किसी कार्य को करने में समय या धन अथवा दोनों की बर्बादी हो फिर भी उस कार्य को करने में इन्सान निरंतर लिप्त रहता है वह उसकी लत कहलाती है । लत इन्सान के मस्तिक की स्थिर एवं संकुचित मानसिकता होती है क्योंकि लत के वशीभूत इन्सान जीवन के आवश्यक कार्यों की अनदेखी भी कर देता है । लत इन्सान के जीवन में मनोरंजन अथवा समय बिताने के साधन के रूप में प्रवेश करती है तथा धीरे-धीरे उसकी मानसिकता को प्रभावित करके पूर्ण रूप से अपने शिकंजे में जकड़ लेती है ।
जब इन्सान लत के शिकंजे में पूर्णतया जकड़ जाता है वह आजादी के लिए सिर्फ छटपटा सकता है परन्तु आजाद होना उसके वश में नहीं रहता । लत से आजादी सिर्फ वह इन्सान प्राप्त कर सकता है जिसका विवेक सक्रिय हो तथा उसकी इच्छाशक्ति प्रबल हो । लत इन्सान पर नशे की तरह सक्रिय होकर आदत बन जाती है तथा आदत बनने के पश्चात इन्सान अपनी लत को किसी प्रकार भी अनुचित नहीं समझता क्योंकि यह उसका दैनिक कार्य बनकर जीवन निर्वाह का हिस्सा बन जाती है ।
लत अनेक प्रकार की होती है परन्तु किसी भी प्रकार की लत हो इन्सान के जीवन को प्रभावित अवश्य करती है । इन्सान के लिए सर्वाधिक हानिकारक नशे, जुए, सट्टे जैसी अनेकों प्रकार की असामाजिक एवं अनैतिक लत होती हैं जिनके कारण इन्सान का अपने जीवन के साथ-साथ परिवार का जीवन भी बर्बादी के कगार पर पहुँच जाता है । संसार में अनेकों प्रकार की नशे की वस्तुएं उपलब्ध हैं जिन्हें आनन्द प्राप्ति का साधन समझकर इन्सान किसी भी प्रकार के नशे का सेवन आरम्भ कर देता है ।
नशा ऐसी अनोखी लत है जिसके विषय में इन्सान जानते हुए भी उसके चंगुल में जानबूझकर फंस जाता है तथा अपने मित्रों एवं हितैषियों को भी फंसा लेता है । नशा जब लत बन जाता है वह आर्थिक एवं शारीरिक हानि के साथ सम्मान का भी नाशक बन जाता है । नशे की लत लगाना सरल कार्य है परन्तु नशे की लत से मुक्ति सिर्फ दृढ इच्छाशक्ति के बल पर ही हो सकती है ।
जुए, सट्टे जैसे कार्यों की लत इन्सान के लोभ का परिणाम होता है । जो इन्सान अधिक प्राप्ति तथा बिना परिश्रम एवं अतिशीघ्र पाने की अभिलाषा रखते हैं उनके लिए जुए, सट्टे, लाटरी जैसे लुभावने कार्य व्यापार की तरह शातिर एवं धूर्त इंसानों द्वारा संचालित किए जाते हैं । इन्सान आरम्भ में छोटे-छोटे दांव लगाकर जुए, सट्टे, लाटरी के कार्यों में प्रवेश करता है तथा धीरे-धीरे वह पूर्ण रूप से जुआरी या सट्टेबाज बन जाता है । जुए, सट्टे की लत का इन्सान तब तक त्याग नहीं करता जब तक वह पूर्णतया कंगाल नहीं हो जाता । जुए सट्टे की लत का त्याग सिर्फ इन्सान का विवेक करवा सकता है क्योंकि विवेक इन्सान को सत्य की परख करना सिखाता है । जुए, सट्टे, लाटरी जैसे व्यापार मात्र इन्सान का भ्रम है क्योंकि इनमें किसी वस्तु का व्यापार नहीं होता सिर्फ धन हारने वाले से जीतने वाले के पास चला जाता है अर्थात सिर्फ स्थान बदलता रहता है ।
