जीवन जीने की निर्धारित शैली व उसके नियमों को धर्म कहा जाता है जो नियम समाजिक होते हैं वें प्रथा कहलाते हैं यदि आवश्यकता होने पर भी समाजिक नियमों में परिवर्तन न किया जाए तो वह रूढ़ीवाद होता है । रूढ़ीवाद इन्सान की संकीर्ण मानसिकता की निशानी है क्योंकि वर्तमान संसाधनों का उपयोग करते हुए भी अपना जीवन प्राचीन प्रथाओं की घिसीपिटी शैली के आधार पर निर्वाह करना जीवन में अनेकों समस्याएँ उत्पन्न करता है जिसके कारण जीवन निर्वाह करना कठिन हो जाता है । समस्याओं से जूझने पर भी रूढ़िवादी परम्परा का त्याग नहीं करना इन्सान की संकीर्ण मानसिकता होती है । भारत में रूढ़िवादी परम्परा एंव प्रथाएँ अत्याधिक प्रचिलित हैं या दूसरे शब्दों में कहा जाए तो भारतीय समाज रूढ़िवादी परम्पराओं का समाज है तथा भारत के पिछड़ेपन का कारण भी भारत वासियों का अत्याधिक रूढ़िवादी होना है ।
भारत वासियों के जन्म से लेकर मृत्यु होने तक के सभी कार्य रूढ़िवादी परम्पराओं के अनुसार ही होते हैं । खुद को आधुनिक समझने व कहने वाला शिक्षित नौजवान वर्ग भी समय पर अपनी रूढ़िवादी सोच प्रकट कर देता है । रूढ़िवादी प्रथाओं के प्रचलन को जीवित रखने का श्रेय सबसे अधिक भारत के मध्यम वर्गीय परिवारों को जाता है तथा इन प्रथाओं से होने वाली हानि का प्रभाव भी इन मध्यम वर्गीय परिवारों पर ही होता है । शिशु जन्म के समय इलाज के खर्च में बचत करने वाला परिवार नामकरण के समय अधिक से अधिक खर्च करना चाहता है परिवार को चिकित्सक की फ़ीस से अधिक पंडित जी की दक्षिणा की चिंता रहती है कि कहीं पंडित जी के आशीर्वाद में कमी ना होने पाए जिसके कारण शिशु का अनिष्ट ना हो जाए । शिक्षा प्राप्ति के समय बच्चों के मानसिक विकास की आवश्यकता की वस्तुओं का ध्यान ना करके मन्दिरों के प्रसाद द्वारा उच्च शिक्षा की कामनाएँ करी जाती हैं ।
त्योहारों के नाम पर रूढ़िवादी प्रथाओं की लकीर पीटना भारतीय समाज की कमजोरी है जो मनोरंजन के नाम पर नये विकल्प तलाश ना करके प्राचीन रूढ़िवादी प्रथाओं के आधार पर अपने त्यौहार मनाता है । होली पर लकड़ी का ढेर जलाने व रंग, वस्त्र तथा पानी की बर्बादी करने से लेकर लड़ाई करने तक का कार्य होता है । दशहरे पर रावण जलाने तथा दीवाली पर पटाखे चलाने से उत्पन्न होने वाला प्रदुषण कितनी बिमारियों को फ़ैलाने में सहायक होता है उसका हिसाब लगाना समाज का कार्य नहीं है । शिव की कांवड़ यात्रा के दौरान होने वाले दंगे व जान लेवा हादसे भी रोक लगाने में असमर्थ हैं । रक्षा बंधन पर भाई बहन एक दूसरे को रिश्तों का प्रमाण पत्र देकर समय व धन की बर्बादी के सिवाय कुछ प्राप्त नहीं करते । भारत में ऐसे अनेकों त्यौहार हैं जिनकी सत्यता व आवश्यकता व प्रभाव के बारे में सोचना भारतीय आवश्यक नहीं समझते ।
