उनको आक्रोशी एवं तनावग्रस्त बना देता है | संकोच के कारण इन्सान का आत्मविश्वास कमजोर होकर उसकी इच्छाशक्ति को क्षीण कर देता है |

इन्सान के संकोच (phobia) का समाधान सर्वप्रथम उसका परिवार वास्तविकता से परिचित करवाकर समाप्त कर सकता है | संकोच को समाप्त करने के लिए शर्म एवं भय को समाप्त करना आवश्यक है जिसके लिए इन्सान का अहंकार का अंत करना आवश्यक है | इन्सान को अपना अहंकार समाप्त करना हो तो उसे अपनी औकात को समझना आवश्यक  है क्योंकि औकात का पता चलते ही अहंकार स्वयं समाप्त हो जाता है | इन्सान की औकात उसकी आवश्यकता अथवा व्यवहार के कारण होती है | औकात को समझने के लिए औकात के लेख को पढकर सरलता से समझा जा सकता है |

इन्सान सदैव उस से ही सहायता मांगता है जो सहायता करने में सक्षम हो | सक्षम होने पर भी सहायता मांगने में संकोच करना इन्सान को सदैव भ्रमित करता है कि वह इन्सान सहायता करेंगें या नहीं | भ्रम को समाप्त करने एवं सबंधों को स्पष्ट करने के लिए आवश्यकता होने पर सहायता मांगना सर्वोतम होता है जिसके सहायता मिलने अथवा ना मिलने दोनों प्रकार से लाभदायक होता है | सहायता मांगने पर मिलने से लाभ होता है तथा हितैषी होने का भ्रम स्पष्ट होता है | यदि सहायता मांगने पर ना मिले तो भी हितैषी होने का दिखावा करने की वास्तविकता अवश्य स्पष्ट हो जाती है |

नकली हितैषी के पता चलने पर उससे सबंध समाप्त होना भी इन्सान के लिए लाभदायक होता है | संकोच (phobia) इन्सान की मानसिकता का सबसे घातक विकार इसीलिए होता है क्योंकि आवश्यकता होने एवं उपलब्ध हो सकने पर भी सहायता ना मांग कर खुद को असफल एवं अभावग्रस्त बना लेना मूर्खता का परिचय ही होता है | संकोच का त्याग करके जीवन को सफल एवं सक्षम बनाना तथा सबंधों की वास्तविकता को स्पष्ट करना सदैव सर्वोतम होता है | जब दूसरे इन्सान हमारा लाभ उठाते हैं तो हमें भी उनसे लाभ लेने का अधिकार होता है जिसे हम संकोच के कारण ना लेकर खुद के लिए ही हानिकारक बन जाते हैं |

संगठन – sangthan

April 6, 2020 By प्रस्तुत करता - पवन कुमार Leave a Comment

किसी की विचारधारा से प्रभावित होकर उसके संग विचारों का गठन करने से संगठन (sangthan) बनता है | संगठन इन्सान के जीवन के लिए बहुत लाभदायक एवं प्रगतिशील विषय है क्योंकि संगठन करने से जीवन सरल एवं प्रगतिशील बन जाता है | संगठन (group) अनेक प्रकार के होते हैं | परन्तु प्रत्येक इन्सान के जीवन में मुख्य पाँच प्रकार के संगठन (community) सबसे अधिब महत्वपूर्ण होते हैं जिनके कारण जीवन सबसे अधिक प्रभावित होता है | सर्वप्रथम संगठन (sangthan) की कार्य शैली को समझना आवश्यक है ताकि संगठन (group) करने का सर्वाधिक लाभ प्राप्त हो सके |

