
पृथ्वी पर उपलब्ध जीवन धारा के सदस्यों में वनस्पति के अतिरिक्त जितने भी प्रकार के जीव हैं इन्सान सहित सभी वायु, जल के अतिरिक्त जीवन का सुचारू रूप से संचालन करने के लिए भोजन ग्रहण करते हैं तथा भोजन की वस्तुओं में पृथ्वी पर उपलब्ध वनस्पति के अतिरिक्त अन्य शाकाहारी जीवों का भक्षण करके अपना जीवन निर्वाह करते हैं । भोजन की वस्तुओं में मौजूद रसायनों द्वारा सभी जीवों के शरीर का गठन एंव वृद्धि होती है तथा उनमे शक्ति का संचार होता है जिससे जीवों के शरीर में सक्रियता होती है तथा वें किर्याशील होते हैं ।
प्रत्येक जीव आंतरिक पाचन किर्या द्वारा अपने भोजन का शरीर में उपलब्ध रसायनिक तत्वों द्वारा शोषण करके भोजन का सार ग्रहण करता है एंव बचे हुई पदार्थ को मल द्वारा त्याग देता है तथा शोषण द्वारा प्राप्त सार को शरीर निर्माण के कार्यों के लिए संचित करता है । सभी जीवों के शरीर की कोशिका निर्माण में वायु, जल के अतिरिक्त भोजन से प्राप्त सार के तत्वों की भी आवश्यकता अनिवार्य है तथा शारीरिक सक्रियता व कार्य करने के लिए आवश्यक उर्जा की प्राप्ति में भी भोजन की महत्वपूर्ण भूमिका होती है ।
संसार में जीवन धारा के सदस्यों द्वारा विभिन्न प्रकार के भोजन का भक्षण करने के अतिरिक्त ग्रहण करने की पद्धति में भी भिन्नता होती है । वनस्पति अपने रसायनों द्वारा स्वयं भोजन का उत्पादन करती है एंव ग्रहण कर लेती है उसे किसी बाहरी वस्तु की भोजन के लिए आवश्यकता नहीं होती । शाकाहारी जीव वनस्पति को भोजन के रूप में ग्रहण करते हैं तथा मांसाहारी जीव शाकाहारी जीवों का भक्षण करते हैं तथा इन्सान के अतिरिक्त सभी जीव भोजन को प्राकृतिक रूप में ही ग्रहण करते हैं । इन्सान सभी जीवों से भिन्न शाकाहारी तथा मांसाहारी दोनों प्रकार का भोजन ग्रहण करने के अतिरिक्त अपने भोजन के प्राकृतिक रूप को नष्ट करके उसे भूनकर, पकाकर एंव वसा में तलकर अपनी इच्छानुसार रूप प्रदान करके उसका भक्षण करता है ।
इन्सान को भोजन की पोष्टिकता के अतिरिक्त उसका स्वाद प्रिय होता है तथा इन्सान भोजन को अधिक से अधिक स्वादिष्ट तथा आकर्षक बनाने के लिए सदैव तत्पर रहता है । इन्सान द्वारा भोजन को स्वादिष्ट तथा आकर्षक बनाने की किर्या में भोजन के सार व तत्वों में उत्पन होने वाली विषमता तथा शरीर के रसायनों पर होने वाले प्रभाव के कारण अनेकों प्रकार की बीमारियाँ इन्सान के शरीर में उत्पन्न हो जाती हैं । भोजन में मौजूद तत्वों का असंतुलन अपनी अल्पता अथवा अधिकता के कारण किसी भी भयंकर बीमारी को जन्म देने का कार्य करने में सक्षम हो जाता है जिसे इन्सान सदा अनदेखा करता है ।
भोजन की वस्तुओं का प्राकृतिक रूप नष्ट करके उन्हें इच्छानुसार बनाने से होने वाली बिमारियों की जानकारी का ज्ञान होने पर भी उन्हें मनचाहा ग्रहण करना इन्सान का स्वाद के प्रति मोह है जिसे वह अपना जीवन दांव पर लगाकर भी प्राप्त करना चाहता है । इन्सान के अतिरिक्त सभी जीवों द्वारा भूख शांत करने तक भोजन करना निर्धारित होता है परन्तु भोजन की मात्रा का अन्य जीवों की तरह ध्यान ना रखते हुए ठूंस ठूंस कर भक्षण करना तथा उदर पीड़ा सहन करना इन्सान का स्वभाविक कार्य है । भोजन जीवन निर्वाह के लिए आवश्यक है परन्तु भोजन के लिए जीवन निर्वाह करना मूर्खता का कार्य है इसको बहुत से इंसानों ने सत्य प्रमाणित किया है जो भोजन के लिए ही जीवित हैं ।
अप्राकृतिक एंव अत्याधिक मात्रा में भोजन के निरंतर भक्षण करने से शरीर का अधिक वजन बढ़ना शरीर की कार्य क्षमता पर असर कारक होता है जिससे इन्सान की कार्यशैली सुस्त होकर उसकी कार्य सफलता में अवरोध उत्पन्न करती है । भोजन की पोष्टिकता के अतिरिक्त उसकी मात्रा का ध्यान रखना भी अत्यंत आवश्यक है कम भोजन मृत्यु का कारण नहीं बनता अपितु अधिक मात्रा में भोजन भक्षण अवश्य मृत्यु कारक होता है । इन्सान अपने पेट को किसी कचरा पेटी की तरह प्रयोग करता है जिसमें वह जैसा भी एवं जितना भी भोजन ठूंसने को सदैव तत्पर रहता है ।