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संकोच – sankoch

April 6, 2020 By प्रस्तुत करता - पवन कुमार Leave a Comment

किसी भी कार्य को सम्पन्न करने में इन्सान की मानसिकता में शर्म अथवा भय उत्पन्न होकर कार्य में बाधा बनते हैं तो वह उसका संकोच (sankoch) होता है | संकोच (sankoch) मानसिकता का सबसे घातक विकार है | क्योंकि इन्सान के जीवन में अभाव एवं असफलताओं का मुख्य कारण उसका संकोच (hichkichana) होता है | संकोच (sankoch) के कारण इन्सान अपने जीवन को स्वयं अभावग्रस्त तथा असफल बना लेता है तथा दोष सदैव अपनी किस्मत को देता है | एक सफल एवं सक्षम जीवन निर्वाह करने के लिए इस विषय को समझकर अपनी मानसिकता में परिवर्तन करना आवश्यक है अन्यथा पश्चाताप सम्पूर्ण जीवन प्रताड़ित करता है |

 संकोच (hichkichana) के कारण समय पर समस्या का समाधान ना होने से समस्या में वृद्धि हो जाती है | समय पर आवश्यकता पूर्ति ना होने पर कार्य असफल हो जाते हैं | समय पर सहायता प्राप्त ना होने से हानि होती है | समय पर वस्तु या धन उपलब्ध ना होने से कार्य असफल होते हैं | समय पर कार्य सम्पन्न ना होने से अभाव उत्पन्न  हो जाता है | किसी भी कार्य में दूसरों की सहायता लेने से जब इन्सान संकोच (hasitation) करता है तो उसे किसी ना किसी प्रकार की हानि अवश्य होती है जो उसके जीवन को अभावग्रस्त बनाती है | कभी-कभी इन्सान संकोच के कारण किसी के समक्ष भूखा होने पर भी कुछ खाने या भोजन करने से भी मना कर देता है |

 संकोच (hesitation) इन्सान के बाल्यकाल से ही उसकी मानसिकता को प्रभावित करने लगता है जिसका मुख्य कारण परवरिश के समय लापरवाही होती है | अपनी बात, समस्या अथवा आवश्यकता को बताने पर परिवार द्वारा प्रताड़ित करना बाल्यावस्था में संकोच का आरम्भ होता है | परिवार को प्रतिष्ठित बताकर किसी से सहायता मांगने को ओछा कार्य बताना सन्तान की मानसिकता में अहंकार उत्पन्न करता है जिसके कारण वह किसी से भी सहायता मांगने में सदैव संकोच करता है | दूसरे इंसानों की द्वारा अधिक प्रशंसा या चापलूसी करने से भी अहंकार उत्पन्न होकर इन्सान को संकोची बना देता है | अपनी समस्या का समाधान करने, किसी प्रकार की सहायता मांगने, कोई वस्तु या धन उधार मांगने, अथवा किसी कार्य को करवाने की आवश्यकता होने पर भी इन्सान अपनों से भी संकोच के कारण खुद को अभावग्रस्त एवं असफल बना लेता है |

संकोच (sankoch) करने के प्रभाव के कारण इन्सान की मानसिकता में हीनभावना उत्पन्न होने लगती है | संकोच (hasitation) करने वाले इन्सान किसी के द्वारा शोषण होने पर अपमान के भय से बताने से भी संकोच (sankoch) करते हैं जिसके प्रभाव से उनमें कायरता उत्पन्न होने लगती है | किसी के द्वारा मूर्ख बनाने या धन लेकर वापस ना करने पर भी संकोच करने वाले सार्वजनिक नहीं करते क्योंकि उन्हें लगता है उनको मूर्ख एवं कायर समझा जाएगा | संकोच के कारण अपनी समस्या किसी को ना बताने के कारण मानसिक तनाव बढने लगता है जो उनको आक्रोशी एवं तनावग्रस्त बना देता है | संकोच के कारण इन्सान का आत्मविश्वास कमजोर होकर उसकी इच्छाशक्ति को क्षीण कर देता है |

इन्सान के संकोच (phobia) का समाधान सर्वप्रथम उसका परिवार वास्तविकता से परिचित करवाकर समाप्त कर सकता है | संकोच को समाप्त करने के लिए शर्म एवं भय को समाप्त करना आवश्यक है जिसके लिए इन्सान का अहंकार का अंत करना आवश्यक है | इन्सान को अपना अहंकार समाप्त करना हो तो उसे अपनी औकात को समझना आवश्यक  है क्योंकि औकात का पता चलते ही अहंकार स्वयं समाप्त हो जाता है | इन्सान की औकात उसकी आवश्यकता अथवा व्यवहार के कारण होती है | औकात को समझने के लिए औकात के लेख को पढकर सरलता से समझा जा सकता है |

