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ईर्षा – irsha

October 20, 2018 By प्रस्तुत करता - पवन कुमार Leave a Comment

किसी की प्रगति, प्रतिभा, समृद्धि या श्रेष्ठता पर मन में पीड़ा, कटुता, आक्रोश अथवा हीनभावना उत्पन्न होना इन्सान की ईर्षा (irsha) होती है । ईर्षा (irsha) इन्सान की मानसिकता में उत्पन्न एक विकार है जिसमें वृद्धि होने पर इन्सान की मानसिकता विकृत हो जाती है जो इन्सान को विनाश एवं अपराध के रास्ते पर ले जाती है । सबसे आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि ईर्षा (jealousy) इन्सान को सदैव अपनों एवं अपने आस-पास के इंसानों ही होती है । पराये इन्सान कितने भी प्रतिभाशाली, बुद्धिमान, धनवान या बलवान हो तथा उनकी कितनी भी प्रशंसा होती हो किसी को कभी ईर्षा नहीं होती परन्तु किसी अपने की प्रशंसा होते ही मन ईर्षा (irsha) उत्पन्न होना इन्सान का स्वभाविक कार्य है ।

irsha

स्वभाविक ईर्षा (jealousy) करना इन्सान का स्वभाव है जिसका जीवन पर किसी प्रकार का प्रभाव नहीं  होता मानसिकता को प्रभावित ईर्षा (irsha) की वृद्धि करती है जो तीन स्तर की होती है । ईर्षा (irsha) में वृद्धि इन्सान की अभिलाषाओं, व्यवहार एवं कर्म को क्रमानुसार प्रभावित करती है । ईर्षा में वृद्धि नकारात्मक एवं सकारात्मक दोनों प्रकार से होती है परन्तु सकारात्मक जटिल है तथा नकारात्मक सरल होती है । इन्सान को सरल कार्य करना उचित लगता है इसलिए इन्सान अधिकतर सरल अर्थात नकारात्मक ईर्षा (jealousy) का ही उपयोग करता है ।

मानसिकता में ईर्षा की वृद्धि सबसे पहले अभिलाषाओं में होती है जिसमें इन्सान जिससे ईर्षा होती है उसको तुच्छ प्रमाणित करने अथवा उसे नीचा दिखाने की रुपरेखा तैयार करना आरम्भ करता है । अपनी ईर्षा के विरोध में इन्सान जितना अधिक विचार करता है उतनी ही उसकी नकारात्मक मानसिकता में वृद्धि हो जाती है । नकारात्मक मानसिकता का अधिक उपयोग करने से सकारात्मक मानसिकता को समाप्त होने लगती है जिसके कारण इन्सान नकारात्मक विचार अधिक करता है । ईर्षा के कारण इन्सान का मानसिक विकास भी समाप्त होने लगता है क्योंकि वह नई जानकारियां एकत्रित करने पर ध्यान ना देकर वह ईर्षा में लिप्त रहता है । ईर्षा की अभिलाषाएं करने से जिससे ईर्षा होती है उसकी कोई हानि नहीं होती परन्तु खुद की मानसिकता क्षतिग्रस्त अवश्य हो जाती है

अभिलाषाओं से वृद्धि करके ईर्षा इन्सान के व्यवहार में उत्पन्न होने लगती है । व्यवहार में ईर्षा उत्पन्न होते ही इन्सान दूसरे की बुराइयाँ करना एवं उसकी गलतियाँ तलाश करके उनपर कटाक्ष करना आरम्भ कर देता है । दूसरों की गलतियों पर बहस करने से समाज में इन्सान की अपनी छवि खराब होती है क्योंकि इससे वह ईर्षालू एवं दूसरों का अपमान करने वाला समझा जाता है । ईर्षा के कारण किसी की बुराई करके या उसकी गलतियों पर बहस करके उसके सम्मान की हानि हो या ना हो परन्तु अपना सम्मान अवश्य प्रभावित हो जाता है ।

