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कर्तव्य

April 18, 2017 By प्रस्तुत करता - पवन कुमार Leave a Comment

समाज द्वारा बनाए गए नियम जो इंसानी जीवन के लिए निर्धारित एवं निश्चित किए गए हैं तथा जिनका पालन करना अनिवार्य होता है वह कर्तव्य कहलाते हैं । इन्सान के जन्म से लेकर मृत्यु तक अनेकों प्रकार के कर्तव्य निर्धारित होते हैं तथा इन्सान को परिवार, समाज, गृहस्थी, रिश्तों, धर्म, देश, प्राकृति एवं संसार के प्रति कर्तव्यों का पालन करना निश्चित किया गया है । कर्तव्य मुख्य तीन प्रकार के निर्धारित किए गए हैं प्रथम = पैत्रिक कर्तव्य, द्वितीय = स्वेच्छिक कर्तव्य, तृतीया = सामाजिक कर्तव्य । इन कर्तव्यों के पालन में जिस प्रकार के अंतर होते हैं उसी प्रकार से कर्तव्य ना निभाने वाले को दंड अथवा तिरस्कार का अंजाम भुगतना पड़ता है ।

इन्सान को जन्म के समय से अपने परिवार के प्रति अनेक कर्तव्य होते हैं जो उसे विरासत में प्राप्त होते हैं । माँ-बाप के आदेशों का पालन करना तथा उनकी सेवा करना । भाई- बहनों एवं बाकि परिवार के साथ ताल-मेल बनाए रखना तथा उनके प्रत्येक सुख-दुःख में सहायक की भूमिका बनाए रखना । परिवार से सम्बन्धित रिश्तों का आदर करना एवं उन रिश्तों के प्रति जिम्मेदारी निभाना । समाज में परिवार का सम्मान बनाए रखना तथा परिवार के सम्मान में वृद्धि करने का प्रयास करना आदि । यह कर्तव्य जन्म के समय से परिवार द्वारा विरासत में प्राप्त होते हैं इसलिए यह पैत्रिक कर्तव्य कहलाते हैं । जीवन जीने की शैली के नियमों को धर्म कहा जाता है तथा पैत्रिक कर्तव्य जन्म देने वालों एवं परवरिश, सुरक्षा एवं सक्षम बनाने वालों के प्रति होते हैं इसलिए यह धर्म की श्रेणी में आते हैं । पैत्रिक कर्तव्यों का पालन ना करने वाले को परिवार का तिरस्कार अवश्य सहन करना पड़ता है परन्तु इसके लिए समाज या कानून द्वारा किसी प्रकार की सजा का प्रावधान नहीं है । पैत्रिक कर्तव्यों से विमुख इन्सान को अधर्मी समझा जाता है अर्थात यह अपने धर्म का पालन करने से विमुख रहा है ।

इन्सान गृहस्थ जीवन स्वेच्छा से अपनाता है जिसमें सर्वप्रथम पति-पत्नी का आपस में एक दूसरे के प्रति सम्पूर्ण जीवन साथ निभाने तथा अपनी गृहस्थी को सुचारू रूप से चलाने का कर्तव्य होता है । गृहस्थी इन्सान के लिए कर्म स्थली है क्योंकि इन्सान अपने कर्मों के द्वारा ही गृहस्थ जीवन जीवन निर्वाह करता है इसलिए उसके कर्तव्य भी अधिक हो जाते हैं । इन्सान सन्तान उत्पन्न करता है तो उनकी परवरिश, सुरक्षा एवं उन्हें सामर्थ्यवान बनाना परम कर्तव्य होता है । स्वेच्छिक कर्तव्य इन्सान अपनी इच्छा से निर्धारित करता है जिन्हें वह कम या अधिक कर सकता है । कम सन्तान कम कर्तव्य एवं अधिक सन्तान के साथ कर्म तथा कर्तव्य में भी वृद्धि हो जाती है । गृहस्थी एवं सन्तान की उत्पत्ति इन्सान स्वेच्छा से करता है इसलिए यह स्वेच्छि कर्तव्य होते हैं । गृहस्थी बसाने के लिए इन्सान को धर्म, समाज एवं कानून के नियमों का पालन करना पड़ता है इसलिए गृहस्थी के कर्तव्य पूर्ण ना करने पर वह धर्म, समाज एवं कानून का गुनाहगार बन जाता है । गृहस्थी के कर्तव्य कर्मों से सम्बन्धित होते हैं इसलिए इनका पालन ना करने वाले को कर्महीन अर्थात कर्मों से भागने वाले की श्रेणी में रखा जाता है ।