तीन प्रकार के बल इन्सान के जीवन के लिए सबसे अधिक आवश्यक होते हैं | एक = (बौधिक बल) दूसरा = (बाहुबल) तीसरा = (आर्थिक बल) अर्थात बुद्धि, परिश्रम एवं धन | बुद्धि बलवान हो तो अविष्कार तक किए जा सकते हैं जो सामान्य बुद्धि से नहीं हो सकते | परिश्रम द्वारा ही कार्य सम्पन्न होते हैं आलस्य करने या मनोरंजन में लिप्त रहने से कोई कार्य सफल नहीं  होता | धन अधिक हो तो उद्योग भी लगाए जा सकते हैं सामान्य धन से मात्र जीवन का निर्वाह होता है | इसी प्रकार संगठन (sangthan) इन्सान के जीवन में चौथा एवं सबसे प्रभावशाली संख्या बल होता है जिसके कारण इन्सान दूसरे इंसानों की सहायता से कोई भी कार्य करने में सक्षम होता है |

एक अकेला इन्सान कितना भी बुद्धिमान, बलवान या धनवान हो दूसरे इन्सान उसका सरलता से शोषण कर सकते हैं परन्तु जब उसे अनेक इंसानों का साथ प्राप्त हो तो उसके शोषण का विचार करना भी असंभव हो जाता है | यह संगठन की शक्ति ही होती है जो इन्सान को संख्या बल प्रदान करके समाज में बाहुबली बना देती है | संगठन (organization) मात्र इंसानों का समूह नहीं होता उनके विचारों में किसी प्रकार के मतभेद होने से वह सिर्फ एक झुंड अथवा इंसानों की भीड़ कही जा सकती है | कुछ इन्सान मिलकर किसी वाहन को एक दिशा में धकेल रहे हों तो वह वाहन सरलता से धकेला जाता है परन्तु यदि कुछ इन्सान विपरीत दिशा में भी धकेलने लगे तो धकेलना कठिन हो जाता है | विचारों की समानता होने से सभी एक दिशा में कार्य करते हैं जिससे कार्य में प्रगति आ जाती है मतभेद सदैव हानिकारक होता है इसलिए संगठन (organization) विचारों की समानता से ही बनता है |

पहला संगठन :

 इन्सान को पहला संगठन (gtroup) सर्वप्रथम खुद को संगठित करना है जो देखने में अजीब अवश्य लगता है परन्तु सर्वाधिक अनिवार्य है | इन्सान का संचालन उसकी मानसिकता करती है जो सात अलग-अलग किर्याओं से निर्मित होती है | बुद्धि, स्मरणशक्ति, मन, भावना, विवेक, कल्पना एवं इच्छाशक्ति यह सातों मानसिक शक्तियाँ स्वतंत्र होकर जब कार्य करती हैं तो अलग-अलग दिशा में जीवन को धकेलने का प्रयास करती है जिसके कारण इन्सान का जीवन बिखर जाता है यह एक कमजोर मानसिकता होती है | सभी मानसिक शक्तियों को संगठित करके एकाग्रचित होकर उनसे कार्य लेने से कोई भी कार्य करना सरल हो जाता है इसलिए पहला संगठन (company) खुद का करना अनिवार्य है |

दूसरा संगठन :

दूसरा संगठन (company) परिवार का होता है क्योंकि जब तक परिवार में संगठन ना हो समाज में वह परिवार ओछा समझा जाता है | संगठित परिवार समाज में प्रतिष्ठित समझा जाता है जिसके कारण उस परिवार को सम्मान, सहायता एवं सहयोग सरलता से प्राप्त हो जाता है | मतभेद के कारण बिखरा हुआ परिवार समाज में ओछा समझा जाता है जिसके कारण उसे किसी भी प्रकार की सहायता मिलना कठिन हो जाता है | जब इन्सान के पास परिवार का साथ होता है तो वह कोई भी कार्य सरलता से कर लेता है |

तीसरा संगठन :

तीसरा संगठन (sangthan) इन्सान के सबंधों का होता है सबंध परिवारिक, मित्रता, व्यापारिक अथवा पडोस के हों जब सभी संगठित होते हैं तो इन्सान को भरपूर सहयोग प्राप्त होता है जिसके कारण जीवन में प्रगति आती है | चौथा संगठन समाज का होता है एक संगठित समाज सदैव उन्नति करता है जो बिखरा हुआ समाज कभी नहीं कर सकता है | पांचवा संगठन देश का होता है क्योंकि यदि देश में जाति, धर्म या प्रान्तों के नाम पर मतभेद हों तो वह देश सदैव अपने झगड़ों में उलझा रहता है | मतभेद के जाल में फंसा देश कभी विकसित नहीं  होता जिसके प्रभाव से देश की जनता भी सदैव लड़ाई झगड़ों में उलझी रहती है |

