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पूजा

August 2, 2014 By Amit 1 Comment

किसी के द्वारा अनमोल उपहार या ज्ञान प्राप्त होने अथवा उसके महान कार्यों के लिए संसार, समाज या किसी के लिए वह सम्मान का अधिकारी हो तो उसे पूज्य माना जाता है तथा पूज्य के प्रति सम्मान प्रकट करने की पद्धति को समाज में पूजा कहा जाता है । पूजा करने की अनेक प्रकार की पद्धतियों का उपयोग इंसानों तथा समाज के द्वारा अपनाया गया है परन्तु सभी पद्धतियों का ध्येय सिर्फ अपने पूज्य के प्रति सम्मान प्रकट करके उन्हें प्रसन्न करना ही होता है । पूजा करने वाला चाहे पूज्य के चरणों में दंडवत प्रणाम करता हो या हाथ जोडकर अभिवादन करता हो अथवा पदार्थों व वस्तुओं के द्वारा मनोनीत करता हो महत्व उसकी भावनाओं का होता है । पूजा का अर्थ सिर्फ अपनी भावनाएं पूज्य के समक्ष प्रकट करके उनका सम्मान करना होता है ।

पूजा इन्सान ईश्वर से आरम्भ होकर अपने अराध्य देवी, देवताओं तथा आदरणीय गुरुजनों व परिवार के सम्मानित सदस्यों एवं अपने माता पिता तक सभी की करता है परन्तु पूजा करने के अतिरिक्त उनके आचरणों की व्याख्या करके प्रसन्न होने से अधिक किसी कार्य को अंजाम नहीं देता । पूजा करना समाज में अपनी संस्कृति का सम्मान करना माना जाता है परन्तु सिर्फ सम्मान करने से किसी संस्कृति को जीवित नहीं रखा जा सकता । संस्कृति को जीवित तथा प्रतिष्ठित रखने के लिए उसके दिखाए रास्तों पर चलना तथा संस्कृति के नियमों का पालन करना अनिवार्य है जो संस्कृति की छवि में वृद्धि करता है । इसलिए समाज में सिर्फ लकीर पीटने की रूढ़िवादिता के अतिरिक्त संस्कृति तथा पूजा का कोई अर्थ नहीं है जिसके कारण वर्तमान पीढ़ी के इन्सान भटकने के अतिरिक्त कुछ नहीं कर पाते ।

इन्सान के व्यहवार और उसके आचरण में उसके माता पिता और परिवार की छवि दिखाई देती है क्योंकि वह माता पिता तथा परिवार से प्राप्त आचरण धारण करके उनके बताए रास्ते पर चलता है । परिवार के आचरण व व्यहवार से खराब आचरण और व्यहवार वाला इन्सान समाज में भटका हुआ माना जाता है तथा उसे सम्मान का पात्र नहीं समझा जाता । कोई-कोई इन्सान अपने माता पिता व परिवार के आचरण तथा व्यहवार के अतिरिक्त अपने बोद्धिक ज्ञान से एंव बुद्धिमान इंसानों की संगत में रहकर अत्याधिक सभ्रांत रूप समाज के समक्ष प्रस्तुत करता है जो कि बहुत कम इंसानों में ऐसा होता है । परिवार से अधिक सभ्य आचरण व व्यहवार परिवार व माता पिता की प्रतिष्ठा में वृद्धि करके समाज में सम्मान प्राप्त करवाता है ।

जिस प्रकार इन्सान अपने वंश के आचरण धारण करके समाज में प्रतिष्ठित रहता है उसी प्रकार वह जिसकी पूजा करके अपने मन में प्रसन्नता का अहसास करता है उसके आचरण धारण करके उसकी पूजा को उचित महत्व दे सकता है । किसी को गुरु मानने से इन्सान का महत्व संसार में नहीं होता जब तक वह गुरु द्वारा निर्देशित मार्गों पर नहीं चलता तथा गुरु के आचरण धारण नहीं करता । समाज में जिन देवी देवताओं की पूजा करने का प्रावधान है उनके आचरण धारण करना ही उनकी पूजा है ना सिर्फ सामने प्रसाद रखना या दीपक जलाना या फूल चढ़ाना । जब तक उनके आचरणों पर अपना जीवन समर्पित नहीं किया जाता उनकी पूजा का कोई अर्थ नहीं होता ।

हनुमान की पूजा करने से पूर्व पूजा करने वाले को हनुमान के समान ब्रह्मचर्य पालन करना भी सीखना आवश्यक है । वैष्णव देवी की पूजा का सही अर्थ इन्सान को शाकाहारी होने एंव सभी के प्रति दया भाव रखने पर ही होता है । सिद्धि विनायक गणेश की पूजा इन्सान को शांत स्वभाव, दयालु प्रवृति, बुराइयों को हजम करना तथा किसी पर बोझ ना बनकर स्वाभिमान से जीवन यापन करने के लिए प्रेरित करती है । शिव पूजा करने वाले इन्सान को उनके आचरण अर्थात इन्द्रियों तथा अपनी कामनाओं पर नियन्त्रण करके तपस्वी जीवन व्यतीत करना सीखना आवश्यक है । इसी प्रकार ब्रह्मा की चहुंमुखी दृष्टि, विष्णु की व्यहवारिकता, लक्ष्मी की सेवा, सरस्वती का ज्ञान, पार्वती का रिपु दमन जैसे आचरण धारण करना ही इनकी पूजा का उचित अर्थ होता है । जिस इन्सान ने आचरणों की अनदेखी करके सिर्फ अपनी पूजा करने तथा घंटियाँ बजाने पर ध्यान केन्द्रित रखा वह नादानी में सिर्फ अपना समय व्यर्थ गंवा देता है ।

मूर्तियों से इन्सान को जो शिक्षा प्राप्त होती है वह उसे त्याग कर पूजा करके जीवन में सफलता प्राप्त करना चाहता है जो उसे मूर्ति पूजा का अर्थ समझने पर ही प्राप्त हो सकती है । मूर्ति पूजा का अर्थ उनके द्वारा दर्शाए आचरणों को समझकर धारण करना उनकी पूजा है जिससे वह आचरण के बल पर जीवन में सफलता प्राप्त कर सके , इन्सान की स्वाभाविक कार्य शैली को आचरण कहा जाता है तथा अच्छी कार्य शैली इन्सान को सबल बनाती है जिससे वह कार्य सफलता पूर्वक सम्पूर्ण कर पाता है । इन्सान की असली पूजा कर्म पूजा है कर्म पूजा के द्वारा ही इन्सान जीवन में मन की सभी कल्पनाओं को पूर्ण कर सकता है।

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जीवन सत्यार्थ

इंसान के जीवन में जन्म से मृत्यु तक के सफर में तृष्णा, कामना तथा बाधाएं उत्पन्न होकर मानसिकता में असंतोष तथा भटकाव की स्थिति उत्पन्न कर देते हैं जिससे जीवन कष्टदायक व असंतुलित निर्वाह होता है। जीवन सत्यार्थ ऐसा प्रयास है जिसके द्वारा सत्य की परख करके कष्टकारी मानसिकता से मुक्ति पाकर जीवन संतुलित बनाया जा सकता है। पढने के साथ समझना भी आवश्यक है क्योंकि पढने में कुछ समय लगता है मगर समझने में सम्पूर्ण जीवन भी कम हो सकता है और समझने से सफलता प्राप्त होती है।

प्रस्तुत कर्ता - पवन कुमार

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