प्राकृति संचालक, महान विभूति, महान हस्ती अथवा कोई मार्ग दर्शक जिनसे किसी प्रकार की प्राप्ति होने की आशा होती है उनके प्रति जब कोई अपनी भावनाओं के वशीभूत खुद को समर्पित करते हुए सेवा एवं नमन करता है उसे इन्सान की श्रद्धा कहा जाता है । श्रद्धा एक प्रकार का मूल्य है जिसे चुकाकर इन्सान अपनी इच्छित वस्तु या विषय को मुफ्त प्राप्त करना चाहता है क्योंकि अन्य किसी प्रकार का मूल्य चुकाकर प्राप्ति होने से इन्सान किसी प्रकार की श्रद्धा नहीं रखता ।
श्रद्धा इन्सान सर्वाधिक प्राकृति संचालक अर्थात ईश्वर के प्रति रखता है परन्तु इसके अतिरिक्त अनेक प्रकार के देवी देवताओं, साधू संतों, तांत्रिकों, धर्म गुरुओं यहाँ तक कि पीर व मजारों पर भी भरपूर श्रद्धा रखता है । इन्सान की श्रद्धा धर्म व धर्म से सम्बन्धित विभूतियों के प्रति होती है कभी-कभी इन्सान अपने परिवार के बुजुर्गों या किसी महान आविष्कारक, दार्शनिक अथवा गुरु, महान लेखक या कलाकार के प्रति भी रखता है । श्रद्धा उत्पन्न होने के अनेक कारण होते हैं जैसे भय, लोभ, दिखावा, विश्वास, प्रेम इत्यादि एवं श्रद्धा करने वालों के दो प्रकार हैं उदारवादी तथा कट्टरवादी ।
इन्सान के जीवन में सर्वाधिक महत्व भय का है क्योंकि भय इन्सान की मानसिकता को प्रभावित करके उसकी बौद्धिक क्षमता स्थिर एवं कुंठित करता है तथा असफलता का कारण बन जाता है । भय इन्सान को जीवन निर्वाह से आरम्भ अनेक प्रकार की समस्याओं, बिमारियों, सन्तान की परवरिश, शिक्षा, विवाह, आमदनी वगैरह के प्रति सदैव सताता है जिसके निवारण के लिए इन्सान सदैव सहायता करने वालों की तलाश करता रहता है । इन्सान को जिनसे मुफ्त सहायता प्राप्त होने की आशा होती है वह उनको अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करके उनसे प्राप्ति की आशा करता रहता है । इन्सान अधिकतर ईश्वर के प्रति अपनी श्रद्धा भय के कारण ही करते हैं क्योंकि उन्हें लगता है जो संसार का संचालन कर्ता है वह उनकी श्रद्धा से प्रसन्न होकर उन्हें किसी प्रकार का वरदान देगा अथवा उनकी समस्याएँ अवश्य निपटा देगा तथा उन्हें जीवन भर सुखी रखते हुए भय मुक्त रखेगा । इन्सान भय के कारण मन्दिरों, आश्रमों एवं साधू संतों तथा कभी-कभी तांत्रिकों के चरणों में अपनी श्रद्धा प्रकट करके खुद को संतावना देता रहता है कि जीवन सुधरने वाला है ।
लोभ इन्सान का ऐसा विकार है जो उससे किसी भी प्रकार का कार्य करवाने की क्षमता रखता है । लोभ के वशीभूत इन्सान अधिक से अधिक प्राप्त करने के प्रयास में प्रत्येक उस कार्य करने को तत्पर रहता है जहाँ उसे मुफ्त एवं अधिक प्राप्त हो सके । मुफ्त प्राप्ति का साधन इन्सान ईश्वर, देवी देवताओं तथा संसार की अध्यात्मिक शक्तियों को समझता है इसलिए उन्हें लुभाने के लिए अपनी श्रद्धा प्रकट करके प्रसन्न करने का भरसक प्रयास करता है । यदि इन्सान को परिवार के किसी सदस्य से या किसी सामर्थ्यवान से मुफ्त प्राप्ति अथवा अपनी समस्याओं का समाधान दिखाई पड़ता है तो लोभ के वशीभूत उनपर अपनी श्रद्धा प्रकट करने का प्रयास अवश्य करता है ।
श्रद्धा का दिखावा करना भी संसार में पूर्ण प्रचिलित है जिसमे तिलक लगाना, प्रतिदिन मन्दिरों में दिखाई पड़ना, अपनी धार्मिक यात्राएं बखान करना एवं धर्म के विषय में अनेकों प्रकार के भाषण देकर खुद को धार्मिक प्रमाणित करने का प्रयास करना । श्रद्धा का दिखावा खुद को धर्म के विषय में विद्वान् प्रमाणित करके सम्मान प्राप्ति अथवा किसी प्रकार का स्वार्थ सिद्ध करना होता है । धर्म शास्त्रियों, साधू संतों एवं तांत्रिकों का कार्य भी खुद को दैविक शक्तियों की श्रद्धा से प्राप्त कृपा एवं अद्भुत शक्तियों से परिपूर्ण दिखाकर नादानों को लूटने का प्रयास ही होता है तथा उनका दिखावा इतना सशक्त होता है कोई भी साधारण इन्सान इनके सुदृढ़ जाल में सरलता से फंस जाता है ।
