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chinta – चिंता | चिंता मुक्त होने के समाधान क्या है ?

July 22, 2019 By प्रस्तुत करता - पवन कुमार Leave a Comment

इन्सान जब गम्भीरता पूर्वक किसी विषय के प्रति अति संवेदनशील होकर उसकी परिस्थिति को समझने एवं उसका समाधान करने का गहन प्रयास करता है तो वह उसकी उस विषय के प्रति चिंता (chinta) कहलाती है | चिंता (chinta) इन्सान के जीवन का अद्भुत विषय है | चिंता (chinta) करना भी अनुचित है और चिंता ना करना भी अनुचित है | क्योंकि चिंता ना करो तो सभी कहते हैं | इसे किसी काम की चिंता (worry) ही नहीं है अर्थात यह लापरवाह है और चिंता (care) करो तो कहते हैं अरे चिंता (worry) मत करो हम आपके साथ हैं अर्थात आप दुःख मत करो क्यों है ना अद्भुत विषय |

चिंता पर सुविचार

chinta ke types – चिंता के प्रकार :

  • चिंता (chinta) वास्तव में दो प्रकार की होती है | अर्थात चिंता (chinta) करने के दो मुख्य आधार हैं |
  • एक फिक्र (chinta) वह है जो इन्सान कर्म करने से पूर्व करता है | यह चिंता (worry) कार्य के प्रति इन्सान की संवेदना है कि यह कार्य कैसे समाप्त होगा इसलिए यह इन्सान को कार्य के प्रति जागरूक करती है |
  • दूसरी चिंता (chinta) वह है जो कर्म करने के पश्चात स्वयं उत्पन्न हो जाती है यह चिंता कार्य के परिणाम के प्रति होती है कि किए गए कार्य का परिणाम क्या होगा इसलिए यह इन्सान को तनावग्रस्त करती है |
  • कार्य के प्रति जागरूक होना उत्तम है इसलिए कार्य से पूर्व करी गई चिंता (chinta) आवश्यक होती है परन्तु परिणाम के लिए तनावग्रस्त होना अनुचित है | इसलिए कार्य के पश्चात करी गई चिंता अनावश्यक होती है |

कर्म करने से पूर्व चिंता (chinta) करना वास्तव में विषय की परिस्थिति को समझने एवं उसका समाधान करने के प्रयास का अंश है | यह इन्सान को भविष्य के प्रति जागरूक एवं सावधान करने का कार्य करती है इसलिए वह अच्छी एवं लाभदायक चिंता होती है ताकि कर्म का परिणाम उत्तम आए | जो चिंता कर्म करने के पश्चात स्वयं उत्पन्न होती है वह कर्म के परिणाम का भय होता है | यह इन्सान को भयभीत करने एवं तनावग्रस्त करने का कार्य करती है इसलिए वह बुरी एवं हानिकारक चिंता होती है क्योंकि कर्म को बदला नहीं जा सकता इसलिए अब जो भी परिणाम आएगा भुगतना ही पड़ेगा | अच्छी चिंता (chinta) इन्सान को सावधान करती है तो बुरी चिंता मानसिक पीड़ा उत्पन्न करती है |

इन्सान जब लाभ, उन्नति, कामयाबी या वर्तमान समस्याओं के विषय में chinta करके परिणाम के प्रति समाधान एवं जागरूक होकर कर्म करता है तो परिणाम भी श्रेष्ठ आते हैं | जिसके कारण उसे कर्म के पश्चात chinta करने की आवश्यकता नहीं रहती यदि इन्सान chinta रहित होकर कर्म करे तो परिणाम गलत हो सकते हैं तब उसे बुरी चिंताओं से जूझने की आवश्यकता पडती है | इन्सान जब असावधान होकर कर्म करके अपनी गलतियां, भूल, अपराध या करी गई हानि के विषय में सोचता है तब परिणाम की चिंता उसे भयभीत करके तनावग्रस्त कर देती है | यह ऐसी बुरी चिंता है जब तक उससे छुटकारा ना प्राप्त हो जाए इन्सान भयंकर मानसिक पीड़ा से गुजरता है |

चिंता मुक्त होने के समाधान क्या है ?

