
जिस प्रकार किसी मशीनी उपकरण के कार्य करते समय कोई खराबी उसके कार्य को प्रभावित करती है जैसे कम्प्यूटर में वायरस का होना उसी प्रकार इन्सान की सोच में आई खराबी जो उसे गलत सोचने एंव त्रुटियाँ करने पर मजबूर करती है उसे विकार कहा जाता है । इन्सान का मानसिक तन्त्र अनेक विकारों से भरा पड़ा है जिसके कारण यह संसार नर्क समान हो गया है जिससे संसार में हत्या, अपहरण, लूट, बलात्कार, चोरी जैसे जघन्य अपराध उत्पन्न हो गए हैं । वैसे तो विकार अनेक प्रकार के हैं परन्तु अनेक विकारों में मुख्य पांच प्रकार के विकार होते हैं मोह, लोभ, काम, क्रोध, अहंकार । इन पांच विकारों से ही बाकि सभी प्रकार के विकारों का प्रभाव मस्तिक पर होता है जो इन विकारों की देन है । पांचो विकारों में भी जन्म के पश्चात इन्सान में उत्पन्न होने वाला सबसे पहला विकार मोह है बाकि सभी विकार मोह के पश्चात उत्पन्न होते हैं अर्थात कहा जाए तो सभी विकार मोह के कारण ही उत्पन्न होते हैं । मोह सभी विकारों की जड़ है ।
मोह इन्सान के जीवन की स्वभाविक प्रक्रिया है परन्तु इसका असंतुलित होना अत्यंत हानिकारक होता है संतुलन में होने से अधिक प्रभाव नहीं होता । मोह ऐसा विकार है जिसकी अधिकता इन्सान के जीवन को संघर्ष पूर्ण एंव कष्टकारी बनाती है अर्थत जितना अधिक मोह होगा उतना अधिक कष्टदायक जीवन हो जाता है क्योंकि मोह के मद में इन्सान का विवेक कार्य नहीं करता और वह अपने मन एवं भावनाओं का गुलाम बन कर रह जाता है । जन्म के बाद सर्वप्रथम परिवार के सदस्यों के प्रति मोह उत्पन्न होता है तथा भोजन की वस्तुओं के मोह का आगमन भी होने लगता है फिर खेलों के सामान का मोह भी आरम्भ हो जाता है ।
जिनमे खाने या खेलने के प्रति अधिक मोह होता है उनकी शिक्षा को ग्रहण लग जाता है क्योंकि खाने या खेलने में फंसा मन शिक्षा की तरफ ध्यान देने से मना करता है , खाने का मोह शरीर में वसा की मात्रा बढ़ा कर शरीर को आलसी बना देता है जिसके कारण शिक्षा प्राप्ति में बाधा उत्पन्न हो जाती है । जो खेलों के मोह में फंस जाते हैं उनकी बुद्धि और शरीर की थकावट के कारण वे शिक्षा से दूर हो जाते हैं । खाने और खेलों के मोह वाले इन्सान शिक्षा को बोझ समझकर उसे प्राप्त तो कर लेते हैं परन्तु अपने विषयों में विशेषता प्राप्त करना उनके वश का कार्य नहीं होता । परिवार के सदस्यों का मोह होना स्वभाविक है परन्तु मोह की अधिकता होने पर परिवार के दूसरे सदस्य उसका लाभ प्राप्त कर उसे इस्तेमाल करते हैं तथा कभी कभी तो उसके सभी हक एंव विरासत को हडप जाते हैं ।
इन्सान किसी बाहरी इन्सान के मोह में फंस जाए तो उसके दो प्रकार होते हैं कोई मित्र बन कर मोहित करता है तथा कोई शरीरिक आकर्षण अर्थात भिन्न लिंगी के चक्रव्यूह में फंस जाता है । मित्रता कोई बुरा विषय नहीं है क्योंकि जीवन में यदि सच्चा मित्र प्राप्त हो जाए तो जीवन व्यतीत करने में सरलता हो जाती है यदि कोई बुरा इन्सान मित्र के रूप में प्राप्त हो जाए तो वह कोई भयंकर नुकसान कर सकता है । मित्र का मोह संतुलित होगा तो वह अच्छा या बुरा हो अधिक नुकसान नहीं कर सकता परन्तु मोह की अधिकता में बुरा मित्र धन, इज्जत व जीवन तक कुछ भी लूट सकता है ।
शरीरिक आकर्षण का दुष्परिणाम तो अधिक भयंकर होता है क्योंकि काम वासना की कामाग्नि इन्सान की बुद्धि और विवेक को खा जाती है तथा रह जाता है सिर्फ मन जो अपने प्रिय के मोह में जान देने को तैयार रहता है । शरीरिक आकर्षण में फंसा इन्सान अपने जीवन का कोई भी गलत से गलत फैसला ले सकता है इसलिए इन्सान को किसी के मोह में फंसकर अपने विवेक और बुद्धि का प्रयोग करना नहीं छोड़ना चाहिए । मोह के अनेक रूप हैं जैसे धन का मोह, किसी भौतिक वस्तु का मोह, किसी वाहन का मोह, किसी जानवर का मोह वगैरह कोई भी मोह हो जीवन में दुःख अवश्य देगा क्योंकि संसार की प्रत्येक वस्तु व जीव सभी का समाप्त होना तय है । जिस से मोह हो जाए उसका विछोह इन्सान के दुखों का कारण बनता है ।
मोह से इन्सान के मन में भय उत्पन्न होता है क्योंकि जिससे मोह हो जाए उसके साथ किसी दुर्घटना की आशंका इन्सान को भयभीत करती है । यदि किसी इन्सान से मोह की अधिकता हो तो उसके द्वारा की गई गलतियों को नजर अंदाज करके स्वयं को मुसीबत में फंसाना यह इंसानी आदत है क्योंकि गलती करने पर समझाया न जाए या दंड न दिया जाए तो गलती करने की आदत में वृद्धि हो जाती है जिसका दुष्परिणाम अपराधिकता को बढ़ावा देना है तथा अपराधी का मोह मुसीबत का कारण ही बनता है । जीवन में मोह को समाप्त नहीं किया जा सकता परन्तु समझदार इन्सान मोह होने पर भी सदा अपने विवेक द्वारा ही सभी प्रकार के फैसले लेते है जिसके कारण मोह उनके जीवन का कलंक नहीं बनता ।