कुछ शब्दों अथवा मंत्रों के निरंतर उच्चारण करने को जाप कहा जाता है तथा जाप मुख्यता इन्सान मंत्रों का करता है । जाप करने की अपनी विशेष शैली निर्धारित होती है जिसके द्वारा मंत्रों का उच्चारण किया जाता है । साधारण तरीके से किये गए जाप सिर्फ इन्सान का समय बर्बाद करने के कुछ प्राप्ति नहीं दे सकते । आमतोर पर इन्सान मंत्रों का जाप कहीं खड़े होकर या चलते चलते या किसी भी स्थान पर व किसी भी मुद्रा में बैठकर करते हैं तथा प्रभाव न होने पर मंत्रों को दोष देते हैं । उचित मंत्रों का निर्णय प्रभाव के लिए आवश्यक होता है परन्तु मंत्र उचित होने पर भी जाप करने की विधि गलत होने पर मंत्र अपना कोई प्रभाव प्रदर्शित नहीं कर सकते । जाप करने की अपनी एक वैज्ञानिक विधि है जिसका प्रभाव इन्सान पर शत प्रतिशत सफल होता है ।
इन्सान अपना भोजन कई प्रकार से खाता है जिसमे सबसे बेहतर तरीका पृथ्वी पर आसन बिछाकर विराजमान होना तथा पेट पर ढीले वस्त्रों का होना एवं चबा चबा कर आराम से भोजन खाना है । यह विधि सबसे बेहतरीन होती है क्योंकि पालथी मारकर बैठने से पेट की सभी ग्रन्थियां स्वतंत्र होकर भोजन पचाने में सहायता करती हैं तथा चबाकर खाया हुआ भोजन वैसे भी शीघ्र पच जाता है जिससे इन्सान की पाचन शक्ति सुदृढ़ रहती है तथा भोजन अपना पूरा पोषण प्रदान करता है । कुर्सी पर बैठकर भोजन खाने पर पेट थोडा लटका रहता है परन्तु जो इन्सान खड़े होकर तथा घूमते घूमते हाथ में प्लेट थामे शीघ्रता पूर्वक खाते रहते हैं तो उनकी ग्रन्थियां खिंची रहती हैं एवं वो भोजन इन्सान के स्वास्थ के लिए हानिकारक हो जाता है जो पाचन तंत्र को खराब करके शरीर को हानि प्रदान करता है । ऐसे भोजन करने वालों की पेट दर्द की शिकायत आम बात है इस विधि को भोजन खाने के स्थान पर भोजन ठूंसना कहना बेहतर होगा ।
जिस प्रकार भोजन खाने की उचित विधि आवश्यक होती है उसी प्रकार मंत्र जाप करने की विधि भी उचित प्रकार से उपयोग करने पर ही सफलता प्राप्त होती है । जाप करने के लिए सबसे महत्वपूर्ण स्थान का साफ़ सुथरा होना तथा शांतिपूर्ण होना आवश्यक होता है क्योंकि किसी भी प्रकार की ध्वनी या बदबू जाप करते समय तंद्रा भंग कर सकती है जिससे जाप अधूरा रह जाता है । उचित स्थान प्राप्त होने पर पृथ्वी पर आसन बिछाकर उसपर विराजमान होकर तथा पेट पर वस्त्र ढीले करके पालथी मारकर बैठना चाहिए जिससे नाभि पूर्ण स्वतंत्र हो सके तथा कमर खम्बे की तरह सीधी हो किसी पहिए की तरह गोलाई में झुकी ना हो जिससे पेट पर अतिरिक्त दबाव न आए । जाप करने के लिए बैठने की सबसे आवश्यक एवं बेहतर यही विधि होती है ।
ध्यान मुद्रा में बैठकर सर्व प्रथम मंत्र उच्चारण से पूर्व ऊँ शब्द का उच्चारण करते हुए ध्वनी को गले के स्थान पर नाभि के कम्पन्न द्वारा उत्पन्न करना आवश्यक है जिसके दो महत्वपूर्ण कारण हैं । पहला कारण है कि इन्सान की नाभि उसके शरीर की वितरक है जो शरीर की वितरण प्रणाली को संचालित करती है जैसे गर्भ में शिशु नाभि द्वारा ही अपनी माँ के शरीर से रक्त प्राप्त करके समस्त शरीरिक प्रणाली में प्रवाहित करके पोषण प्राप्त करता है । जाप करते हुए नाभि में होने वाले कम्पन्न से शरीर व मस्तिक की सभी तंत्रिकाएँ सक्रिय होकर मंत्रों से प्राप्त होने वाली उर्जा को संचित करती है । दूसरा कारण है कि ऊँ शब्द एकमात्र ऐसा शब्द है जिसके उच्चारण से नाभि में सबसे तीव्र कम्पन्न उत्पन्न होता है जो शरीर की सभी कोशिकाओं एंव तंत्रिकाओं को सक्रिय कर देता है । इसलिए प्रत्येक मंत्र ऊँ शब्द से ही आरम्भ होता है ।
जब नाभि में कम्पन्न के साथ ध्वनी उत्पन्न होने लगे तभी सम्पूर्ण मंत्र का उच्चारण करना चाहिए । मंत्रों के शब्दों का उच्चारण करने पर नाभि के कम्पन्न में उतार चढ़ाव आता रहता है परन्तु कम्पन्न समाप्त नहीं होता तथा नाभि का कम्पन्न उर्जा संचित करके सभी तंत्रिकाओं द्वारा शरीर व मस्तिक में उर्जा की वृद्धि करता है । यदि बेहतर विधि से मंत्र जाप किया जाए तो जाप का प्रभाव इन्सान की मानसिकता में उर्जा की वृद्धि करके उसकी सोच बदलने की शक्ति रखता है जिससे इन्सान समर्ध सोच व मानसिकता के बल पर जीवन में सफलता प्राप्त करता है । जाप अकेले किया जाए या हवन वगैरह करते हुए सामूहिक तोर पर विधि यही होती है तथा ध्यान भटकते हुए मंत्र रटना या ताक झांक करते हुए मंत्र रटना जाप करना नहीं होता बल्कि मंत्रों का कचूमर निकलना होता है ।