जीवन में व्यर्थ की चिंताओं से मुक्त रहने के लिए चिंताओं का कारण ज्ञात करना तथा उनका उचित समाधान करना आवश्यक है | यह भी दो प्रकार से ही संभव होता है एक समस्या से पूर्व चिंता करके समस्या के परिणाम की चिंता से मुक्त होना दूसरे समस्या के बाद चिंताग्रस्त होकर समाधान तलाश  करना | दोनों तरीकों में पहला समाधान श्रेष्ठ है क्योंकि इससे समस्या से पूर्व चिंता करके परिणाम की chinta से मुक्त होना है क्योंकि दूसरे उपाय में इन्सान समस्या से ग्रस्त होकर चिंता ग्रस्त हो ही जाता है इसलिए उसे मजबूरन समाधान तलाश करना ही होता है यदि समाधान पहले किया जाए तो समस्या से जूझना ही नहीं पड़ता तथा समाज भी किसी समस्याग्रस्त, पीड़ित या मजबूर की सहायता करने से भागता है |

जब किसी भी कार्य को करने से पूर्व उसके अंतिम परिणाम का अनुमान लगा लिया जाए तो कार्य करने की रुपरेखा ही बदल जाती  है | अंतिम परिणाम की समीक्षा करने से कार्य करने में गलतियों के प्रति सावधानी एवं बुरे या गलत कार्य के प्रति भय उत्पन्न हो जाता है | अच्छे कार्य के प्रति उत्साह एवं जागरूकता उत्पन्न होती है | इस विषय में प्रमाण हैं जैसे मृत्यु का भय इन्सान को बुरे कर्म करने से रोकता है | जब इन्सान किसी के जनाजे या श्मशान यात्रा में शामिल होता है और अंतिम संस्कार होते हुए देखता है तब वह बुरे कर्मों के प्रति घृणा करता है क्योंकि चिता की अग्नि उसकी मानसिकता को शुद्ध बना देती है | ऐसी भावना मन्दिर या ईश्वर की आराधना करते हुए भी उत्पन्न नहीं होती क्योंकि जीवन का अंतिम परिणाम मन्दिर में नहीं श्मशान में मिलता है |

जो विद्यार्थी सम्पूर्ण वर्ष फेल को याद रखता है वह पढाई के प्रति जागरूक होकर शिक्षा ग्रहण करता है | यह सावधानी फेल होने के भय से उत्पन्न होती है क्योंकि उसे अपने आलस्य का अंतिम परिणाम फेल होने के रूप में स्पष्ट दिखाई देता है इसलिए वह पढाई के प्रति जागरूक हो जाता है | यह स्थिति स्पष्ट प्रमाणित करती है कि कार्य करने से पूर्व अंतिम परिणाम की समीक्षा करके उसे याद रखने से इन्सान कर्म करने के पश्चात होने वाले परिणामों की फिक्र(chinta) से मुक्त हो सकता है क्योंकि अंतिम परिणाम की समीक्षा उसके कर्मों को सुधार देती है | अंतिम परिणाम यदि लाभदायक दिखाई दे तो इन्सान उत्साहित होकर कर्म करता है अर्थात अंतिम परिणाम से उत्साह भी उत्पन्न होता है |

अपने कार्यों के अतिरिक्त अन्य चिंताएं वह होती हैं | जो अपनों के प्रति अथवा अपने भविष्य के प्रति होती है | परिवार का सदस्य घर वापस कब आएगा , यह कार्य कब निपटेगा, हमारा अपना घर कब बनेगा, सन्तान का विवाह कब होगा, सन्तान को नौकरी कब मिलेगी वगैरह | इन्सान को ऐसी चिंताएं होना स्वभाविक हैं परन्तु इस प्रकार की चिंताएं सिर्फ इन्सान को चिंतित करती हैं एवं बैचेनी उत्पन्न करती हैं परन्तु उसे मानसिक पीड़ा नहीं देती क्योंकि इनमें इन्सान का अपना कर्म शामिल नहीं होता | चिंताओं से मुक्त रहने का यह सर्वोतम उपाय है कि कार्य करने से पूर्व कार्य के अंतिम परिणाम की फिक्र(chinta) करने से कार्य के पश्चात उसके परिणाम से होने वाली बुरी चिंता से मुक्ति मिल जाती है | जब कार्य  ही उचित एवं उत्तम होंगे तो फिक्र(chinta) या भय करने की आवश्यकता ही नहीं पडती क्योंकि उचित एवं उत्तम कार्यों के परिणाम भी उचित एवं उत्तम हो मिलते हैं |

