
प्रेम ऐसा शब्द है जिसके सुनते ही मन पुलकित हो जाता है एवं इन्सान प्रेम पाने के लिए अधीर हो उठता है । किसी वस्तु या प्राणी के प्रति आकर्षण की अधिकता व जिसके समीप रहने से सुख की अनुभूति होती हो तथा मन प्रसन्न हो उठे वह प्रेम कहलाता है । प्रेम इन्सान को महान बनाता है तथा प्रेम करने वाला इन्सान सदैव अच्छे कार्य ही करता है इस पर संतों का एक दोहा याद आता है ।
पोथी पढ़ पढ़ जग मुहा पंडित भया न कोए ।
ढाई अक्षर प्रेम का पढ़े सो पंडित होए।।
अर्थात वेद, शास्त्र और ज्ञान व धर्म की पुस्तकों को पढ़कर कोई इन्सान विद्वान् नहीं बन जाता वह यदि प्रेम का पाठ पढ़ ले तो अवश्य विद्वान् बन जायेगा । यह संदेश संतजी ने किसी ईलू ईलू वाले प्रेम को करने के लिए नहीं कहा उन्होंने संसार से प्रेम करने का पैगाम दिया है क्योंकि जिस वस्तु या प्राणी से प्रेम हो जाता है उसका अनिष्ट करना तो दूर उसके किसी प्रकार के नुकसान का विचार भी मन में नहीं आता । जैसे इन्सान अपनी संतान से प्रेम करता है तथा जीवन भर उनके पालन पोषण के लिए अपने सुखों को त्याग कर मेहनत करता है एवं अपना सारा जीवन उन पर न्योछावर कर देता है । इसी प्रकार यदि इन्सान सभी प्राणियों से प्रेम करने लगे तो वह किसी को भी हानि पहुँचाने या उनके प्रति अपराध करने का विचार भी मन में नहीं लायेगा एंव यदि सम्पूर्ण संसार आपस में प्रेम करे तो संसार से शत्रुता, चोरी, लूट, हत्या जैसे अपराधों का समापन हो जाएगा ।
प्रेम करने के कई प्रकार हैं जैसे शरीरिक, भोतिक, भावनात्मक और अध्यात्मिक । इनमे सबसे उच्च कोटि का प्रेम अध्यात्मिक प्रेम होता है क्योंकि अध्यात्मिक प्रेम कुछ पाने अथवा सुख के लिए नहीं होता यह निश्छल व निस्वार्थ होता है तथा संसार में किसी से भी हो सकता है । अध्यात्मिक प्रेम में इन्सान जिस से भी प्रेम करता है उसे प्रत्येक प्रकार का सुख पहुंचाना तथा उसे प्रत्येक प्रकार से खुशहाल देखना चाहता है फिर चाहे वह ईश्वर, प्राकृति, वनस्पति, पशु, पक्षी या कोई इन्सान हो । अध्यात्मिक प्रेम में सिर्फ त्याग होता है प्राप्ति की कोई कामना नहीं होती है यही अध्यात्मिक प्रेम की महानता है ।
अध्यात्मिक प्रेम के पश्चात भावनात्मक प्रेम इंसान के जीवन में सर्वाधिक महत्वपूर्ण होता है । भावनात्मक प्रेम में इन्सान अपनी भावनाओं में बहकर किसी के लिए भी समर्पित हो सकता है जिसमें अधिकतर सम्बन्ध जन्म के साथ ही उत्पन्न हो जाते हैं । भावनात्मक प्रेम का सबसे उत्तम रूप माँ की ममता है क्योंकि माँ अपनी सन्तान पर पूर्ण न्यौछावर होकर प्यार लुटाती है जिसमे किसी भी प्रकार का स्वार्थ नहीं होता ममता प्रेम का निस्वार्थ एंव निश्छल महान रूप है । ममता के पश्चात प्रेम का उन्नत रूप पिता, दादा, दादी का लाड व दुलार है यह भी निस्वार्थ होता है परन्तु माँ की ममता की तरह महान नहीं हो सकता । भाई, बहन, एंव परिवार के अन्य सदस्यों का आपसी प्रेम तथा पति, पत्नी व मित्रगणों के मध्य होने वाला प्रेम स्नेह होता है स्नेह में एक दूसरे के प्रति समर्पण के साथ कुछ स्वार्थ भी होता है जो इन्हें आपस में जोड़े रखता है । किसी पुरुष व स्त्री के मध्य भावनात्मक एंव शरीरिक आकर्षण के कारण होने वाला प्रेम प्रीत होती है जिसे इश्क व आशिकी भी कहा जाता है यह प्रेम का सबसे स्वार्थी रूप होता है क्योंकि इसमें प्राप्ति की अभिलाषा सम्मिलित होती है ।

