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लत

July 4, 2016 By Amit Leave a Comment

किसी कार्य को करने में समय या धन अथवा दोनों की बर्बादी हो फिर भी उस कार्य को करने में इन्सान निरंतर लिप्त रहता है वह उसकी लत कहलाती है । लत इन्सान के मस्तिक की स्थिर एवं संकुचित मानसिकता होती है क्योंकि लत के वशीभूत इन्सान जीवन के आवश्यक कार्यों की अनदेखी भी कर देता है । लत इन्सान के जीवन में मनोरंजन अथवा समय बिताने के साधन के रूप में प्रवेश करती है तथा धीरे-धीरे उसकी मानसिकता को प्रभावित करके पूर्ण रूप से अपने शिकंजे में जकड़ लेती है ।

जब इन्सान लत के शिकंजे में पूर्णतया जकड़ जाता है वह आजादी के लिए सिर्फ छटपटा सकता है परन्तु आजाद होना उसके वश में नहीं रहता । लत से आजादी सिर्फ वह इन्सान प्राप्त कर सकता है जिसका विवेक सक्रिय हो तथा उसकी इच्छाशक्ति प्रबल हो । लत इन्सान पर नशे की तरह सक्रिय होकर आदत बन जाती है तथा आदत बनने के पश्चात इन्सान अपनी लत को किसी प्रकार भी अनुचित नहीं समझता क्योंकि यह उसका दैनिक कार्य बनकर जीवन निर्वाह का हिस्सा बन जाती है ।

लत अनेक प्रकार की होती है परन्तु किसी भी प्रकार की लत हो इन्सान के जीवन को प्रभावित अवश्य करती है । इन्सान के लिए सर्वाधिक हानिकारक नशे, जुए, सट्टे जैसी अनेकों प्रकार की असामाजिक एवं अनैतिक लत होती हैं जिनके कारण इन्सान का अपने जीवन के साथ-साथ परिवार का जीवन भी बर्बादी के कगार पर पहुँच जाता है । संसार में अनेकों प्रकार की नशे की वस्तुएं उपलब्ध हैं जिन्हें आनन्द प्राप्ति का साधन समझकर इन्सान किसी भी प्रकार के नशे का सेवन आरम्भ कर देता है ।

नशा ऐसी अनोखी लत है जिसके विषय में इन्सान जानते हुए भी उसके चंगुल में जानबूझकर फंस जाता है तथा अपने मित्रों एवं हितैषियों को भी फंसा लेता है । नशा जब लत बन जाता है वह आर्थिक एवं शारीरिक हानि के साथ सम्मान का भी नाशक बन जाता है । नशे की लत लगाना सरल कार्य है परन्तु नशे की लत से मुक्ति सिर्फ दृढ इच्छाशक्ति के बल पर ही हो सकती है ।

जुए, सट्टे जैसे कार्यों की लत इन्सान के लोभ का परिणाम होता है । जो इन्सान अधिक प्राप्ति तथा बिना परिश्रम एवं अतिशीघ्र पाने की अभिलाषा रखते हैं उनके लिए जुए, सट्टे, लाटरी जैसे लुभावने कार्य व्यापार की तरह शातिर एवं धूर्त इंसानों द्वारा संचालित किए जाते हैं । इन्सान आरम्भ में छोटे-छोटे दांव लगाकर जुए, सट्टे, लाटरी के कार्यों में प्रवेश करता है तथा धीरे-धीरे वह पूर्ण रूप से जुआरी या सट्टेबाज बन जाता है । जुए, सट्टे की लत का इन्सान तब तक त्याग नहीं करता जब तक वह पूर्णतया कंगाल नहीं हो जाता । जुए सट्टे की लत का त्याग सिर्फ इन्सान का विवेक करवा सकता है क्योंकि विवेक इन्सान को सत्य की परख करना सिखाता है । जुए, सट्टे, लाटरी जैसे व्यापार मात्र इन्सान का भ्रम है क्योंकि इनमें किसी वस्तु का व्यापार नहीं होता सिर्फ धन हारने वाले से जीतने वाले के पास चला जाता है अर्थात सिर्फ स्थान बदलता रहता है ।

