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कर्म

May 24, 2014 By Amit Leave a Comment

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इन्सान उदर पूर्ति तथा सन्तान उत्पन्न करने के अतिरिक्त जीवन निर्वाह के लिए जो भी कार्य करता है उसे इन्सान द्वारा किया गया कर्म कहा जाता है । जीवन यापन करने के लिए संसार का प्रत्येक प्राणी उदर पूर्ति तथा सन्तान उत्पत्ति का कार्य करता है जो संसार में जीवन धारा के निर्माण तथा संचालन के लिए अत्यंत आवश्यक है इसके अतिरिक्त कोई भी जीव किसी भी प्रकार का कोई कार्य नहीं करता अर्थात इन्सान की तरह कर्म नहीं करता । इन्सान जन्म के कुछ समय पश्चात ही कर्म करना आरम्भ कर देता है जिसमे सर्वप्रथम कर्म शिक्षा प्राप्त करने का होता है क्योंकि शिक्षा के द्वारा बुद्धि का विकास करने पर ही जीवन के अन्य कर्मों को सरलता पूर्वक अंजाम दिया जा सकता है ।

शिक्षा प्राप्ति का जीवन काल इन्सान का सबसे महत्वपूर्ण तथा आकर्षक काल होता है क्योंकि शिक्षा प्राप्ति के वर्षों में उस पर नित्य सरल कार्यों के अतिरिक्त अधिकतर किसी भी प्रकार के कठिन तथा महत्वपूर्ण कर्म करने का किसी भी प्रकार का कोई दबाव नहीं होता तथा सभी आवश्यक व मनचाही वस्तुएं सरलता पूर्वक बिना कर्म किए प्राप्त हो जाती हैं । शिक्षा प्राप्ति के जीवनकाल की सबसे अधिक महत्वता इस कारण होती है क्योंकि प्राप्त शिक्षा की सफलता के द्वारा ही इंसान का सम्पूर्ण भविष्य निर्धारित होता है शिक्षा काल में सफलता प्राप्त हो जाती है तो इन्सान को भविष्य में अधिक कठिनायों का सामना नहीं करना पड़ता अन्यथा सम्पूर्ण जीवन अत्यंत संघर्ष शील होकर नर्क समान व्यतीत होता है ।

शिक्षा प्राप्ति के पश्चात इन्सान का पूर्ण कर्म क्षेत्र आरम्भ हो जाता है जिसमे जीवन निर्वाह के लिए आजीविका उपार्जन के कर्म जीवन को संघर्ष शील बना देते हैं तत:पश्चात वह चाहे सेवा कार्य द्वारा आजीविका संचालन करे अथवा किसी व्यवसाय द्वारा धन एकत्रित करे । अपने परिवार का पालन पोषण तथा दाम्पत्य जीवन आरम्भ करके उसका बोझ उठाना एंव सन्तान उत्पन्न करके उनकी परवरिश का कार्य संचालन सभी इन्सान के कर्म क्षेत्र में शिक्षा के पश्चात ही आरम्भ होते हैं । परिवार के पालन पोषण के साथ समाज से व्यहवार व समाजिक कार्य एंव परिवार के सम्मान का ध्यान रखना तथा सम्बन्धित रिश्तों को सुचारू रूप से संचालित रखना भी इन्सान का आवश्यक तथा महत्वपूर्ण कर्म क्षेत्र है ।

