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स्वाभिमान – swabhiman

December 4, 2016 By प्रस्तुत करता - पवन कुमार Leave a Comment

इन्सान जब श्रेष्ठ कर्मों तथा व्यवहार के कारण समाज में अपनी पहचान स्थापित कर लेता है तथा अपने अपने कर्मों एवं व्यवहार से समाज द्वारा सम्मानित दृष्टि से देखा जाता है उस सम्मान पर कुछ अभिमान होना स्वभाविक होता है। यह समाज द्वारा प्राप्त सम्मान से इन्सान के मन में अपने प्रति जो सम्मान सहित अभिमान उत्पन्न होता है उसे ही इन्सान का स्वाभिमान कहा जाता है। स्वाभिमान अर्थात खुद पर सम्मान सहित अभिमान करना तथा इन्सान खुद पर अभिमान तभी कर सकता है जब उसके कर्म श्रेष्ठ हों तथा व्यवहार एवं आचरण भी श्रेष्ठ होना आवश्यक है। स्वाभिमान इन्सान की श्रेष्ठता से समाज में होने वाली पहचान होती है। समाज में स्वाभिमानी इंसानों को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त होता है तथा समाज में स्वाभिमानी इंसानों की पूर्ण विश्वसनीयता भी कायम होती है।

जो इन्सान समाज में अपनी सम्पत्ति एवं धन या पद के आधार पर खुद को महत्वपूर्ण समझ कर अभिमान करते हैं वास्तव में वह उनका अहंकार होता है। अभिमानी तथा स्वाभिमानी होने में बहुत अंतर होता है। स्वाभिमानी को समाज महत्वपूर्ण समझता है परन्तु अभिमानी खुद को महत्वपूर्ण समझता है। स्वाभिमानी समाज में सम्मानित माना जाता है परन्तु अभिमानी खुद को सम्मानित मान लेता है। अभिमानी इन्सान को यह समझता आवश्यक होता है कि समाज किसी की सम्पत्ति, धन या पद का सम्मान नहीं करता समाज इन्सान के कर्म, व्यवहार एवं आचरण की श्रेष्ठता का सम्मान करता है। स्वाभिमानी इन्सान सत्य से प्रेम करता है तथा अभिमानी इन्सान सत्य से दूर भागता है इसलिए जब सत्य से प्रेम होने लगे तो समझ लेना चाहिए कि वह भी स्वाभिमानी हो रहा है।

स्वाभिमान  की श्रेष्ठता को ईमान कहा जाता है। इन्सान जब सत्य एवं निष्ठा से अपने कार्यों को परिणाम देता है तथा अपने सभी कर्तव्यों का पालन पूर्ण निष्ठा से करता है तब वह ईमानदार कहलाता है। स्वाभिमान की श्रेष्ठता पर जब ईमानदारी की छाप लग जाती है तो ऐसे इन्सान को समाज में विशेष स्थान प्राप्त हो जाता है। किसी ईमानदार इन्सान को समाज से पूर्ण सहयोग एवं समय पर जितना धन चाहिए उधार के रूप में प्राप्त हो जाता है। किसी धनी इन्सान को यदि समाज में ईमानदार होने का विश्वास प्राप्त नहीं होता तो उसे भी उधार लेने में असुविधा होती है क्योंकि विश्वास धन से नहीं ईमानदारी के आधार पर होता है। ऐसे कारण प्रमाणित करते हैं कि संसार में इन्सान अपने स्वाभिमान के कारण कितना अधिक श्रेष्ठ बन सकता है जिससे उसका  जीवन सम्मानित एवं आनन्दित बन जाता है।

कोई इन्सान जब किसी भी प्रकार की बेईमानी करता है तो उसे सर्वप्रथम अपने स्वाभिमान का अंत करना पड़ता है अथवा वह स्वाभिमानी नहीं होता क्योंकि बेईमानी जब प्रमाणित होती है तो अपमान भी भरपूर होता है। स्वाभिमान इन्सान की श्रेष्ठता एवं शुभ कर्मों की पहचान है। जीवन में बेईमान से स्वाभिमान इन्सान समृद्धि में पिछड़ अवश्य सकता है परन्तु समाज में सदैव अग्रणी रहता है। स्वाभिमानी इन्सान को प्रयासों से ही सही परन्तु सफलता अवश्य प्राप्त होती है क्योंकि समाज उसका साथ अवश्य देता है। बेईमान इन्सान का कोई बेईमान अथवा लोभी या स्वार्थी इन्सान कुछ समय के लिए साथ अवश्य दे सकता है परन्तु ऐसे इन्सान किसी भी समय धोखा दे देते हैं। बेईमान अथवा साधारण इन्सान की मृत्यु के साथ ही पहचान समाप्त हो जाती है परन्तु स्वाभिमानी एवं ईमानदार इंसानों को समाज सदैव स्मरण रखता है तथा समय-समय पर उनकी व्याख्या भी करता रहता है।

संसार में अपनी पहचान स्थापित करनी हो तो इन्सान को स्वाभिमानी होना आवश्यक है जिसके लिए अपने कर्मों, व्यवहार एवं आचरण में श्रेष्ठता उत्पन्न करना आवश्यक होता है। इन्सान यदि किसी प्रकार का अनुचित कार्य करता है तो वह अपना सम्मान स्वयं भी नहीं कर सकता क्योंकि उसे पता होता है कि वह गुनाहगार है। जो इन्सान अपना सम्मान स्वयं भी नहीं कर सकता उसे दूसरों से सम्मान की अपेक्षा करना नादानी होती है। इन्सान को यदि सम्मान की अपेक्षा हो तो सर्वप्रथम खुद अपना सम्मान करना सीखना चाहिए और अपना सम्मान सिर्फ स्वाभिमानी इन्सान ही कर सकता है।

swabhiman

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