इन्सान सदैव उस से ही सहायता मांगता है जो सहायता करने में सक्षम हो | सक्षम होने पर भी सहायता मांगने में संकोच करना इन्सान को सदैव भ्रमित करता है कि वह इन्सान सहायता करेंगें या नहीं | भ्रम को समाप्त करने एवं सबंधों को स्पष्ट करने के लिए आवश्यकता होने पर सहायता मांगना सर्वोतम होता है जिसके सहायता मिलने अथवा ना मिलने दोनों प्रकार से लाभदायक होता है | सहायता मांगने पर मिलने से लाभ होता है तथा हितैषी होने का भ्रम स्पष्ट होता है | यदि सहायता मांगने पर ना मिले तो भी हितैषी होने का दिखावा करने की वास्तविकता अवश्य स्पष्ट हो जाती है |

नकली हितैषी के पता चलने पर उससे सबंध समाप्त होना भी इन्सान के लिए लाभदायक होता है | संकोच (phobia) इन्सान की मानसिकता का सबसे घातक विकार इसीलिए होता है क्योंकि आवश्यकता होने एवं उपलब्ध हो सकने पर भी सहायता ना मांग कर खुद को असफल एवं अभावग्रस्त बना लेना मूर्खता का परिचय ही होता है | संकोच का त्याग करके जीवन को सफल एवं सक्षम बनाना तथा सबंधों की वास्तविकता को स्पष्ट करना सदैव सर्वोतम होता है | जब दूसरे इन्सान हमारा लाभ उठाते हैं तो हमें भी उनसे लाभ लेने का अधिकार होता है जिसे हम संकोच के कारण ना लेकर खुद के लिए ही हानिकारक बन जाते हैं |

डर

September 20, 2014 By Amit Leave a Comment

किसी अनिष्ट की आशंका मात्र से श्वास गति तथा हृदय गति में तीव्रता उत्पन्न होना एंव अचानक मानसिक तंत्र में सक्रियता उत्पन्न होना इन्सान का डर होता है । डर इन्सान की इस प्रकार की नकारात्मक मानसिकता है जिसके कारण इन्सान की सभी मानसिक शक्तियाँ प्रभावित होती हैं जिससे उनकी स्वभाविक कार्यशैली में अवरोध उत्पन्न हो जाते हैं । डर के कारण इन्सान का शारीरिक तंत्र भी प्रभावित होता है तथा अत्यंत अधिक आक्रांतित होने पर इन्सान को मृत्यु तुल्य कष्ट अथवा इन्सान की मृत्यु तक हो जाती है । डर इन्सान के जीवन में सबसे अधिक प्रभावशाली विकार है जो जन्म से मृत्यु तक इन्सान का हमसफर रहता है ।

इन्सान में डर उत्पन्न होने के असंख्य कारण हैं सर्वाधिक डर की प्राथमिकता मस्तिक द्वारा शरीर की सुरक्षा के प्रति सतर्कता होती है । संसार के सभी जीव अपने जीवन की सुरक्षा के प्रति आक्रांतित होते हैं परन्तु इन्सान अपने अतिरिक्त दूसरों के लिए भी डर का अनुभव करता है । इन्सान में दूसरों के प्रति डर उत्पन्न होने का कारण इन्सान की मानसिकता में कल्पना शक्ति तथा भावना शक्ति का होना है जो अन्य जीवों में नहीं होती । इन्सान की कल्पना शक्ति डर में आश्चर्य जनक वृद्धि करती है जिसे इन्सान अपने विवेक द्वारा ही संतुलित कर सकता है । दूसरों के प्रति डर उत्पन्न होने का दूसरा कारण इन्सान के मोह का होता है जो अपने प्रिय के प्रति सुरक्षा की चिंता करना है जितना अधिक मोह उतना अधिक डर उत्पन्न होता है ।

मानसिक शक्तियों में डर का सबसे अधिक प्रभाव इन्सान की स्मरण शक्ति पर होता है किसी प्रकार का महत्वपूर्ण कार्य करते समय डर उत्पन्न होने पर स्मरण शक्ति कार्य करना बंद कर देती है । परीक्षा के समय अधिकांश विद्धार्थी डर उत्पन्न होने के कारण विषयों की उचित प्रकार से तैयारी करने के पश्चात भी प्रश्न पत्र समाधान करने में असफल रहते हैं क्योंकि आक्रांतित मस्तिक स्मरण शक्ति को उचित प्रकार संचालित करने में विफल रहता है । विद्धार्थी के मन में डर उत्पन्न करने का कार्य उसके अभिभावक करते हैं जो उस पर उच्च स्तर प्राप्त करने का निरंतर दबाव बनाए रखते हैं ।