यदि किसी इन्सान को भरपूर धन सम्पदा एंव जायदाद विरासत में प्राप्त हो जाती है तथा वह कर्मों को त्याग कर जीवन के भौतिक सुखों का आनन्द प्राप्त करने में व्यस्त हो जाता है एंव अपने परिवार को भी आनन्द विभोर कर देता है तो वह अपने जीवन के लिए संकट उत्पन्न करता है । कर्म ना करने से इन्सान की कार्य क्षमता नष्ट हो जाती है तथा परिवार के सदस्य भी नाकारा व आलसी हो जाते हैं जिससे जीवन में कर्म करने की आवश्यकता होने पर भी उनका कार्य करना असफल हो जाता है क्योंकि कर्म ना करने की आदत तथा अनुभव हीनता इन्सान को कर्महीन बना देते हैं इसलिए कर्म के प्रति जागरूक रहना आवश्यक है । कर्म करने से ही जीवन गतिशील रहता है तथा गतिशीलता में अवरोध उत्पन्न होने पर जीवन में ठहराव आकर इन्सान को मृत्यु तुल्य कष्ट देता है । जिस प्रकार एक स्थान पर ठहरा हुआ पानी सड़ने लगता है और उसमे दुर्गन्ध उत्पन्न हो जाती है तथा जीवाणु एंव विषाणु पनपकर बीमारियाँ फैलाते हैं उसी प्रकार कर्महीन इन्सान कर्म ना करके अपना जीवन कष्टकारी एवं अभावग्रस्त बना लेता है ।

संसार में अनेकों प्रकार की भौतिक वस्तुएं इन्सान को विभिन्न प्रकार के सुख प्रदान करने के लिए उपलब्ध हैं जिनका किसी इन्सान द्वारा ही निर्माण किया जाता है तथा अनेकों प्रकार की आवश्यक तथा भोग विलासिता की वस्तुओं का विकास प्रारम्भ है । संसार में इंसानी जीवन के लिए सबसे अधिक आवश्यक वस्तुएं भोजन के लिए किसी ना किसी इन्सान द्वारा ही उपार्जन करी जा रही हैं । संसार के निर्माण तथा संचालन करने में सभी इन्सान अपने अपने कर्मों द्वारा सहायक होते हैं परन्तु जो इन्सान कर्म करने के प्रति उदासीनता प्रकट करते हैं वें संसार में जानवरों की तरह सिर्फ भोग करके जीवन व्यतीत करते हैं । संसार की प्रगति के लिए सबसे आवश्यक है कि प्रत्येक इन्सान अपने सामर्थ्य के अनुसार कर्म करता रहे तभी संसार संतुलित रूप से गतिशील रह सकता है ।

इन्सान द्वारा किये गए कर्म के आधार पर उसे परिवार तथा समाज द्वारा उचित सम्मान प्राप्त होता है तथा कर्म से भागने वाले इन्सान को परिवार सहित समाज द्वारा घृणा की दृष्टि से देखा जाता है । संसार के विकास के अतिरिक्त जो इन्सान स्वार्थ वश अपने सुखों की अधिक से अधिक प्राप्ति के लिए कर्मों के पीछे दौड़ता है अर्थात कर्म को ही जीवन समझ लेता है वह भी नादानी का पात्र होता है । कर्म जीवन की आवश्यकता है कर्म जीवन नहीं है यदि सदा कर्म में खो गए तो परिवार तथा समाज से नाता टूट जाता है जो भविष्य में जीवन को कष्टदायक बना देता है । जीवन में जिस प्रकार कर्म के प्रति उदासीनता बुरी है उसी प्रकार कर्मान्धता भी बुरी है इसलिए कर्मों को उचित प्रकार से तथा संतुलन में क्या जाए तभी जीवन संतुलित होता है ।

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इंसान के जीवन में जन्म से मृत्यु तक के सफर में तृष्णा, कामना तथा बाधाएं उत्पन्न होकर मानसिकता में असंतोष तथा भटकाव की स्थिति उत्पन्न कर देते हैं जिससे जीवन कष्टदायक व असंतुलित निर्वाह होता है। जीवन सत्यार्थ ऐसा प्रयास है जिसके द्वारा सत्य की परख करके कष्टकारी मानसिकता से मुक्ति पाकर जीवन संतुलित बनाया जा सकता है। पढने के साथ समझना भी आवश्यक है क्योंकि पढने में कुछ समय लगता है मगर समझने में सम्पूर्ण जीवन भी कम हो सकता है और समझने से सफलता प्राप्त होती है।

प्रस्तुत कर्ता - पवन कुमार

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