संगठन (sangthan) की शक्ति को समझने एवं उसका उपयोग करने से इन्सान का जीवन प्रगतिशील बन जाता है | संगठन में किसी भी प्रकार का कोई मतभेद होने पर उसे अतिशीघ्र समाप्त करना आवश्यक होता है क्योंकि छोटे से छोटा मतभेद कभी-कभी संगठन के विनाश का कारण बन जाता है | मतभेद होने पर लड़ना मूर्खों का कार्य है बुद्धिमानी समझने एवं समझाने में होती है क्योंकि मतभेद पर करी गई लड़ाई सदैव मतभेद में वृद्धि करती है संयम से ही मतभेद का अंत किया जा सकता है | इन्सान के जीवन में जब तक संगठन सुरक्षित रहते हैं वह कभी पराजित नहीं हो सकता |

प्रोत्साहन – protsahan

April 6, 2020 By प्रस्तुत करता - पवन कुमार Leave a Comment

किसी कार्य को करने के लिए प्रेरित करने, साहस उत्पन्न करने, उत्साह में वृद्धि करने तथा हौसला बढ़ाने का कार्य प्रोत्साहन (protsahan) होता है | प्रोत्साहन (protsahan) इन्सान के लिए प्रेरणादायक विषय है | क्योंकि प्रोत्साहन (protsahan) से प्रेरित होकर ही इन्सान की मानसिकता में साहस की वृद्धि होती है तो वह उत्साह के साथ कार्य करता है | जिसके कारण कार्य के परिणाम भी उत्तम आते हैं | सामान्य मानसिकता में किए गए कार्यों के परिणाम भी सामान्य होते हैं | यदि कार्य को बोझ समझ कर किया जाए तो कार्य के परिणाम भी ओछे ही आते हैं | प्रोत्साहन (encourage) के विषय को समझना बहुत आवश्यक हैं क्योंकि यह इन्सान को अच्छाई के साथ बुराई के लिए भी प्रेरित करने का कार्य  करता है |

 प्रोत्साहन (encourage) प्रेरणादायक विषय होने के साथ अति संवेदनशील विषय भी है | क्योंकि कार्य अच्छा हो या बुरा प्रोत्साहन का कार्य सिर्फ हौसला बढ़ाना है ना कि कार्य की अच्छाई या बुराई की समीक्षा करना | इन्सान को अच्छे कार्य के लिए प्रोत्साहन देने से परिणाम श्रेष्ठ आते हैं | जिसके कारण उसके जीवन में समृद्धि आती है | जब इन्सान को बुरे कार्य के लिए प्रोत्साहित (encouragement) किया जाए तो वह बुराई के रास्ते पर चल पड़ता है जिसके परिणाम स्वरूप उसका जीवन संकट में पड़ जाता है | इन्सान को अच्छे कार्य से अधिक बुरे कार्य का प्रोत्साहन प्रभावित करता है क्योंकि अच्छा कार्य इन्सान स्वयं करने का प्रयास करता है परन्तु बुरे कार्य को करने में शर्म, संकोच एवं भय बाधा उत्पन्न करते हैं जो प्रोत्साहन देने पर हौसला बढ़ाकर इन्सान को बुराई के रास्ते पर धकेल देते हैं |