व्यवहार में ईर्षा की वृद्धि होने के पश्चात इन्सान के कर्म प्रभावित होने लगते हैं जिसके प्रभाव से वह जिसके प्रति ईर्षा हो उसे हानि पहुँचाने का हर संभव प्रयास करता है । जब इन्सान के कर्म ईर्षा से प्रभावित हो जाते हैं तो यह ईर्षा की पराकाष्ठा एवं घृणा का आरम्भ होता है । इन्सान ईर्षा से प्रभावित होकर किसी भी प्रकार का हानि पहुँचाने का घ्रणित कार्य करने को तत्पर हो जाता है यह इन्सान की ईर्षा घ्रणित कार्य करने के कारण घृणा बन जाती है । इन्सान के अनुचित कार्य एवं व्यवहार उसे धीरे-धीरे अपराध करने की ओर अग्रसर कर देते हैं । यह इन्सान की ईर्षा का नकारात्मक पहलू है जिसके प्रभाव से वह किसी की हत्या करने जैसे जघन्य अपराध को भी अंजाम दे सकता है ।

ईर्षा यदि सकारात्मक हो तो इन्सान अपनी अभिलाषाओं में किसी का अपमान करने के स्थान पर खुद को दूसरे से श्रेष्ठ बनाकर उसे तुच्छ प्रमाणित करने का प्रयास करता है । जब इन्सान दूसरे से श्रेष्ठ बनकर समाज में उसे तुच्छ प्रमाणित करने का प्रयास करता है तो वह श्रेष्ठ कार्य करने के प्रयास भी करता है । श्रेष्ठ कार्य करने के लिए नए रास्ते तलाश करना इन्सान की मानसिकता का विकास करता है । किसी की ईर्षा में खुद को श्रेष्ठ बनाने का प्रयास करना इन्सान के लिए प्रेरणादायक बन जाता है । ईर्षा से प्रेरित होकर जब इन्सान समाज में नए रास्ते तलाश करता है तो समाज उसे भविष्य के प्रति जागरूक व्यवहार का इन्सान समझने लगता है जिसके कारण उसके सम्मान में वृद्धि होती है ।

ईर्षा से प्रेरित होकर अभिलाषाओं एवं व्यवहार के पश्चात जब इन्सान अपने कर्मों द्वारा बुलंदियां प्राप्त करने का कार्य करता है तो उसे श्रेष्ठता अवश्य प्राप्त होती है । सकारात्मक ईर्षा इन्सान को प्रेरित करके श्रेष्ठ बनाती है तथा नकारात्मक ईर्षा उसे अपराधी बना देती है यह परिणाम वास्तव में ईर्षा का उपयोग करने की मानसिकता के कारण  होता है । ईर्षा विषैली अवश्य है परन्तु उपयोग उसे अमृत बनाने की क्षमता रखता है जैसे जहर मृत्यु कारक है | परन्तु चिकत्सा पद्धति में जहर के उपयोग द्वारा अनेक घातक बीमारियों के उपचार किए जाते हैं । जहर का उत्तम उपयोग उसे अमृत बनाने की क्षमता रखता है इसी प्रकार उत्तम उपयोग द्वारा ईर्षा घृणा के स्थान पर प्रेरणा बनकर इन्सान को श्रेष्ठ बना देती है ।

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इंसान के जीवन में जन्म से मृत्यु तक के सफर में तृष्णा, कामना तथा बाधाएं उत्पन्न होकर मानसिकता में असंतोष तथा भटकाव की स्थिति उत्पन्न कर देते हैं जिससे जीवन कष्टदायक व असंतुलित निर्वाह होता है। जीवन सत्यार्थ ऐसा प्रयास है जिसके द्वारा सत्य की परख करके कष्टकारी मानसिकता से मुक्ति पाकर जीवन संतुलित बनाया जा सकता है। पढने के साथ समझना भी आवश्यक है क्योंकि पढने में कुछ समय लगता है मगर समझने में सम्पूर्ण जीवन भी कम हो सकता है और समझने से सफलता प्राप्त होती है।

प्रस्तुत कर्ता - पवन कुमार

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