तपस्या

August 2, 2014 By Amit 2 Comments

किसी मनोहर, शांत, स्वच्छ वातावरण में एकाग्रचित विराजमान होकर तथा संसार के सभी कार्यों तथा समय व्यतीत होने की चिंता से मुक्त होकर बुद्धि द्वारा प्राप्त जानकारियों को एकत्रित करके विवेक द्वारा मंथन द्वारा ज्ञान प्राप्त करने के प्रयास को तपस्या कहा जाता है । तपस्या पद्धति के द्वारा ही ज्ञान की प्राप्ति सरलता पूर्वक संभव हो पाती है परन्तु उसके लिए कुछ महत्वपूर्ण तथ्यों का ध्यान रखना आवश्यक होता है । सर्व प्रथम तपस्या के लिए मन पर नियन्त्रण एवं एकाग्रता होना परम आवश्यक है क्योंकि मन की चंचलता तपस्या को प्रभावित करती है जिससे तपस्या में विघ्न उत्पन्न होता है । मन को कल्पनाओं तथा भावनाओं में बहने से रोकना अर्थात मन को भटकने से रोकने पर ही ध्यान लगाना संभव होता है जो तपस्या करने में सबसे अधिक आवश्यक कार्य होता है क्योंकि मन सदैव इन्सान को पथ भ्रष्ट करता है ।

मन की एकाग्रता के पश्चात दृढ इच्छा शक्ति का होना भी परम आवश्यक है क्योंकि इच्छा शक्ति कमजोर होने से भी तपस्या में विघ्न उत्पन्न होता है । तपस्या में लीन होने पर समय व्यतीत होते होते शरीर शिथिल तथा आलस्य पूर्ण हो जाता है जिससे इच्छा शक्ति कमजोर होने पर इन्सान तपस्या का दामन त्याग कर आराम करने का विचार करते ही उसकी तंद्रा भंग होकर ध्यान बधित हो जाता है जिससे तपस्या करना कठिन होता है । बुद्धि की जानकारियों का अभाव  भी तपस्या को प्रभावित करता है क्योंकि अधूरी जानकारी सम्पूर्ण ज्ञान जुटाने में सक्षम नहीं होती । सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्ति के लिए उस विषय की सम्पूर्ण जानकारी उपलब्ध होना भी आवश्यक है । तपस्या करने में भोजन के पदार्थ और मात्रा का ध्यान रखना भी आवश्यक है क्योंकि कम मात्रा से भूख परेशान करती है तथा अधिक मात्रा से आलस्य प्रभावित करता है । हल्के पदार्थ शीघ्र पचते हैं जिससे आलस्य भी कम आता है जितने समय प्रतिदिन तपस्या करनी हो उसके हिसाब से भोजन करना उचित रहता है ।

तपस्या इन्सान ज्ञान प्राप्ति के अतिरिक्त सृष्टि के रहस्यों की जानकारी के लिए भी करता है जिसमे वह संसार के निर्माण कार्यों और निर्माता के रहस्य खोजना चाहता है । जो इन्सान ज्ञान प्राप्त करके संसार के निर्माण में अपना सहयोग प्रदान करते रहे हैं वें सभी निर्माता के रूप में संसार को आदिकाल से आधुनिक वर्तमान काल तक लाने वाले आविष्कारक महापुरुष कहलाए । ऐसे महापुरुषों के प्रयासों से ही इन्सान वर्तमान में इतने प्रकार की सुख सुविधाएँ जुटा पाया है । वायु, जल, उर्जा व जीवन के अतिरिक्त संसार की प्रत्येक वस्तु इन्सान द्वारा निर्मित है जिसे इन्सान ने कठोर तपस्या से ज्ञान प्राप्त करके प्राप्त किया जिससे संसार प्रगति की ओर अग्रसर है ।

ज्ञान धार्मिक हो या भौतिक आविष्कारक ज्ञान को तपस्या पद्धति के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है क्योंकि विवेक मंथन और एकाग्रता रहित कोई भी पद्धति ज्ञान प्राप्ति में सक्षम नहीं होती इसलिए तपस्या करके ज्ञान प्राप्त करना इन्सान का उचित निर्णय होता है । ईश्वर या परमात्मा कही जाने वाली शक्ति की प्राप्ति या उसमे लीन होने के लिए तपस्या करने से पहले उसकी सत्यता का ज्ञान प्राप्त करना भी आवश्यक है । परमात्मा अर्थात परम + आत्मा का अर्थ है कि परम अर्थात जिससे अधिक या विशाल व महान कोई न हो आत्मा अर्थात जीवन = वह महानतम जीवन या जीव आत्मा जो संसार में महानतम स्थान रखती हो या महानतम कार्य करती हो । परमात्मा के सानिध्य से परम सुख की अनुभूति होती है तथा उसी सुख को प्राप्त करने के लिए तपस्या द्वारा ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है ।

