जीवन का सत्य

जीवन सत्यार्थ

  • जीवन सत्यार्थ
  • दैनिक सुविचार
  • Youtube
  • संपर्क करें

गृहस्थी

October 30, 2016 By Amit Leave a Comment

Spread the love

जब दो स्त्री पुरुष एक साथ जीवन निर्वाह करने के लिए विवाह करके अपना घर बसाते हैं उसे गृह स्थापना अर्थात गृहस्थी बसाना कहा जाता है । गृहस्थी समाज के निर्माण का मूल आधार है जो इंसानों के आपस में सम्बन्ध स्थापित करती है । एक प्रकार से समाज का निर्माण ही गृहस्थ जीवन के नियमों के कारण ही हुआ है अन्यथा सन्तान तो जानवर भी उत्पन्न करते हैं । जानवर सन्तान उत्पन्न करके उनके सक्षम होने तक साथ रहते हैं तथा सक्षम होने पर उनका त्याग करके आजादी का जीवन निर्वाह करते हैं । जब इन्सान ने समाज की स्थापना करी तब से नियम निर्धारित किया गया कि सन्तान की परवरिश एवं उनके सक्षम होने के पश्चात भी सम्पूर्ण जीवन सभी साथ रहेंगे एवं सन्तान का सम्पूर्ण जीवन मार्गदर्शन करना अनिवार्य है । गृहस्थ जीवन का आरम्भ होते ही स्त्री पुरुष दोनों के परिवारों के सभी सदस्यों का आपसी रिश्ता भी जुड़ जाता है । गृहस्थ जीवन की पद्धति के कारण ही आपसी सम्बन्ध तय होते हैं यह इन्सान के इन्सान से सम्बन्ध स्थापित करने की पद्धति है । इस गृहस्थ जीवन की पद्धति के कारण ही समाज की स्थापना संभव हो सकी जिसके कारण इन्सान सामाजिक प्राणी बन सका ।

कोई इन्सान किसी इन्सान से गृहस्थी के अतिरिक्त किसी भी प्रकार का रिश्ता बनाना चाहता है उसे सम्बन्धित इन्सान के अतिरिक्त किसी दूसरे की इजाजत लेने की आवश्यकता नहीं होती । परन्तु गृहस्थी का सम्बन्ध बनाने के लिए धर्म, समाज एवं कानून के नियमों का पालन करना अनिवार्य होता है । धर्म, समाज एवं कानून के नियमों की अनिवार्यता गृहस्थी के सम्बन्धों को ख़ास बनाती है क्योंकि किसी भी सम्बन्ध का त्याग सरलता से हो सकता है । परन्तु गृहस्थी के सम्बन्धों को त्यागने के लिए धर्म, समाज एवं कानून प्रभावित करते हैं जिसकी प्रकिर्या अत्यंत कठिन होती है अर्थात गृहस्थी के सम्बन्ध तोडना सरल कार्य नहीं है । गृहस्थी के सम्बन्ध तोड़ने के प्रयास में अपने भी शत्रु बन जाते हैं सिर्फ वह इन्सान साथ देते हैं जो स्वयं असामाजिक, स्वार्थी या फरेबी होते हैं । जो इन्सान सोच समझकर एवं उचित प्रकार देख भाल करके गृहस्थी बसाते हैं वह ही सुखी जीवन निर्वाह करते हैं । शीघ्रता अथवा स्वार्थ के कारण गृहस्थी बसाने वाले इन्सान सम्पूर्ण जीवन पछताते रहते हैं ।

गृहस्थी इन्सान के जीवन को सुखी बना देती है स्त्री हो या पुरुष दोनों के मध्य प्रेम की अनुभूति एवं सन्तान का सुख तथा सम्बन्धित रिश्तों से प्राप्त अपनापन एवं प्रेम जीवन को आनन्दित कर देता है । इन्सान गृहस्थी के बगैर कभी अपने भविष्य के प्रति जागरूक नहीं होता तथा नीरस जीवन व्यतीत करता है । गृहस्थी में स्त्री पुरुष मिलकर परिवार एवं सन्तान के लिए सुखों के साधन एकत्रित कर भविष्य के निर्माण में जुट जाते हैं । उनके सभी प्रयास सभी प्रकार के संसाधन जमा करने के होते हैं तथा वह सफल भी होते हैं एक प्रकार से गृहस्थी इन्सान को जिम्मेदारी का बोझ उठाने के लायक बना देती है । गृहस्थ जीवन का आधार प्रेम व विश्वास है तथा एक दूसरे के प्रति त्याग व समर्पण की भावना है जो इन्सान को सुखी एवं महान बनाती है तथा गृहस्थी को स्वर्ग समान बना देती है । प्रेम इन्सान के व्यक्तित्व में निखार लाता है तथा विश्वास उसे उत्तम कार्यों के लिए प्रेरित करता है ।