साधारण इन्सान मन्दिरों, साधू संतों, तांत्रिकों एवं धर्म गुरुओं व शस्त्रियों को आलोकिक व अध्यात्मिक शक्तियों के मालिक होने का विश्वास करते हुए उनके प्रति अत्यधिक श्रद्धा रखते हैं । साधारण इन्सान की मान्यता है कि यें आलोकिक शक्तियों द्वारा इनके जीवन के सभी दुखों को दूर करके इनके जीवन को खुशियों से भर देंगें यह विश्वास साधारण इन्सान को इनके प्रति श्रद्धा रखने पर मजबूर कर देता है ।
इन्सान किसी देवी देवता की मूर्ति या साधू संत अथवा किसी महापुरुष को आलोकिक शक्तियों से परिपूर्ण मानकर व उनसे प्रभावित होकर पूर्णतया भावनात्मक समर्पण कर देता है तथा किसी भी प्रकार की अभिलाषा नहीं रखता तो यह इन्सान की भावनाओं से उत्पन्न प्रेम के कारण होने वाली श्रद्धा होती है प्रेम के कारण उत्पन्न श्रद्धा इन्सान की श्रद्धा का उत्कृष्ट एवं महानतम रूप है । प्रेम से उत्पन्न श्रद्धा में डूबकर इन्सान सिर्फ अपने ईष्ट के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित ही नहीं होता अपितु उसपर अपना सर्वस्य लुटा देता है ।
इन्सान के जीवन में श्रद्धा का मूल आधार धर्म एवं धार्मिक विषय हैं इसलिए ईश्वर, देवी देवताओं, साधू संतों व धर्म गुरुओं एवं शास्त्रियों जिस पर भी वह श्रद्धा रखता है उसे धर्म से जोडकर ही देखता है । जो अपनी श्रद्धा के प्रति उदारवादी होते हैं वें जिस पर श्रद्धा रखते हैं उसके विषय में यदि कोई तर्क करता है या त्रुटी प्रस्तुत करता है तो उस पर ध्यान देते हैं तथा त्रुटी मान भी लेते हैं । उदारवादी इन्सान धार्मिक विषयों की रुढ़िवादी प्रथाओं में संशोधन को स्वीकारते हैं तथा आवश्यकता अनुसार संशोधन करने के प्रयास भी करते हैं ।
कट्टरवादी इन्सान उदारवादी इंसानों के ठीक विपरीत होते हैं जो अपने धर्म व धार्मिक विषयों को पूर्णतया उचित मानते हुए किसी प्रकार का तर्क एवं संशोधन स्वीकार नहीं करते । कट्टरवादी इंसानों की दृष्टि में उनका धर्म एवं धर्म से जुड़े सभी विषय ईश्वर द्वारा उपहार स्वरूप भेंट किए हुए हैं जिनसे छेड़छाड़ करने से ईश्वर रुष्ट होकर उन्हें बर्बाद कर सकता है । कट्टरवादी अपनी श्रद्धा के वशीभूत मरने मारने पर भी उतारू हो जाते हैं परन्तु उदारवादी श्रद्धा के विषयों में किसी को कोई भी हानि करने के विषय में सोचते भी नहीं हैं ।
इन्सान द्वारा श्रद्धा का मुख्य कारण भय है क्योंकि संसार में अधिकतर इन्सान अभावग्रस्त या समस्या से पीड़ित हैं इसलिए वें पीड़ा मुक्त होने के लिए भय वश श्रद्धा रखते हैं । लोभ के कारण श्रद्धा रखने वालों की भी कोई कमी नहीं है जो अधिक प्राप्ति के लिए श्रद्धा रखते हैं । दिखावा करने वाले खुद को महत्वपूर्ण एवं सम्मानित प्रदर्शित करने के लिए श्रद्धा का ढोंग करते हैं । विश्वास के कारण श्रद्धा रखना भी स्वार्थ पूर्ति के लिए ही होता है । प्रेम के कारण श्रद्धा इन्सान की भावनाओं से उत्पन्न निस्वार्थ सेवा है ।
श्रद्धा इन्सान किसी पर भी एवं किसी भी प्रकार की रखता हो उसे वास्तविकता का ज्ञान होना आवश्यक है क्योंकि वास्तविकता समझे बगैर श्रद्धा रखने से सिर्फ इन्सान का धन एवं समय ही बर्बाद होता है । संसार में सच्चाई से पाखंड अधिक है तथा पाखंड के चक्रव्यूह में फंसकर इन्सान स्वयं घनचक्कर व मूर्ख ही बनता है । संसार में इन्सान को जो भी प्राप्ति होती है वह परिवार द्वारा तथा अपने कर्म के आधार पर प्राप्त होती है प्राप्ति के विषय पर सभी धर्म ग्रन्थों ने समझाने का भी भरपूर प्रयास किया है कि किसी भी प्रकार की प्राप्ति इन्सान सिर्फ अपने कर्मों द्वारा ही कर सकता है । किसी भी प्रकार की प्राप्ति की अभिलाषा से श्रद्धा करने का किसी भी प्रकार का कोई लाभ नहीं होता । श्रद्धा के पाखंड में किसी को फंसाकर लाभ अवश्य प्राप्त किया जा सकता है जिसे धूर्त इन्सान भलीभांति उपयोग कर रहे हैं एवं साधारण इन्सान चुपचाप लुट रहे हैं ।
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