भारत की कमजोर व लडखडाती आर्थिक व्यवस्था को देखकर भी सरकार एंव जनता को अवकाश प्राप्त करने के नित नये बहानों की तलाश रहती है । संसार के किसी भी देश में भारत की तरह इतने अधिक अवकाश घोषित नहीं हैं तथा भारत में अधिक अवकाशों का असर शिक्षा, उद्धोग, चिकित्सा, न्याय प्रणाली व सरकारी कार्यों वगैरह सभी पर होता है । साप्ताहिक अवकाश के अतिरिक्त त्योहारों के नाम पर, आजादी तथा शहीदों के नाम पर, महापुरुषों के जन्म दिवस तथा धर्म व जातियों को खुश करने के लिए सभी जाति व धर्म के महत्वपूर्ण इंसानों के जन्म दिवस अवकाश के लिए घोषित हैं । यह रूढ़िवादी परम्परा देश के विकास में कितनी बड़ी बाधक है इसका निवारण करने पर ही भारत का विकास संभव है ।
स्त्री को समान हक व दर्जा देने का दम भरने वाला समाज उसका सम्पूर्ण जीवन भरपूर शोषण रूढ़िवादी प्रथाओं के नाम पर करता है तथा दहेज जैसी रूढ़िवादी प्रथाओं के कारण परिवार भी नारी को घृणा की दृष्टि से देखता है । विवाह के समय वर पक्ष वधु के परिवार से अपने सम्मान की दुहाई देकर व प्रथाओं के नाम पर सभी प्रकार की सौदेबाजी करता है एवं वधु के परिवार के धन को फालतू की वस्तु समझकर उसकी बर्बादी करना अपना कर्तव्य समझता है । विवाह के नाम पर सबसे गलत रूढ़िवादी प्रथाएँ प्रचलित हैं जिनमे सजावट, दावत, घोड़ी, बाजा के लिए जीवन भर की कमाई को बर्बाद किया जाता है जो की वर व वधु के किसी काम नहीं आते जिनके ना होने पर भी दोनों शांति पूर्वक अपना जीवन व्यतीत कर सकते हैं ।
वृद्ध अवस्था के समय सुविधाओं तथा इलाज की अनदेखी करने एवं समय समय पर प्रताड़ित करने वाला परिवार मृत्यु के समय अंतिम संस्कार के नाम पर भरपूर खर्च करके अपनी रूढ़िवादी सोच का प्रमाण प्रस्तुत करता है । मरनोपरांत किर्या करने तथा मरने वाले के नाम पर दान करने में खर्च होने वाला धन जीवित रहते समय सुविधा प्रदान नहीं कर सकता क्योंकि मरनोपरांत मरने वाले के लिए सुखों का प्रबंध करना भी आवश्यक है यह हमारी हजारों वर्ष पुरानी रूढ़िवादी प्रथा है जिसे वर्तमान में भी मान्यता प्राप्त है । भारतीय समाज जीवित इन्सान से नहीं डरता परन्तु मरनोपरांत भूत बनकर सताने का डर उसे सभी प्रथाओं को मानने पर बाध्य कर देता है ।
घिसीपिटी रूढ़िवादी प्रथाओं के कारण साधारण इन्सान भी अपने जीवन में आमदनी का बहुत बड़ा हिस्सा गवां देता है जिसके कारण उसका जीवन अभावपूर्ण हो जाता है । प्राचीन प्रथाएँ उस समय की देन हैं जिस समय इन्सान को सिर्फ रोटी कपड़ा तथा मकान की आवश्यकता होती थी और वह अपना समय व्यर्थ के कार्यों अथवा वार्तालाप में व्यतीत करता था । वर्तमान में इन्सान की आवश्यकताओं में तेजी से वृद्धि हुई है जिससे वह अधिकतर समय धन प्राप्ति करने में व्यस्त रहता है । अपने धन व समय का सद उपयोग करने में ही समझदारी है किसी को रूढ़िवादी प्रथाओं पर धन व समय बर्बाद करते देखकर नकल करना मूर्खता है ।