अध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति के लिए करी गई तपस्या से ज्ञान प्राप्त होने पर सृष्टि के रहस्य उजागर होते हैं तथा जीव का जीवन मृत्यु का रहस्यमयी चक्र स्पष्ट हो जाता है । तपस्या से प्राप्त ज्ञान इन्सान का मतिभ्रम, दृष्टिभ्रम वगैरह सभी भ्रम समाप्त कर देता है तथा जीवन की सच्चाई व मंजिल मृत्यु के रहस्यों के ज्ञान से इन्सान में जीवन के प्रति मोह भंग होना स्वभाविक है । मोह के भंग होने से इन्सान के सभी विकार समाप्त होने लगते हैं क्योंकि मोह सभी विकारों की जड़ है । तपस्या द्वारा प्राप्त ज्ञान इन्सान को परम सुख की अनुभूति प्रदान करता है यह आत्मा द्वारा परमात्मा में लीन होने की किर्या है । संसार में अनेकों इंसानों ने अध्यात्मिक ज्ञान के लिए तपस्या करी परन्तु ज्ञान की प्राप्ति कुछ महान इंसानों को प्राप्त हुई जिनके ज्ञान से धर्मों की स्थापना हुई तथा उनके अनुयाइयों ने उन्हें ईश्वर समान सम्मान प्रदान किया ।

तपो सो राजा – राजा सो नर्क: अर्थात तपस्या करने पर इन्सान राजा बनता है तथा राजा बनकर नर्क को जाता है यह कहावत उन इंसानों के लिए है जिन्होंने अधूरी जानकारियों या भटकते मन के ध्यान से तपस्या करने की कोशिश करी तथा प्राप्त अधूरे ज्ञान से समाज को प्रभावित करने का प्रयास किया । जिन इंसानों ने उनके अधूरे ज्ञान से प्रभावित होकर उन्हें सम्मान प्रदान किया अधूरे ज्ञानी ने खुद को राजा के समान समझकर अहंकार में उन्हें आज्ञा देकर उसका पालन करने पर मजबूर करने या शोषण करने की कोशिश करी जिससे सम्मान देने वाले इंसानों ने उनका अहंकार देखकर बहिष्कार किया तथा कोई कोई तो जेल तक भी पहुंच गया जो उन्हें नर्क समान भोग्य हुई ।

तपस्या कोई भी इन्सान किसी भी स्थान पर करके ज्ञान प्राप्त कर सकता है ज्ञान का जाति, धर्म, स्थान से कोई लेना देना नहीं होता तथा तपस्या ज्ञान प्राप्ति या ज्ञान वृद्धि के लिए होती है । तपस्या को साधू संतों का कार्य समझना नादानी है क्योंकि तपस्या एक पद्धति है कोई आश्चर्य जनक कार्य नहीं । ध्यानमग्न होकर ईश्वर ईश्वर रटने को तपस्या समझना मूर्खता है तपस्या का उचित अर्थ ध्यानमग्न होकर बुद्धि द्वारा प्राप्त जानकारियों का विवेक द्वारा वैचारिक मंथन होता है तथा यह सभी इंसानों के वश का कार्य है ।

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जीवन सत्यार्थ

इंसान के जीवन में जन्म से मृत्यु तक के सफर में तृष्णा, कामना तथा बाधाएं उत्पन्न होकर मानसिकता में असंतोष तथा भटकाव की स्थिति उत्पन्न कर देते हैं जिससे जीवन कष्टदायक व असंतुलित निर्वाह होता है। जीवन सत्यार्थ ऐसा प्रयास है जिसके द्वारा सत्य की परख करके कष्टकारी मानसिकता से मुक्ति पाकर जीवन संतुलित बनाया जा सकता है। पढने के साथ समझना भी आवश्यक है क्योंकि पढने में कुछ समय लगता है मगर समझने में सम्पूर्ण जीवन भी कम हो सकता है और समझने से सफलता प्राप्त होती है।

प्रस्तुत कर्ता - पवन कुमार

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