
किसी कार्य या विषय में अवरोध अथवा त्रुटियों से सम्बन्धित इन्सान के प्रति मन में उत्पन्न होने वाला आक्रोश तथा वैस्म्न्य उसके मन की घृणा कहलाती है । घृणा इन्सान के मानसिक तंत्र का वह विकार है जो भावनाओं पर आघात होने अथवा भावनात्मक सम्बन्ध में किसी प्रकार की शंका या त्रुटि होने से उत्पन्न होता है । घृणा उत्पन्न होने का मुख्य आधार बुरा व्यवहार अथवा ऐसा कोई कर्म होता है जिससे जीवन अथवा मस्तिक प्रभावित होता है । यह किसी विषय पर नकारात्मक किर्या के कारण उत्पन्न होकर सम्पूर्ण मानसिक तंत्र को प्रभावित करता है । किसी इन्सान द्वारा अन्य इंसानों के प्रति घृणा करने में आवश्यक नहीं होता कि उनके द्वारा सताए जाने अथवा अत्याचार किए जाने से घृणा उत्पन्न होती है यह किर्या किसी भी प्रकार भावनाओं पर होने वाले प्रहार के कारण उसे प्रभावित करती है । जिस प्रकार जल बहाव के मार्ग में अवरोध उत्पन्न होने से वह विकराल रूप धारण करके तबाही का कारण बन जाता है उसी प्रकार भावनाओं में आक्रोश घृणा का कारण होता है ।
इन्सान में घृणा उत्पन्न होने तथा उसमे वृद्धि होने के अनेकों कारण होते हैं क्योंकि किसी इन्सान की अथवा किसी विषय की जो छवि भावनाओं में चित्रित होती है उसके खंडित होने से आक्रोश तथा वैस्म्न्य उत्पन्न होकर घृणा में परिवर्तित हो जाते हैं । किसी के द्वारा वार्तालाप के समय अपने प्रिय की अप्रश्न्सा अथवा प्रतिद्वंदी या अप्रिय की प्रशंसा भी घृणा में वृद्धि करती है । वर्तमान समय में अधिकांश इन्सान अपने वाक्यों द्वारा घृणा प्रदर्शित करते हैं तथा इन्सान के स्वभाव में घृणा की आश्चर्यजनक रूप से वृद्धि हुई है जिसके कारण समाज में आक्रोश उत्पन्न हो रहा है जो समाज के पतन का कारण बन सकता है इसलिए घृणा पर अधिकार करके उसका समाधान करने के लिए उसके कारणों की समीक्षा करना अत्यंत आवश्यक है ।
इन्सान के स्वभाव में घृणा की वृद्धि के अनेकों अद्भुत कारण होते हैं जैसे किसी की अचानक सफलता तथा अपनी असफलता, अपनी प्रिय वस्तु का अन्य के अधिकार में जाना, अपने प्रिय का अन्य के प्रति आकर्षण अथवा प्रिय द्वारा किसी की प्रशंसा, अन्य का अधिक सशक्त होना वगैरह अनेकों कारण घृणा में वृद्धि करते हैं । अधिकांश इन्सान सत्य से अनभिज्ञ अन्य इंसानों से घृणा करते हैं जिसका कारण किसी का धर्म, जाति अथवा भाषा वगैरह होती है जो सिर्फ नादानी का कार्य होता है । किसी की सफलता उसकी परिस्थिति अनुकूल होने अथवा बुद्धिमानी के कारण होती है तथा उसके द्वारा किया गया परिश्रम एंव उसकी लगन व क्षमता होती है । अपनी प्रिय वस्तु पर अन्य का अधिकार अपनी जागरूकता की त्रुटी को दर्शाता है तथा अपने प्रिय का अन्य के प्रति आकर्षण अपने व्यक्तित्व में त्रुटी प्रस्तुत करता है । प्रिय के मुख से अन्य की प्रशंसा अपनी असफलता के कारण होती है इसलिए अन्य इंसानों से घृणा करने के स्थान पर अपनी त्रुटियों की समीक्षा करके अपना सशक्तिकरण करने की आवश्यकता होती है ।
जो इन्सान किसी के धर्म से घृणा करते हैं वें धर्म की वास्तविकता से अनभिज्ञ होते है । धर्म जीवन निर्वाह की शैली को कहा जाता है तथा इसका जन्म आदिकाल में ही हो गया था क्योंकि इन्सान द्वारा सभ्यता अपनाने के समय समाज तथा धर्म की स्थापना करी गई थी जिसके नियम निर्धारित किए गए थे । समय व्यतीत होने के साथ धर्म के नियमों में आवश्यक परिवर्तन ना होना से समाज विभाजित होकर अपने नियमों का धर्म स्थापित कर लेता था जैसे जैन व बौध धर्म की स्थापना हुई तथा उन्होंने हिंसा, असत्य. चोरी, जमाखोरी तथा नशा करने पर प्रतिबंध लगा दिया । मूर्ति पूजा के विरोध में आर्य समाज की स्थापना हुई तथा सती प्रथा के विरोध में इस्लाम धर्म की स्थापना हो गई । नए धर्म प्राचीन धर्म का शुद्धिकरण होते हैं जो आवश्यक नियम निर्धारित करके जीवन शैली में परिवर्तन करने के लिए होते हैं । संसार का सबसे महान धर्म मानवता है तथा किसी भी इन्सान से धर्म के नाम पर घृणा करना इंसानियत से शत्रुता है ।