इन्सान की अव्यवहारिक मानसिकता भी लत बनकर हानिकारक हो जाती है । कभी-कभी इन्सान की अव्यवहारिक मानसिकता की कोई आदत लत बनकर उसका जीवन प्रभावित कर देती है जिसके कारण उसके निजी एवं सामाजिक सम्बन्ध प्रभावित होकर टूट जाते हैं अथवा हानिकारक बन जाते हैं । बहस करना, निंदा करना, अभद्र भाषा का उपयोग करना, चापलूसी करना, बकवास करना, आलोचनाएँ करना, नीचा दिखाना, बात-बात पर क्रोध करना, झूट बोलना, अहंकार करना अनेकों प्रकार की ऐसी अव्यवहारिक आदतें हैं जो कब इन्सान की लत बन जाती हैं उसे अहसास भी नहीं होता । किसी भी प्रकार की अव्यवहारिक आदत कितना भी प्रिय सम्बन्ध हो उसे प्रभावित अवश्य करती है जिसका प्रत्यक्ष प्रभाव दिखाई देना आवश्यक नहीं होता परन्तु अप्रत्यक्ष रूप से हानि अवश्य पहुंचाती है । इन्सान को अपने व्यवहार का समय-समय पर निरिक्षण करना आवश्यक होता है ताकि जीवन में किसी प्रकार की कोई अव्यवहारिक आदत लत बनकर उसके पतन का कारण ना बन जाए ।

इन्सान के स्वभाव की अनेकों ऐसी मूर्खता पूर्ण किर्याएँ हैं जो लत बन जाएँ तो जीवन की प्रगति समाप्त हो जाती है तथा हानि का कारण भी बन जाती हैं । साधारण मनोरंजन का चस्का भी जब लत बन जाता है तो इन्सान अपना मूल्यवान समय सिर्फ मनोरंजन में बर्बाद करता है । टी वी देखना, कम्पूटर या मोबाईल पर समय बिताना तथा किसी प्रकार का अन्य साधारण मनोरंजन इन्सान की लत बनकर जब समय बर्बाद करने लगता है उसे अपने समय का मूल्य भी ज्ञात नहीं रहता जिससे धीरे-धीरे उसका जीवन अभावग्रस्त बन जाता है ।

किसी के पास नित्य जाकर समय बिताना, कहीं बैठकर गप्पें हांकना, अपने आप में खोकर कल्पनाएँ करते रहना अनेकों ऐसी स्वभाविक किर्याएँ हैं जिनके कारण इन्सान की अपने समय पर पकड़ छूट जाती है । समय बर्बादी की साधारण स्वभाविक किर्याएँ भी जब लत बन जाती हैं तो समय का विनाश करके उसके जीवन को अभावग्रस्त बना देती हैं । समय का विनाश इन्सान को जीवन में कभी सफल नहीं होने देता यदि इन्सान को प्रगति की अभिलाषा हो तो ऐसी किर्याओं का त्याग करना आवश्यक होता है ।

लत इन्सान को मानसिक के साथ शारीरिक रूप से भी लग जाती है जैसे छेड़छाड़ करना या शरारत अथवा कोई अनुचित हरकत करना । जब भी कोई लत लगती है उसका कारण मनोरंजन या समय बिताने का प्रयास ही होता है वह चाहे कुछ सुनने या खाने पीने अथवा देखने की लत हो । लत इन्सान के जीवन का संतुलन खराब करके असंतुलित एवं अभावग्रस्त बना देती है । इन्सान को अपना स्वभाव एवं व्यवहार सदैव उत्तम तथा सामान्य ही महसूस होता है अपनी त्रुटियाँ दूसरों के बताने पर ही ज्ञात होती हैं । अपने स्वभाव तथा व्यवहार का सामाजिक दृष्टि से सूक्ष्म निरिक्षण करने तथा अपने हितैषी एवं मित्रों से समझने के पश्चात ही खुद को सुधारने की आवश्यकता होती है ।