गृहस्थी में यदि सुख हैं तो दुःख भी हैं जो इन्सान का जीवन दुश्वार बना देते हैं । गृहस्थ जीवन को इन्सान के विकार प्रभावित करते हैं जिनके कारण वह गृहस्थी को नर्क समान बना देता है । जीवन साथी से अधिक अभिलाषा करना या किसी प्रकार की अनुचित अपेक्षा करना अथवा लोभ, स्वार्थ, शक के कारण कलह करना तथा ईर्षा, घृणा, आक्रोश, क्रोध जैसे विकार  गृहस्थी का विनाश कर देते हैं । गृहस्थी में सर्वप्रथम व्यंग, कटाक्ष या आलोचनाएँ दोनों के मध्य कटुता उत्पन्न कर देते हैं । कटुता और कलह का आरम्भ एक दूसरे के स्वाभिमान पर आघात करने से भी होता है । जीवन साथी से अपनी प्रशंसा की अभिलाषा या अपेक्षा पूर्ण ना होने पर भी कटुता उत्पन्न होती है । लोभ व स्वार्थ गृहस्थी को जर्जर बना देते हैं तथा शक की दीमक तो प्रेम व विश्वास का समूल नाश कर देती है तथा गृहस्थी में कलह होने से जीवन नर्क समान बन जाता है । आक्रोश, क्रोध, ईर्षा, घृणा या अहंकार गृहस्थी का अंत करने अथवा दूरियां बनाने में पूर्ण सक्षम होते हैं।

गृहस्थी को मधुर बनाए रखने के लिए जीवन साथी से अभिलाषाएं एवं अपेक्षाएं संतुलित रखना आवश्यक है । एक दूसरे की मानसिकता को समझने एवं स्वभाव को पहचानने की सर्वाधिक आवश्यकता होती है । मजबूरी या समस्या में साथ देना आवश्यक है ना कि प्रताड़ित करना अथवा व्यंग करना । अपनी प्रशंसा सभी पसंद करते हैं परन्तु इसके लिए दूसरे की प्रशंसा करना भी आवश्यक है क्योंकि हमें वह वापस मिलता है जो हम दूसरों को प्रदान करते हैं । गृहस्थी में किसी प्रकार का शक हो तो उसका तुरंत निवारण करना एवं कारण स्पष्ट करना सर्वोतम उपाय है क्योंकि शक का समाधान ना हो तो शक में तीव्रता से वृद्धि होती है और वह इन्सान को विनाशक बना देती है । जीवन साथी से लोभ या स्वार्थ रखना मूर्खता का कार्य है तथा धोखा देना तो गृहस्थी का विनाश करना है । अहंकार, आक्रोश, क्रोध, ईर्षा, घृणा जैसे विकारों से सुरक्षा सहनशीलता से होती है तथा सहनशीलता गृहस्थ जीवन का मूल आधार है । गृहस्थी में जो इन्सान प्रेम एवं विश्वास बनाए रखते हैं उनकी गृहस्थी स्वर्ग समान होती है । धन अर्जित कर मात्र परिवार का पोषण करना ही गृहस्थी का संचालन नहीं होता परिवार की मर्यादा बनाए रखना तथा समाज में निर्धारित सम्बन्धों के प्रति अपने कर्तव्य निभाना भी आवश्यक है । सन्तान का उचित मार्गदर्शन करना तथा उन्हें अच्छे व बुरे सभी कार्यों के प्रति सचेत करना भी आवश्यक होता है । गृहस्थी बसाने से परिवार के प्रति अनेकों कर्तव्य बनते हैं जो इन्सान अपने सभी कर्तव्य पूर्ण करता है वह सफल गृहस्थी का आनन्द भी प्राप्त करता है ।

Share this:

  • Click to share on WhatsApp (Opens in new window)
  • Click to share on Twitter (Opens in new window)
  • Click to share on Facebook (Opens in new window)
  • Click to share on LinkedIn (Opens in new window)
  • Click to share on Pinterest (Opens in new window)
  • Click to share on Tumblr (Opens in new window)
  • Click to share on Reddit (Opens in new window)
  • Click to share on Telegram (Opens in new window)
  • Click to share on Skype (Opens in new window)
  • Click to share on Pocket (Opens in new window)
  • Click to email this to a friend (Opens in new window)
  • Click to print (Opens in new window)

Related

Filed Under: परिवार Tagged With: गृहस्थी, grahasthi, grahasti, household, housekeeping

Leave a Reply Cancel reply

Recent Posts

  • सौन्दर्य – saundarya
  • समर्पण – samarpan
  • गुलामी – gulami
  • हीनभावना – hinbhawna
  • संयम – sanyam

जीवन सत्यार्थ

इंसान के जीवन में जन्म से मृत्यु तक के सफर में तृष्णा, कामना तथा बाधाएं उत्पन्न होकर मानसिकता में असंतोष तथा भटकाव की स्थिति उत्पन्न कर देते हैं जिससे जीवन कष्टदायक व असंतुलित निर्वाह होता है। जीवन सत्यार्थ ऐसा प्रयास है जिसके द्वारा सत्य की परख करके कष्टकारी मानसिकता से मुक्ति पाकर जीवन संतुलित बनाया जा सकता है। पढने के साथ समझना भी आवश्यक है क्योंकि पढने में कुछ समय लगता है मगर समझने में सम्पूर्ण जीवन भी कम हो सकता है और समझने से सफलता प्राप्त होती है।

प्रस्तुत कर्ता - पवन कुमार

Copyright © 2022 jeevankasatya.com

loading Cancel
Post was not sent - check your email addresses!
Email check failed, please try again
Sorry, your blog cannot share posts by email.