जब इन्सान अपने लाभ एंव हित के लिए कार्य करता है तो वह उसका स्वार्थ कहलाता है। स्व + अर्थ = स्वार्थ अर्थात खुद + लाभ = खुद का लाभ जो स्वार्थ कहलाता है । संसार का प्रत्येक प्राणी अपने हित का कार्य करता है जैसे अपने जीवन की रक्षा करना तथा जीवन निर्वाह करने के लिए भोजन तलाश कर खाना जिसके लिए अनेक जीव दूसरे जीवों का भक्षण करते हैं । जीवों का आपस में भक्षण करना कोई पाप नहीं है क्योंकि प्राकृति ने सभी जीवों को जीने का अधिकार दिया है जिसके लिए प्रत्येक जीव अपनी आवश्यकता अनुसार अपना भोजन ग्रहण करता है वह शाकाहारी है तो शाकाहारी यदि मांसाहारी है तो मांसाहारी भोजन खाता है । उदर पूर्ति का स्वार्थ सभी जीवों की स्वभाविक किर्या है इसके अतिरिक्त जीवन रक्षा के लिए या अन्य आवश्यकताओं के लिए सभी प्राणी अपना स्वार्थ पूर्ण करते हैं । इन्सान को भी संसार में अपने जीवन निर्वाह के लिए स्वार्थ सिद्ध करना आवश्यक है परन्तु स्वार्थ की भी अपनी मर्यादाएं हैं यदि मर्यादा में रह कर स्वार्थ पूर्ति करी जाए तो स्वार्थ कोई पाप नहीं है ।
स्वार्थ को समाज में अनुचित समझा जाता है किसी को स्वार्थी कहना उसके लिए अपशब्द के समान है जबकि संसार का प्रत्येक इन्सान स्वयं स्वार्थी होता है क्योंकि इन्सान द्वारा कर्म करने का आरम्भ ही स्वार्थ के कारण है यदि इन्सान का स्वार्थ समाप्त हो जाए तो उसे कर्म करने की आवश्यकता ही क्या है ? इन्सान को जब अपने तथा अपने परिवार के पोषण के लिए अनेकों वस्तुओं की आवश्यकता होती है तो उसमे स्वार्थ उत्पन्न होता है जिसके कारण वह कर्म करके अपने स्वार्थ सिद्ध करता है अर्थात इन्सान की आवश्यकता ही स्वार्थ है एंव स्वार्थ ही कर्म है यदि आवश्यकता ना हो तो स्वार्थ समाप्त एंव स्वार्थ ना हो तो कर्म समाप्त अर्थात स्वार्थ के कारण ही संसार का प्रत्येक प्राणी कर्म करता है इसीलिए संसार को स्वार्थी संसार कहा जाता है । यह इन्सान एंव अन्य जीवों का जीवन निर्वाह करने का स्वार्थ सिद्ध करना स्वभाविक तथा मर्यादित कार्य है जो संसार का संचालन अथवा कर्म है ।
स्वार्थ जब तक संतुलित है तब तक ही उचित है अन्यथा स्वार्थ की अधिकता होते ही जीवन में तथा समाज में अनेकों समस्याएँ उत्पन्न होने लगती हैं अपितु संसार में जितनी भी समस्याएँ हैं सभी इन्सान के स्वार्थ की अधिकता के कारण ही उत्पन्न हैं । इन्सान में जब स्वार्थ की अधिकता उत्पन्न होनी आरम्भ होती है तो वह स्वार्थ पूर्ति के लिए अनुचित कार्यों को अंजाम देने लगता है जो उसके जीवन में भ्रष्टाचार का आरम्भ होता है जिसके अधिक बढने से इन्सान धीरे धीरे अपराध की ओर बढने लगता है । इन्सान के स्वार्थ में लोभ का जितना अधिक मिश्रण होता है इन्सान उतना ही अधिक भयंकर अपराध करने पर उतारू हो जाता है यह स्थिति इन्सान में विवेक की कमी अथवा विवेकहीनता होने पर अधिक भयंकर होती है क्योंकि इन्सान परिणाम की परवाह करना छोड़ देता है या परिणाम से बेखबर हो जाता है जो उसके विनाश का कारण बन जाता है ।
इन्सान में स्वार्थ की अधिकता का कारण उसके मन की चंचलता एंव लोभ है । स्वार्थ की वृद्धि मन करता है तो उसमे रंग भरने का कार्य इन्सान की कल्पना शक्ति करती है तथा किर्याशील करने का साहस भावना शक्ति के कारण उत्पन्न होता है व स्वार्थ पूर्ति को अंतिम रूप इच्छाशक्ति प्रदान करती है । यदि इन मानसिक शक्तियों में आपसी तालमेल न हो तो स्वार्थ इन्सान के मन में अवश्य रहता है परन्तु वह अपने स्वार्थ को किर्याशील नहीं कर सकता । इन्सान यदि विवेक द्वारा अपनी स्वार्थी कामनाओं की पूर्ति करता है तो वह परिश्रम एंव बौद्धिक बल द्वारा जीवन में अनेकों संसाधन एंव धन एकत्रित कर सफलता प्राप्त करता है जो जीवन को खुशहाल बनाता है परन्तु इन्सान में विवेक की कमी या हीनता हो अथवा इन्सान का विवेक नकारात्मक भूमिका में सक्रिय हो तो वह फरेब, धोखेबाजी, ठगी, चोरी व लूट जैसे कार्यों द्वारा अपना स्वार्थ सिद्ध करने की ओर अग्रसर होता है जो उसे अपराधी बनाकर विनाश की राह पर ले जाता है ।
जो इन्सान स्वार्थ के नशे में अपराधिक कार्यों को अंजाम देते हैं वह कितने भी घातक हो सकते हैं ऐसे इंसानों के लिए रिश्तों एंव भावनाओं की कोई कीमत नहीं होती । जीवन में इन्सान को अनेक रिश्ते व सम्बन्ध एंव मित्र स्वार्थ की अधिक मात्रा से भरपूर मिलते हैं जो अपना स्वार्थ सिद्ध करते हुए हानिकारक बन जाते है बुद्धिमानी ऐसे इंसानों से दूरी बनाकर रखने एंव उनसे सतर्क रहने में है । रिश्तों में अपनापन समझकर किसी के स्वार्थ को सहन करना वास्तव में मूर्खता के अतिरिक्त कुछ नहीं होता क्योंकि लुटने या बर्बाद होने के पश्चात सावधानी दिखाने का कोई लाभ नहीं होता ।
इन्सान के मन में जब स्वार्थ की वृद्धि होने लगे यदि उसी समय मन को शांत किया जाए तो सहजता से शांत किया जा सकता है अन्यथा इन्सान का स्वार्थ पोषित होकर जीवन को विनाश के मार्ग पर ले जाता है एवं इन्सान को परिणाम भुगतने के समय जब अहसास होता है तब तक बहुत देरी हो जाती है । स्वार्थ के लिए हमें यह भी समझना आवश्यक है कि जीवन में स्वार्थ पूर्ति द्वारा भौतिक सुख तो जुटाए जा सकते हैं परन्तु स्वार्थी इन्सान का सम्मान धीरे धीरे समाप्त हो जाता है तथा उसका सामाजिक पतन भी निश्चित होता है क्योंकि स्वार्थ व सम्मान की आपसी शत्रुता होती है जो सदैव रहेगी यदि सम्मान चाहिए तो स्वार्थ का संतुलन बनाकर रखना आवश्यक है ।