लत का आरम्भ में ही त्याग करना सरल होता है क्योंकि लत जितनी पुरानी हो जाती है वह पक जाती है जिससे उसका त्याग सरल नहीं रहता । लत के विषय में यह समझना आवश्यक है कि इससे जीवन सिर्फ अभावग्रस्त अथवा बर्बाद होते हैं । अपने विवेक से सोच समझकर था दृढ इच्छाशक्ति से लत का त्याग करना अर्थात अपने जीवन को संवारना है । लत छोड़ने के लिए इन्सान को किसी बाहरी शक्ति से नहीं लड़ना अपितु स्वयं से लड़ना है और जो खुद पर विजय प्राप्त नहीं कर सकता वह जीवन में सबसे बड़ा कायर इन्सान होता है।

नशा

June 8, 2014 By Amit Leave a Comment

nasha

इन्सान आदिकाल से जिज्ञासा प्रवृति का रहा है । प्रत्येक वस्तु के बारे में गहराई से जानकारी प्राप्त करने की जिज्ञासा ने नई खोज करने की कोशिश को जन्म दिया है जिससे नये नये अविष्कार इन्सान के जीवन में आए । इन्सान की करी हुई खोज में अच्छी व बुरी सभी प्रकार की वस्तुएं हैं जहाँ इन्सान चाँद व मंगल पर घूम रहा है वहीं संसार के विनाश के लिए तरह तरह के हथियार भी बनाये गये तथा उन्हीं आविष्कारों में से इन्सान ने अपने जीवन को नुकसान पहुँचाने का फार्मूला खोजा (नशा) । नशे को तरह तरह के अंजाम दिए गये खाकर, पी कर, सूंघकर, सुई द्वारा शरीर में प्रवेश कराकर तरह तरह की वस्तुओं द्वारा जैसे तम्बाकू, भाँग, चरस, अफीम, गांजा, सुलफा, धतूरा, कोकीन, स्मैक और शराब आदी नये से नये तरीके नशे में चूर होकर जीने के ।

सिर्फ सुनी हुई बातों पर विश्वास करना इन्सान का स्वभाव है जैसे ईश्वर, साधू, संत, भूत, प्रेत पर विश्वास करके अमल में लाता है । किसी की झूटी बातों में आकर लड़ाई करता है परन्तु सच्चाई जानने की कोशिश नहीं करता वही इन्सान पढ़कर, सुनकर, व उससे होने वाले नुकसान को देखकर भी नशा करता है । यह इन्सान की स्वंय को धोखा देने की प्रवृति है जिसे सदियों से समझाने पर भी आज तक समझ नहीं आया । सभी प्रकार की नशे की वस्तुएं शरीरिक, मानसिक व आर्थिक नुकसान ही करती हैं जैसे धूम्रपान करने से खांसी आती है और इन्सान खांसते हुए जीवन व्यतीत करता है । शराब से जायका कडवा तथा उल्टियाँ करता एंव डगमगाता हुआ इंसान समाजिक प्रतिष्ठा भी गवाँ देता है तम्बाकू व गुटखे मुहं का कैंसर जैसी भयंकर बीमारयाँ उत्पन्न करते है तथा दूसरे नशे तो इससे भी बुरे परिणाम देते हैं ।

इन सभी की पूर्ण जानकारी होने के पश्चात भी इसका सबसे ज्यादा उपयोग शिक्षित वर्ग करता है । नशे को समाज का एक वर्ग सोसायटी की शान समझता है सिगरेट के सुट्टे ना लगाने एवं शराब के जाम ना टकराने वालों को पिछड़ा व छोटी सोच माना जाता हैं । नशा धीमे जहर की तरह कार्य करता है तथा शरीर की प्रतिरोधक क्षमता धीरे धीरे समाप्त कर देता है जिससे इन्सान किसी भयंकर बिमारी की चपेट में आ जाता है । नशे की लत वाला इन्सान बिमारी में अपना जीवन समय से पूर्व ही गवाँ देता है तथा धन भी अवश्य ही गँवाएगा । नशे की लत पर आरम्भ में ही अधिकार प्राप्त किया जा सकता है या दृढ इच्छा शक्ति से काबू किया जा सकता है ।