इन्सान की अव्यवहारिक मानसिकता भी लत बनकर हानिकारक हो जाती है । कभी-कभी इन्सान की अव्यवहारिक मानसिकता की कोई आदत लत बनकर उसका जीवन प्रभावित कर देती है जिसके कारण उसके निजी एवं सामाजिक सम्बन्ध प्रभावित होकर टूट जाते हैं अथवा हानिकारक बन जाते हैं । बहस करना, निंदा करना, अभद्र भाषा का उपयोग करना, चापलूसी करना, बकवास करना, आलोचनाएँ करना, नीचा दिखाना, बात-बात पर क्रोध करना, झूट बोलना, अहंकार करना अनेकों प्रकार की ऐसी अव्यवहारिक आदतें हैं जो कब इन्सान की लत बन जाती हैं उसे अहसास भी नहीं होता । किसी भी प्रकार की अव्यवहारिक आदत कितना भी प्रिय सम्बन्ध हो उसे प्रभावित अवश्य करती है जिसका प्रत्यक्ष प्रभाव दिखाई देना आवश्यक नहीं होता परन्तु अप्रत्यक्ष रूप से हानि अवश्य पहुंचाती है । इन्सान को अपने व्यवहार का समय-समय पर निरिक्षण करना आवश्यक होता है ताकि जीवन में किसी प्रकार की कोई अव्यवहारिक आदत लत बनकर उसके पतन का कारण ना बन जाए ।
इन्सान के स्वभाव की अनेकों ऐसी मूर्खता पूर्ण किर्याएँ हैं जो लत बन जाएँ तो जीवन की प्रगति समाप्त हो जाती है तथा हानि का कारण भी बन जाती हैं । साधारण मनोरंजन का चस्का भी जब लत बन जाता है तो इन्सान अपना मूल्यवान समय सिर्फ मनोरंजन में बर्बाद करता है । टी वी देखना, कम्पूटर या मोबाईल पर समय बिताना तथा किसी प्रकार का अन्य साधारण मनोरंजन इन्सान की लत बनकर जब समय बर्बाद करने लगता है उसे अपने समय का मूल्य भी ज्ञात नहीं रहता जिससे धीरे-धीरे उसका जीवन अभावग्रस्त बन जाता है ।
किसी के पास नित्य जाकर समय बिताना, कहीं बैठकर गप्पें हांकना, अपने आप में खोकर कल्पनाएँ करते रहना अनेकों ऐसी स्वभाविक किर्याएँ हैं जिनके कारण इन्सान की अपने समय पर पकड़ छूट जाती है । समय बर्बादी की साधारण स्वभाविक किर्याएँ भी जब लत बन जाती हैं तो समय का विनाश करके उसके जीवन को अभावग्रस्त बना देती हैं । समय का विनाश इन्सान को जीवन में कभी सफल नहीं होने देता यदि इन्सान को प्रगति की अभिलाषा हो तो ऐसी किर्याओं का त्याग करना आवश्यक होता है ।
लत इन्सान को मानसिक के साथ शारीरिक रूप से भी लग जाती है जैसे छेड़छाड़ करना या शरारत अथवा कोई अनुचित हरकत करना । जब भी कोई लत लगती है उसका कारण मनोरंजन या समय बिताने का प्रयास ही होता है वह चाहे कुछ सुनने या खाने पीने अथवा देखने की लत हो । लत इन्सान के जीवन का संतुलन खराब करके असंतुलित एवं अभावग्रस्त बना देती है । इन्सान को अपना स्वभाव एवं व्यवहार सदैव उत्तम तथा सामान्य ही महसूस होता है अपनी त्रुटियाँ दूसरों के बताने पर ही ज्ञात होती हैं । अपने स्वभाव तथा व्यवहार का सामाजिक दृष्टि से सूक्ष्म निरिक्षण करने तथा अपने हितैषी एवं मित्रों से समझने के पश्चात ही खुद को सुधारने की आवश्यकता होती है ।
लत का आरम्भ में ही त्याग करना सरल होता है क्योंकि लत जितनी पुरानी हो जाती है वह पक जाती है जिससे उसका त्याग सरल नहीं रहता । लत के विषय में यह समझना आवश्यक है कि इससे जीवन सिर्फ अभावग्रस्त अथवा बर्बाद होते हैं । अपने विवेक से सोच समझकर था दृढ इच्छाशक्ति से लत का त्याग करना अर्थात अपने जीवन को संवारना है । लत छोड़ने के लिए इन्सान को किसी बाहरी शक्ति से नहीं लड़ना अपितु स्वयं से लड़ना है और जो खुद पर विजय प्राप्त नहीं कर सकता वह जीवन में सबसे बड़ा कायर इन्सान होता है।