 प्रोत्साहन ((protsahan)) इन्सान के जीवन में बचपन से ही आरम्भ हो जाता है जब माँ बाप उसे शिक्षा एवं उत्तम व्यवहार के लिए प्रोत्साहित (encouragement) करने का कार्य करते हैं | बचपन में ही दोस्त इन्सान को मनोरंजन, खेल एवं आवारागर्दी करने के लिए प्रोसाहित (boost) करने लगते हैं | आयु में वृद्धि के साथ माँ बाप अच्छे कर्म एवं संस्कारों के लिए प्रोत्साहित  करते हैं ताकि उसका जीवन समृद्ध एवं खुशहाल बन सके | इन्सान के दोस्त अच्छे कार्यों से अधिक बुरे कार्यों जैसे नशा, जुआ, अय्याशी अथवा अनुचित कार्य करके आनन्द प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित करने का प्रयास करते हैं |

 इन्सान को प्रोत्साहन (boost) देने के दो मुख्य आधार हैं लालच के द्वारा एवं प्रशंसा करके मनोबल में वृद्धि करना | माँ बाप सन्तान को खिलौने, टाफी, चोकलेट जैसे छोटे-छोटे उपहारों का लालच देने से आरम्भ करके आयु में वृद्धि के साथ बड़े-बड़े उपहारों के लालच से प्रोत्साहित करते हैं | दोस्त मनोरंजन के साथ नशे, अय्याशी जैसे आनन्द लेने एवं जुए अथवा अनुचित कार्यों के द्वारा अधिक धन सरलता से प्राप्त करने का लालच देकर प्रोत्साहन देने का प्रयास करते हैं | कभी-कभी दोस्त या अन्य कोई इन्सान अपनी जेब से धन खर्च करके भी नशे, जुए, अय्याशी करने के लिए प्रोत्साहित करता है |

इन्सान के अपने उसकी उन्नति के लिए उसके द्वारा किए गए अच्छे कार्यों की प्रशंसा करके उसे प्रोत्साहित करते हैं | ताकि वह और अधिक अच्छे कार्य करके सफलता प्राप्त कर सके | इन्सान के कार्यों की प्रशंसा करके उसका मनोबल बढ़ाने का कार्य उसके अपनों के अतिरिक्त अन्य इन्सान भी करते हैं जैसे खेलों के मैदान में खिलाडी के प्रशंसकों द्वारा तालियाँ बजाकर या नारे लगाकर हौसला अफजाई करना | बुरे कार्य करने वाले भी अपने साथियों की प्रतिभा की प्रशंसा करके उन्हें और अधिक बुरे कार्य करने के लिए प्रोत्साहन देते हैं | प्रशंसा अच्छे कार्य के लिए प्रेरित करती है तो बुरे कार्य के लिए भी प्रेरित ही करती है |

 प्रोत्साहन के बुरे परिणाम से सुरक्षा के लिए आवश्यक है उसकी प्रक्रिया को समझना एवं प्रोत्साहन देने वाले की मानसिकता की समीक्षा करना कि प्रोत्साहित करने के पीछे उसका मकसद क्या है | माँ बाप सन्तान को प्रोत्साहन इसलिए देते हैं ताकि वह सफल बने तथा वृद्धावस्था में उनकी सेवा कर सके | दोस्तों के द्वारा प्रोत्साहन देने का कारण अपने लिए साथी बनाना है वह चाहे बुरे कार्यों का हो अथवा अच्छे कार्यों का | जो इन्सान अपनी जेब से धन खर्च करके दूसरों को नशा या अय्याशी करवाने कार्य करते हैं वास्तव में अपने लिए एक आसामी तैयार करते हैं ताकि वह उनके चक्रव्यूह में फंस जाए जिसका वह सदैव लाभ लेते रहें |