नशा सबसे अधिक मस्तिक पर असर कारक है जिससे याद रखने की क्षमता, सोचने की क्षमता व तर्क करने की शक्ति प्रभावित होती है तथा जीवन में तरक्की करने के आधार समाप्त हो जाते हैं । इन्सान के जीवन में नशे का आरम्भ बीस वर्ष की आयु से हो जाता है तथा मृत्यु होने तक संचालित रहता है । वैसे इन्सान साठ वर्ष की उम्र तक ही सक्रिय रहता है । चालीस वर्ष अर्थात १४६१० दिन होते हैं कम व सस्ता नशा धुम्रपान ही है जो एक बंडल बीडी व माचिस जिसकी कीमत ११ रुपये प्रतिदिन होती है जो जीवन में चालीस वर्ष प्रयोग करने से (एक लाख साठ हजार)रूपये होते हैं जो ब्याज सहित कितने लाख होंगे इसका हिसाब अल्प बचत योजना ही बता सकती है । शराब धुम्रपान से ५ से १० गुना अधिक महंगा नशा है जो ८ से १६ लाख तक की कीमत का होगा तथा बचत योजना में २० से ४० लाख या अधिक होगा जो मनुष्य यह तर्क देते हैं कि पहले शराब,सिगरेट सस्ती थी तो यह जानना भी जरूरी है कि समय के अनुसार रूपये की कीमत का अंतर ही भाव में वृद्धि करता है पहले यदि शराब सस्ती थी तो आमदनी भी कम थी और रूपये की कीमत अधिक थी ।

नशे की लत आर्थिक रूप से बुद्धि का प्रयोग नहीं करने देती । हमारा कानून व सरकारी तंत्र नशे की वस्तुओं पर उनसे होने वाली बीमारयों के प्रति सावधान करना अपना कर्तव्य समझ कर लिख देते हैं जैसे धुम्रपान से फेफड़ों में कैंसर होता है, तम्बाखू व गुटखे से मुंह का कैंसर होता है और शराब मौत का सामान है वगैरह परन्तु इन नशे की वस्तुओं के उत्पादन को बंद नहीं करते । नशे की वस्तुओं से सरकार को बहुत अधिक आमदनी (कर) के रूप में प्राप्त होती है तथा कारखानों व इससे जुड़े व्यवसायियों को मोटा मुनाफा होता है , नशे को समाज व धर्मशास्त्री और बुद्धिजीवी वर्ग भी बंद करवाने के प्रति जागरूक नहीं है । नशा करने वाले इन्सान जब तक इससे होने वाले शरीरिक, मानसिक, आर्थिक, व समाजिक सम्मान की हानि के परिणाम पर ध्यान नहीं देगा तथा स्वंय को धोखा देना बंद नहीं करेगा तब तक नशा उसका पीछा नहीं छोड़ेगा यदि कोई इन्सान किसी को नशे की लत लगाने की कोशिश करता है तो वह अपना कोई स्वार्थ उससे पूर्ण करना चाहता है अथवा उसका जीवन बर्बाद करना चाहता है ऐसा मनुष्य मित्र तो हो ही नहीं सकता इसलिए ऐसे इंसानों से सावधान रहना आवश्यक है ।

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जीवन सत्यार्थ

इंसान के जीवन में जन्म से मृत्यु तक के सफर में तृष्णा, कामना तथा बाधाएं उत्पन्न होकर मानसिकता में असंतोष तथा भटकाव की स्थिति उत्पन्न कर देते हैं जिससे जीवन कष्टदायक व असंतुलित निर्वाह होता है। जीवन सत्यार्थ ऐसा प्रयास है जिसके द्वारा सत्य की परख करके कष्टकारी मानसिकता से मुक्ति पाकर जीवन संतुलित बनाया जा सकता है। पढने के साथ समझना भी आवश्यक है क्योंकि पढने में कुछ समय लगता है मगर समझने में सम्पूर्ण जीवन भी कम हो सकता है और समझने से सफलता प्राप्त होती है।

प्रस्तुत कर्ता - पवन कुमार

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