
इन्सान के जीवन में वैसे तो मुख्य पांच प्रकार के विकार होते हैं (मोह, लोभ, काम, क्रोध, अहंकार) परन्तु इन विकारों से उत्पन्न कई विकार होते हैं जिनमें एक विकार ऐसा होता है जो अधिक बढ़ जाए तो इन्सान का जीवन नर्क समान बन जाता है । इस विकार का नाम (शक ) है शक अर्थात वहम या शंका । शक इन्सान के जीवन का सबसे जटिल विकार है जिसका इलाज या समाधान कोई दूसरा इन्सान कदापि नहीं कर सकता । शक को इन्सान स्वयं ही समाप्त या समाधान कर सकता है । शक खेत की फसल में फैली खर पतवार की तरह होता है जिसे पैदा होने के लिए किसी बीज की आवश्कता नहीं होती ऐसे ही शक का भी कोई कारण होना आवश्यक नहीं होता । जैसे खर पतवार को समाप्त ना किया जाए तो वह सारी फसल में फैलाव करके उसका सर्वनाश कर देती है उसी प्रकार शक को रोका न जाए तो वह विवेक एंव बुद्धि को भ्रष्ट करके इन्सान का जीवन तबाह कर देता है । इसलिए खर पतवार की तरह शक का भी समय पर इलाज करना अति आवश्यक है ।
इन्सान के पांचो विकार संतुलित मात्रा में होना आवश्यक होते हैं जो उसे संसारिक मनुष्य बनाते हैं क्योंकि यदि पांचो विकार समाप्त हो जाएँ तो इन्सान का जीवन के प्रति कोई लगाव नहीं रहता तथा वह वैराग्य को प्राप्त कर साधू बन जाता है । उसी प्रकार शक का भी संतुलित मात्रा में होना आवश्यक है क्योंकि शक अगर जड़ से समाप्त हो जाए तो इन्सान लापरवाह हो जाता है । शक से इन्सान में सावधान रहने की क्षमता पोषित होती है जो जीवन के लिए आवश्यक है । यदि हमे घर से किसी कार्य के लिए कुछ समय के लिए कहीं जाना हो और हम घर को खुला छोड़ कर चल दें तो चोरों की दावत होने में देर नहीं लगेगी । यदि शक के वश हमारे मन में चोरी होने की धारणा बनेगी तो हम द्वार बंद करके उस पर ताला लगा कर जाएँगे जो सावधानी का कार्य है एवं चोरी का खतरा समाप्त हो जाता है जिसे शक का संतुलित रूप कहा जा सकता है । शक की अधिकता में ताला लगा कर जाने पर भी चोरी के खतरे की धारणा मन को कचोटती रहेगी और हमारा कार्य में मन ना लगने के कारण कार्य उचित प्रकार से नहीं हो पाएगा । शक के विकराल रूप में तो इन्सान चोरी के डर से घर से निकलेगा भी नहीं जिससे सभी कार्यों में बाधा उत्पन्न होगी और जीवन की गतिशीलता समाप्त हो जाएगी ।
शक के शून्य प्रतिशत होने पर इन्सान को कोई भी मूर्ख बना कर लूट सकता है क्योंकि सावधानी हटी दुर्घटना घटी वाली कहावत पूर्ण रूप से सटीक होती है । शक के संतुलन से मन में सावधानी की धारणा बढने से आस पास के इंसानों पर ध्यान देने तथा उन्हें परखने की आदत इन्सान को चौकन्ना बनाती है जो सामान्य जीवन के लिए आवश्यक है । परन्तु शक की अधिकता वाले इंसानों को परिवार, रिश्तेदार, मित्र, पड़ोसी व समाज में कोई पसंद नहीं करता तथा शक्की इन्सान से कोई भी सम्बन्ध स्थापित करना नहीं चाहता । शक्की इन्सान किसी भी कार्य को सफलता पूर्वक पूर्ण नहीं कर सकता क्योंकि उसके मन का शक उस कार्य की सफलता की जाँच के लिए बार बार प्रेरित करता है तथा वह कार्य की सफलता से संतुष्ट ना होने के कारण समय बर्बाद करता है ।
शक की अधिकता के कारण किसी इन्सान अथवा कार्य पर शक करके उसके बारे में विभिन्न प्रकार के विचार बनाना तथा अपने शक्की विचारों के कारण मन में गलत धारणा उत्पन्न करना शक्की इन्सान का स्वभाव बन जाता है । सभी इंसानों को आपस में विचार प्रकट करने, हंसी मजाक करने, सुख दुःख बाँटने तथा अपनी समस्याओं पर विचार विमर्श करने का अधिकार होता है । किसी अपने को दूसरे से वार्ता करते या हंसते देखकर उनके प्रति शक करना तथा उन्हें अपने विरुद्ध साजिश करते हुए समझना नादानी है इससे मन को पीड़ा होती है एंव दूसरों के प्रति घर्णा में वृद्धि होती है जिससे क्रोध वश किया गया कोई कार्य दूसरों को तथा स्वयं को कितना नुकसान पहुंचाए इसका अनुमान लगाना सरल कार्य नहीं होता ।
शक्की इन्सान अपने शक में परिवार या बाहर के किसी सदस्य जो भी हो सभी के लिए खतरा होते हैं अत: सावधानी रखना आवश्यक होता है । शक की अधिकता से मुक्ति के लिए पीड़ित को अपने मन को शांत करके अपने विवेक द्वारा सभी तथ्यों पर विचार करके सत्य को समझना आवश्यक है क्योंकि विषय की सत्यता को परखे बिना किसी परिणाम पर पहुंचना व मन में शक को बढ़ावा देना खुद को धोखा देने के समान है । सबसे आसान तरीका विषय से सम्बन्धित इन्सान से वार्तालाप करके सत्यता की जाँच करना है जिससे सारे शक का अंत हो जाता है । संकोचवश मन में कटुता रखने से अच्छा सम्बन्धित इन्सान से स्पष्टीकरण करना संसार का सबसे उचित व उत्तम उपाय है ।