    जिस कार्य के लिए इन्सान को प्रोत्साहन मिलता है उसके परिणाम की समीक्षा करना भी अनिवार्य है क्योंकि इन्सान के कार्य का वास्तविक भाव कार्य के परिणाम में छुपा होता है | जो भी अच्छे कार्य हैं जैसे शिक्षा, संस्कार, व्यवहार, कर्म, आचरण इनके लिए प्रोत्साहित करना उत्तम है क्योंकि यह सभी अच्छे कार्य हैं | नशा, जुआ, अय्याशी, अपराधिक कार्य अथवा आवश्यकता से अधिक मनोरंजन भी इन्सान के जीवन का विनाश करता है इनके लिए प्रोत्साहित करने का अर्थ है शत्रुता के कार्य करना | जब कोई इन्सान बुरे कार्यों में लिप्त दिखाई दे तो समझ लेना उत्तम है कि उसे किसी ना किसी के द्वारा प्रोत्साहित किया जा रहा है |     जो इन्सान अपना धन खर्च करके दूसरों को आनन्द प्राप्ति का कार्य करता है वह हितैषी दिखाई अवश्य देता है परन्तु वास्तव में वह शत्रुता का कार्य करता है | किसी इन्सान या उसके परिवार का सर्वनाश करना हो तो उसके सदस्य को नशे, जुए, अय्याशी अथवा अपराधिक कार्य की लत लगा देने से वह स्वयं अपना एवं अपने परिवार का विनाश सरलता से कर देता है | इस पद्धति पर कार्य करने वाले अपनी जेब से धन खर्च करके भी इसी प्रकार की कार्य प्रणाली का उपयोग करते हैं | कभी-कभी अच्छे दोस्त भी अनजाने में बुरे कार्य की लत लगा देते हैं इसलिए आवश्यक है किसी भी प्रोत्साहन की अच्छे प्रकार से समीक्षा करने के पश्चात ही उसे स्वीकार किया जाए |

संयम – sanyam

April 6, 2020 By प्रस्तुत करता - पवन कुमार Leave a Comment

किसी भी विकट परिस्थिति से निपटने के लिए जब इन्सान अपनी मानसिकता पर नियन्त्रण रखते हुए शांत होकर एवं विचार करके समाधान करने का प्रयास करता है तो वह उसका संयम (sanyam) होता है | संयम (sanyam) इन्सान की सबसे श्रेष्ठ मानसिक उपलब्धी होती है | जिसे उसका विशेष गुण भी कहा जा सकता है | किसी भी विषम परिस्थिति में इन्सान भयभीत हो जाता है या वह क्रोधित होता है | भय मानसिक कष्ट प्रदान करता है तो क्रोध से मानसिक क्षति होती है | समस्या का संयम से निवारण करना सबसे श्रेष्ठ है | क्योंकि इससे इन्सान की मानसिकता, सबंध, सम्मान सभी सुरक्षित रहते हैं | संयम (control) की पूर्ण कार्य शैली एवं प्रणाली को समझने से इसका लाभ प्रप्त करके जीवन को सरल एवं श्रेष्ठ बनाया जा सकता है |

लोभ सभी इंसानों की मानसिक अभिलाषा में होता है परन्तु जब तक प्रकट नहीं होता उसके सबंध सुरक्षित रहते हैं | किसी इन्सान की अपने प्रति लोभ की अभिलाषा प्रकट होते ही आपसी सबंध कटुता पूर्ण बन जाते हैं | अहंकार सबंध नाशक है परन्तु जब तक किसी का अहंकार स्पष्ट नहीं होता सबंध सुरक्षित रहते हैं | जब किसी का अहंकार स्पष्ट होता है एवं प्रकट होने से पता चलता है कि वह इन्सान खुद को श्रेष्ठ एवं हमें तुच्छ समझता है तो सबंध समाप्त होना स्वाभाविक है |

ईर्षा. घृणा, द्वेष, शक, शत्रुता जैसी विकृत मानसिकता जब तक गुप्त रहती हैं इन्सान का सबंध एवं सम्मान भी सुरक्षित रहता है | किसी भी प्रकार की विकार पूर्ण मानसिकता की स्पष्टता इन्सान के लिए बहुत हानिकारक होती है | किसी भी मानसिकता का प्रकट होने का मुख्य कारण उत्तेजित होकर बोलना है वह इन्सान सदैव आक्रोश, क्रोध अथवा जल्दबाजी में स्पष्ट करता है | संयम से विचार करके बोलने वाले इन्सान की मानसिकता का अनुमान लगाना भी लगभग असंभव होता है कि वह हमारे विषय में किस प्रकार के विचार अपनी मानसिकता में रखता है |