शिक्षा के पश्चात सेवा कार्य हेतु साक्षात्कार के समय भी पूर्ण तैयारी के पश्चात प्रश्नों के उत्तर में हिचकिचाहट इन्सान के मन में असफलता का डर उत्पन्न होने के कारण होता है । साक्षात्कार के समय प्रश्न के उत्तर से अधिक प्रार्थी का आत्मविश्वास देखा जाता है जो आक्रांतित होने के कारण अस्थिर होता है । शिक्षा या सेवा कार्य में सफल होने के लिए आत्मविश्वास की दृढ़ता का होना अनिवार्य है लेकिन जिन अभिभावकों तथा परिवार के सदस्यों द्वारा आत्मविश्वास में वृद्धि होनी आवश्यक होती है उन्हीं के द्वारा सफलता के लिए अनाधिकृत दबाव बनाकर हौसला पस्त कर दिया जाता है एवं आत्मविश्वास खंडित कर दिया जाता है ।

इन्सान के मन में छोटे मच्छर के काटने से लेकर भूत प्रेत जैसे अफवाह वाले विषय तक डर उत्पन्न करने में सक्षम होते हैं । वर्तमान में इन्सान का सर्वाधिक डर अपने जीवन निर्वाह के भविष्य की सुरक्षा के कारण है जिसके लिए वह किसी भी प्रकार के कार्य को अंजाम देकर अधिक से अधिक धन एकत्रित करके भविष्य सुरक्षित करना चाहता है । इन्सान अपनी सन्तान को उच्च शिक्षा प्राप्त करके सर्वाधिक धन एकत्रित करने के लिए उकसाता है तथा किसी व्यवसाय द्वारा धन उपार्जन करने को बढ़ावा देता है । आरम्भ में सन्तान के असफल होने का डर होता है एवं सफल होने के पश्चात सन्तान द्वारा उपेक्षा करने अथवा उन्हें त्यागकर अलग होने का डर उत्पन्न होने लगता है । सन्तान में आपसी कलह का डर व पुत्रवधू द्वारा कलह का डर पुत्री को ससुराल में प्रताड़ित करने का डर जैसे परिवारिक डर सताते रहते हैं।

जिस जीवन निर्वाह के लिए इन्सान इतना अधिक धन एकत्रित करना चाहता है वह सिर्फ भोजन द्वारा ही पोषित होता है तथा साधारण भोजन सस्ता तथा पोष्टिक होता है जिसके लिए अधिक धन की आवश्यकता नहीं होती तथा कीमती व स्वादिष्ट भोजन बिमारियों में वृद्धि भी करता है । इन्सान में अनेकों प्रकार के कारण तथा अकारण डर उत्पन्न होने से उसका जीवन नर्क समान व्यतीत होता है । संसार में इतना अधिक डर कर इन्सान अपना जीवन किस प्रकार सुख व शांति पूर्वक व्यतीत कर सकता है यह इन्सान की मानसिकता पर प्रश्न चिन्ह है । इन्सान डर से मुक्ति सत्य को समझने एवं उसे मानकर ही प्राप्त कर सकता है क्योंकि इन्सान सत्य को समझता अवश्य है परन्तु मानने से परहेज करता है ।

सन्तान पर खर्च करके उससे सेवा की अपेक्षा करना व्यापर होता है जिसके सफल ना होने पर पीड़ा उत्पन्न होना स्वभाविक है । सन्तान के प्रति निस्वार्थ कर्तव्य पूर्ण करने के पश्चात उनसे किसी प्रकार की अपेक्षा ना करने से संतान की ओर से किसी भी प्रकार का डर उत्पन्न नहीं होता । जीवन सफर है तथा सफर में अनेकों समस्याएँ तथा कष्ट होते हैं मृत्यु मंजिल है तथा मंजिल पर पहुंच कर प्रत्येक प्रकार की शांति प्राप्त हो जाती है । मंजिल कब प्राप्त होगी उसका अनुमान नहीं होने पर समस्याओं से क्यों डरना सिर्फ मंजिल प्राप्ति का ध्यान सफर को सरल बना देता है तथा सभी प्रकार के डर से मुक्ति प्रदान करता है । परिणाम का मोह त्याग करने से सभी प्रकार के डर से शांति प्राप्त होती है एवं जीवन का मोह त्याग करने से डर समाप्त हो जाता है ।

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जीवन सत्यार्थ

इंसान के जीवन में जन्म से मृत्यु तक के सफर में तृष्णा, कामना तथा बाधाएं उत्पन्न होकर मानसिकता में असंतोष तथा भटकाव की स्थिति उत्पन्न कर देते हैं जिससे जीवन कष्टदायक व असंतुलित निर्वाह होता है। जीवन सत्यार्थ ऐसा प्रयास है जिसके द्वारा सत्य की परख करके कष्टकारी मानसिकता से मुक्ति पाकर जीवन संतुलित बनाया जा सकता है। पढने के साथ समझना भी आवश्यक है क्योंकि पढने में कुछ समय लगता है मगर समझने में सम्पूर्ण जीवन भी कम हो सकता है और समझने से सफलता प्राप्त होती है।

प्रस्तुत कर्ता - पवन कुमार

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