इन्सान सामाजिक प्राणी है कोई भी इन्सान अन्य जीवों की तरह अकेले अपने बल पर जीवन निर्वाह नहीं कर सकता क्योंकि भोजन वस्त्र से लेकर अन्य सभी आवश्यकताएँ पूर्ति के लिए समाज का सहारा लेना ही पड़ता है । जीवन निर्वाह के लिए जो भी कर्म इन्सान करता है जैसे व्यापार अथवा नौकरी सभी के लिए समाज अनिवार्य है । समाज में रहने के लिए समाज के नियम पालन करना भी आवश्यक होते हैं । समाज द्वारा सभी इंसानों के लिए नियम निर्धारित हैं । समाज में सर्वप्रथम कर्तव्य अनुशासन व शांति बनाए रखना है । इन्सान का अन्य जीवों, प्राकृति एवं देश के लिए भी कर्तव्य निर्धारित हैं । जो कर्तव्य समाज द्वारा निर्धारित होते हैं उन्हें सामाजिक कर्तव्य कहा जाता है । समाज के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन ना करने वाले इन्सान को समाज द्वारा असामाजिक माना जाता है तथा उसका समाज में किसी प्रकार का सम्मान नहीं होता ।

जो इन्सान अपने सभी कर्तव्यों का पूर्ण निष्ठा से पालन करता है परिवार एवं समाज में सम्मानित दृष्टि से देखा जाता है तथा समाज उसके लिए सदैव सहायक होता है । जो इन्सान कर्तव्य पालन करने में अक्षम होते हैं उन्हें समाज से मात्र सहानभूति ही प्राप्त होती है । जो इन्सान सक्षम होते हुए भी कर्तव्य पालन नहीं करते उन्हें परिवार एवं समाज में घ्रणित दृष्टि से देखा जाता है तथा किसी प्रकार की  होने पर कोई सहायता प्रप्त नहीं होती । कर्तव्यों के प्रति पूर्ण निष्ठा से पालन करने का प्रयास करना तथा उन्हें पूर्ण करने वाला इन्सान ईमानदार कहलाता है । कर्तव्यों से बचने का प्रयास अथवा विमुख होना इन्सान को बेईमान की श्रेणी में पहुँचा देता है । समाज में अपनी पहचान एवं सम्मान बनाए रखने का साधन भी कर्तव्य परायणता ही होती है ।

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जीवन सत्यार्थ

इंसान के जीवन में जन्म से मृत्यु तक के सफर में तृष्णा, कामना तथा बाधाएं उत्पन्न होकर मानसिकता में असंतोष तथा भटकाव की स्थिति उत्पन्न कर देते हैं जिससे जीवन कष्टदायक व असंतुलित निर्वाह होता है। जीवन सत्यार्थ ऐसा प्रयास है जिसके द्वारा सत्य की परख करके कष्टकारी मानसिकता से मुक्ति पाकर जीवन संतुलित बनाया जा सकता है। पढने के साथ समझना भी आवश्यक है क्योंकि पढने में कुछ समय लगता है मगर समझने में सम्पूर्ण जीवन भी कम हो सकता है और समझने से सफलता प्राप्त होती है।

प्रस्तुत कर्ता - पवन कुमार

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