किसी से वार्तालाप करते समय इन्सान उत्साह में बकवास आरम्भ कर देता है अथवा बहस करना आरम्भ कर देता है तो उसकी बकवास या बहस उसके सबंधों को खोखला कर देती है | किसी की आलोचना करने पर अन्य इंसानों के मध्य भी इन्सान की छवि धूमिल होती है एवं उसका व्यक्तित्व आलोचक के रूप में स्पष्ट होता है | अधिक कटाक्ष या तानाकशी करना इन्सान की ईर्षालू एवं झगड़ालू प्रवृति की छवि प्रस्तुत करते हैं | बहस, बकवास, आलोचना, तानाकशी हो या अधिक हास्य सभी इन्सान के व्यक्तित्व को प्रभावित करते हैं इसीलिए लाभ सदैव संयम रखने में ही होता है |

इन्सान वार्तालाप करते समय खुद को जितना अधिक संयमित रखता है वह उतना ही अधिक श्रेष्ठ समझा जाता है क्योंकि संयम से वार्तालाप करने में इन्सान किसी प्रकार की गलती नहीं करता जिसके कारण उसे श्रेष्ठता प्राप्त होती है | संयम समाप्त होते ही इन्सान की मानसिकता में उत्तेजना उत्पन्न होने लगती है जिसके परिणाम स्वरूप वह किसी ना किसी प्रकार की गलती अवश्य करता है जो उसके लिए हानिकारक भी अवश्य बनती है | इन्सान जितना अधिक उत्तेजित होता है वह उतना ही शीघ्र अपनी मानसिकता स्पष्ट कर देता है |

क्रोध अग्नि की तरह नाशक है जैसे अग्नि की ज्वाला में सब कुछ जल कर भष्म हो जाता है इसी प्रकार क्रोध की ज्वाला दूसरों के साथ अपना व्यक्तित्व भी जला कर राख कर देती है | अग्नि कितनी भी बलवान हो जल उसे शांत कर देता है इसी प्रकार क्रोध को भी संयम से ही शांत किया जा सकता है | क्रोध, आक्रोश या उत्तेजना में बोलते समय इन्सान का विवेक कार्य करना बंद कर देता है जिसके कारण वह अनेक प्रकार की गलतियाँ कर देता है | संयम द्वारा कार्य लेते समय इन्सान का विवेक पूर्ण सक्रिय होता है जिसके कारण वह किसी भी समस्या का सरलता से समाधान कर सकता है |

संयम (sanyam) द्वारा कार्य लेने से इन्सान की मानसिकता प्रबल रहती है तथा उसके सबंध भी सुरक्षित रहते हैं | संयम से कार्य करने वाले इन्सान का सम्मान भी सुरक्षित रहता है जिसके कारण उसे अपने सबंधों से सहायता एवं सहयोग सरलता से प्राप्त हो जाता है | संयम रखने वाले इन्सान के साथ सभी इन्सान उससे सबंध रखना एवं उसके साथ कार्य करना पसंद करते हैं इसीलिए उन्नति सदैव उसके आस-पास रहती है | संयम द्वारा सफलता भी सरलता से प्राप्त हो जाती है इसलिए क्रोध करके खुद को हानि पंहुचाना मूर्खता का कार्य है |

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जीवन सत्यार्थ

इंसान के जीवन में जन्म से मृत्यु तक के सफर में तृष्णा, कामना तथा बाधाएं उत्पन्न होकर मानसिकता में असंतोष तथा भटकाव की स्थिति उत्पन्न कर देते हैं जिससे जीवन कष्टदायक व असंतुलित निर्वाह होता है। जीवन सत्यार्थ ऐसा प्रयास है जिसके द्वारा सत्य की परख करके कष्टकारी मानसिकता से मुक्ति पाकर जीवन संतुलित बनाया जा सकता है। पढने के साथ समझना भी आवश्यक है क्योंकि पढने में कुछ समय लगता है मगर समझने में सम्पूर्ण जीवन भी कम हो सकता है और समझने से सफलता प्राप्त होती है।

प्रस्तुत कर्ता - पवन कुमार

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