भोतिक प्रेम धन अथवा किसी धातु या धातु से निर्मित वस्तु एंव मकान या किसी साजो सामान व वाहन से भी हो सकता है । यह प्रेम इन्सान के लिए दुःख का कारण बनता है क्योंकि सभी वस्तुएं नश्वर होती हैं और इन्सान के उपयोग के लिए होती हैं इनसे प्रेम कर सहेज कर रख देने से न तो किसी काम आती हैं एवं ना ही सुरक्षित रह पाती हैं जो इन्सान के लिए दुःख का कारण बनती हैं ।
शरीरिक प्रेम अर्थात शरीरिक आकर्षण सदा हानि तथा दुःख का कारण ही बनता है । शरीरिक आकर्षण के दुष्परिणाम इन्सान के जीवन का सर्वनाश कर देते हैं क्योंकि इन्सान जिसके आकर्षण में फंसता है उसके गुणों और अवगुणों को परखना अथवा देखना भी आवश्यक नहीं समझता तथा यही कारण उसे जीवन में बर्बादी के रास्ते पर ले जाता है । शरीरिक आकर्षण के दुष्परिणाम इन्सान को जब मालूम पड़ते हैं जब तक वह अपना सब कुछ लुटा चुका होता है । इन्सान का शरीर के प्रति आकर्षण सच्चा प्रेम नहीं कामवासना की इच्छा उसे आकर्षित करती है तथा कामुकता में अँधा होकर इन्सान चाहे नर हो या मादा उसके प्रति पूर्ण रूप से समर्पित हो जाता है । यदि दूसरा इन्सान उसे मूर्ख बना कर लूट भी ले तो उसे महसूस भी नहीं होता क्योंकि कामुकता इन्सान के विवेक का सर्वनाश कर देती है ।
प्रेम त्रिकोण में तो हत्या जैसे जघन्य अपराध साधारण बात हो कर रह गये हैं । यदि दूसरा इन्सान मूर्ख न भी बनाए तो भी आपस में मन मुटाव अथवा लड़ाई झगड़ा अवश्य होता है क्योंकि शरीरिक आकर्षण कामवासना की कामुकता के कारण होता है और वासना पूर्ति के पश्चात जब मन शांत होता है तथा विवेक जागृत होता है तो आपस में विषयभोग के लिए उठाई गई परेशानियाँ तथा मांग पूर्ति के लिए खर्च किया गया धन सभी याद आते हैं एवं मन में घृणा उत्पन्न होने लगती है । यदि दोनों इंसानों ने शादी भी कर ली हो तो जब कामवासना का उन्माद समाप्त हो जाता है तब परिवार के घरेलू कार्य याद आते हैं तथा जीवन निर्वाह के कार्य भी याद आते हैं जिनको करने में व्यस्त होने तथा एक दूसरे को कार्य करने के लिए कहने पर क्रोध आना स्वभाविक होता है क्योंकि आकर्षण के समय दूसरे का कार्य स्वयं करने वाला अब उसे कार्य करने को कह रहा है जो कल तक उसके लिए नौकर की तरह कार्य करने को उपस्थित था वह उसे नौकर बना रहा है । यह झगड़े का मुख्य कारण होता है एवं यही शरीरिक आकर्षण का दुष्परिणाम भी होता है ।
यदि इन्सान जीवन में प्रेम करता है तो वह महान कार्य कर रहा है परन्तु अपने विवेक द्वारा परखना भी आवश्यक होता है कि कहीं प्रेम उसके लिए जीवन की बर्बादी का कारण तो नहीं बनने जा रहा । जीवन को स्थापित करना तथा उसे सफल बनाना सबसे महत्वपूर्ण कार्य है एवं संसार व समाज में सम्मान और प्रतिष्ठा प्राप्त करना भी आवश्यक है जिसे सभी इंसानों से प्रेम व सद्भाव से ही प्राप्त किया जा सकता है । किसी की उच्च कोटि की मानसिकता तथा विचारों से प्रेम करना ही इंसानियत से प्रेम है । प्रेम एक विश्वास है जो इन्सान को समर्पित होने की प्रेरणा देता है एवं प्रेम का अंत शक के आरम्भ से होता है जितना अधिक शक बढ़ता है उतना ही प्रेम कम हो जाता है इसलिए प्रेम को जीवित रखने के लिए शक का समाधान करना आवश्यक होता है । प्रेम में जिस प्रकार विश्वास का मूल्य है उसी प्रकार अंध विश्वास का भी ध्यान रखना आवश्यक है क्योंकि अंध विश्वास सदैव हानिकारक ही होता है जिसका लाभ उठाकर कोई भी धोखा दे सकता है इसलिए प्रेम में विश्वास करना उत्तम है परन्तु अंध विश्वास करना मूर्खता है ।
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