किसी इन्सान की जाति से घृणा करने से पूर्व उसकी वास्तविकता को ज्ञात करना परम आवश्यक है क्योंकि जाति प्रकृति द्वारा निर्मित नहीं है जाति का निर्माण इन्सान द्वारा आवश्यकता के कारण हुआ था जो रूढ़िवादिता के कारण अभिशाप बनकर रह गया है । आदिकाल में सभ्यता तथा समाज स्थापना के समय ही आवश्यक वस्तुओं के निर्माण करने के कार्य विभाजित करके कार्यकर्ता को कार्य अनुसार नाम निर्धारित किए गए जिसे जाति का नाम दिया गया । लोहे का कार्य करने वाला लुहार, बुनकर को जुलाहा, खेतिहर को किसान, रक्षक को राजपूत तथा शिक्षक को ब्राह्मण वगैरह नाम निर्धारित थे परन्तु लाभ के कार्य के आकर्षण में फंसकर अपना कार्य त्याग देने से समाजिक कार्यों में विघ्न उत्पन्न होता था जिसका निवारण उत्तर वैदिक काल में समाज द्वारा कार्य विभाजित करके उसे पैत्रिक कर दिया गया अर्थात लुहार का पुत्र सदैव लोहे का कार्य ही करेगा जिससे समाज निर्विध्न विकास कर सके । वर्तमान में कार्यों तथा इन्सान की अधिकता है एंव कोई भी इन्सान किसी भी प्रकार का कार्य करने के लिए स्वतंत्र है तथा कर रहा है परन्तु उत्तर वैदिक काल से थोपी गई जाति वर्तमान में भी चिपक कर रह गई है जो वर्तमान का अभिशाप है । रक्षक कहलाने वाला लुटेरा होने पर भी राजपूत कहलाता है, लुहार दूध का व्यापार करने पर भी लुहार है, ब्राह्मण पुत्र मूर्ख होने पर भी पंडित के पद पर आसीन है । जिस जाति प्रथा को समाप्त होना चाहिए अथवा उसका संशोधन होना चाहिए वह समाज में घृणा उत्पन्न करने का कार्य कर रही है ।
भाषा इन्सान द्वारा विचार व्यक्त करने की शैली मात्र है जिस पर टिप्पणी करना अथवा उससे घृणा करना नादानी का कार्य है क्योंकि जिस शैली का हम प्रयोग करते है उसका निर्माण भी अन्य इंसानों द्वारा हुआ है इसलिए किसी भी भाषा से घृणा करने अथवा उसपर कटाक्ष करने का अधिकार किसी को नहीं होता । कोई इन्सान अपने विचार किसी भी शैली में व्यक्त करे उसके विचारों से प्रेम अथवा घृणा करना उचित होता है । भावनाओं पर प्रहार अथवा कामना पूर्ति में विध्न होने से घृणा का दामन थामने से उचित अपनी त्रुटियों को ज्ञात करके समाधान करना है जिससे जीवन संवरता है । अधिक घृणा से आत्मबल क्षीण होता है तथा व्यहवार में कटुता उत्पन्न होती है एंव इन्सान अपशब्दों का उपयोग करने लगता है जिससे उसका समाजिक पतन हो जाता है ।
घृणा सदैव घृणित कर्मों से करनी चाहिए जैसे लूट, चोरी, भ्रष्टाचार, जुआ, बलात्कार, अपहरण, नशा, हत्या वगैरह तथा अन्य इंसानों से घृणा करने से पूर्व अपने अंत:करण में देखना अत्यंत आवश्यक होता है कि अंत:करण कितना साफ़, सभ्य, सभ्रांत है जिससे वास्तविकता का ज्ञान होता है । वार्तालाप के समय किसी भी प्रकार के अपशब्दों का उपयोग समाज में घृणा की वृद्धि करता है जिसके कारण किसी के मन पर होने वाला आघात घृणा उत्पन्न करता है एवं शत्रुता उत्पन्न करता है इसलिए वार्तालाप के समय अपने शब्दों पर नियन्त्रण रखना भी आवश्यक है ताकि किसी की भावनाओं को आघात न पहुंचे ।