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सच्चा प्यार – saccha pyar

October 20, 2018 By प्रस्तुत करता - पवन कुमार Leave a Comment

आकर्षण की अधिकता के कारण किसी के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित होना प्रेम (prem) होता है | तथा जब प्रेम (prem) में किसी प्रकार का फरेब, झूट या दिखावा ना हो तो वह सच्चा प्यार (saccha pyar) होता है । प्रत्येक इन्सान अपने प्यार (pyar) को सच्चा (saccha) होने का दावा अवश्य करता है | परन्तु इन्सान के झूट बोलने, फरेब करने तथा दिखावा करने के स्वभाव के कारण विश्वास करने से पूर्व उसकी मानसिकता को समझना आवश्यक है ।

सच्चा प्यार

इन्सान के अतिरिक्त जितने भी जीव पृथ्वी पर उपलब्ध हैं उनका प्यार सच्चा (saccha pyar) होता हैं | क्योंकि उनमे झूट, फरेब अथवा दिखावा करने की क्षमता नहीं होती । सच्चा प्यार (saccha pyar) किसे करना उत्तम है एवं उसका क्या प्रभाव इन्सान के जीवन पर पड़ता है | तथा उसके क्या-क्या लाभ होते हैं | इस लेख को सम्पूर्ण पढ़ने पर ही इसका ज्ञान हो सकता है ।

 जिस प्रकार संसार के प्रत्येक जीव अपनी सन्तान को वास्तविक प्रेम (prem) करते हैं | अर्थात उनके प्रति पूर्ण रूप से समर्पित होते हैं | उनका समर्पण देखकर सच्चा प्यार (saccha pyar) को समझना सरल हो जाता है । जागरूकता, सुरक्षा, सक्षमता एवं त्याग यह वास्तविक प्रेम (vastvik prem) की चार किर्याएँ हैं | जिन्हें सभी जीव अपनी सन्तान के प्रति करते हैं । जागरूकता में आवश्यकता पूर्ति के लिए सन्तान का भोजन एकत्रित करके उन्हें खिलाना जिसके लिए वह खुद भी भूखे रहकर कार्य करते हैं । सन्तान की सुरक्षा हेतू छोटे से छोटा जीव किसी बड़े जीव का भी सामना करने के लिए तत्पर रहता है । सन्तान को सक्षम बनाने के लिए उन्हें भोजन जुटाने के तरीके सिखाना तथा दूसरे जीवों से अपनी सुरक्षा करने के सभी दावपेंच सिखाना शामिल है । सन्तान के लिए अपने सुखों का त्याग करके हर संभव प्रयास द्वारा उन्हें संसार में जीवन निर्वाह के मार्ग उपलब्ध करवाने के कार्य करना ही उनका वास्तविक प्रेम होता है ।

इन्सान सम्पूर्ण जीवन किसी ना किसी से वास्तव में प्रेम (love) करने के दावे प्रस्तुत करता रहता है परन्तु यह मात्र उसका दिखावा होता है । यदि कोई इन्सान अपनों का त्याग करके दूसरों से वास्तविक प्रेम होने का दावा करता है तो यह सबसे बड़ा झूट है | क्योंकि जो अपनों से प्रेम नहीं कर सकता उसका दूसरों के लिए प्रेम सबसे बड़ा झूट होता है । एक माँ यदि अपनी सन्तान को छोडकर दूसरे की सन्तान को दूध पिलाती है तो यह सबसे बड़ा फरेब होता है । आशिकी को प्रेम (love) कहना इन्सान का सबसे बड़ा झूट, फरेब एवं दिखावा होता है | क्योंकि उसमें सिर्फ शारीरिक आकर्षण होता है ।

 किसी को प्रेम (love) करने से पूर्व इन्सान को सर्वप्रथम खुद से प्रेम करना आवश्यक है | जिसमें अपने शरीर एवं मानसिकता के प्रति पूर्ण समर्पित होना आवश्यक है | क्योंकि यह सबसे अधिक उसके अपने होते हैं । इन्सान का शरीर एवं मानसिकता ही सम्पूर्ण जीवन उसके काम आती है जो उसे कभी धोखा नहीं देती अपनी सक्षमता के अनुसार कार्य करती रहती है । जो इन्सान खुद को वास्तव में प्रेम नहीं कर सकता वह दूसरों को भी धोखा ही देता है | तथा दूसरों के प्रति उसका प्रेम मात्र दिखावा होता है । अपने प्रति पूर्ण समर्पित होकर अपने लिए जागरूक होना, अपनी सुरक्षा का ध्यान रखना, खुद को सक्षम बनाना एवं अपने लिए आवश्यकता अनुसार त्याग करना इन्सान का अपने लिए वास्तविक प्रेम होता है ।

अपने शरीर के लिए सभी इन्सान जागरूक होते हैं जो भूख लगते ही भोजन उपलब्ध करके भूख शांत करने का कार्य करते हैं । मानसिकता की भूख का किसी को ध्यान नहीं होता क्योंकि मस्तिक कभी अपनी भूख का अहसास नहीं करवाता उसके लिए इन्सान को स्वयं जागरूक होना पड़ता है । जिस प्रकार शरीर भूखा हो तो वह कार्य करने में सक्षम नहीं होता इसी प्रकार भूखा मस्तिक भी कार्य करने में सक्षम नहीं होता । मस्तिक का पेट जानकारियों से भरता है जिनके बल पर वह कार्य करता है यदि इन्सान की मानसिकता में किसी प्रकार की जानकारियां ना हों तो वह किसी भी बात का उत्तर देने में सक्षम नहीं हो सकता । जो इन्सान वास्तव में खुद से प्रेम करता है उसका कर्तव्य है कि अधिक से अधिक जानकारियां अपने मस्तिक को उपलब्ध करवाए ताकि वह एक प्रबल मानसिकता का अधिकारी बन सके ।

वास्तविक प्रेम (vastvik prem) में सुरक्षा हेतू अपने शरीर एवं मानसिकता को पूर्ण सुरक्षित रखना इन्सान का कर्तव्य है । अधिकतर इन्सान अपने शरीर के स्वयं शत्रु होते हैं जो भोजन में क्या खाना, कितना खाना एवं कैसे खाना यह ध्यान ना देकर सिर्फ स्वाद देखकर कैसा भी एवं कितना भी ठूंस-ठूंस कर खाना आरम्भ कर देते हैं । संसार में अधिकतर बीमारियाँ इन्सान के भोजन पर निर्भर करती हैं इसलिए अपनी बीमारियों का जिम्मेदार इन्सान स्वयं होता है जो बीमार होने तक सिर्फ स्वाद देखता है स्वास्थ्य का कदापि ध्यान नहीं रखता । मानसिकता की सुरक्षा के लिए अनावश्यक, अपराधिक अथवा अनुचित विषयों से दूरी बनाए रखना भी आवश्यक है । जो इन्सान अधिक समय बहस, आलोचनाओं, मनोरंजन, व्यंग, तानाकशी, अनावश्यक वार्तालाप अथवा फेसबुक, व्हाट्स एप या इंटरनेट में उलझे रहते हैं उनकी मानसिकता में एक प्रकार की गंदगी जमा हो जाती है जो उनके किसी भी काम की नहीं होती ।

इन्सान जब खुद को वास्तविक प्रेम करता है तो अपने शरीर एवं मानसिकता को सक्षम बनाने के लिए अनेक प्रयास करता है । योग अथवा व्यायाम करना पौष्टिक भोजन करना तथा समय पर सोना जागना अपने शरीर को स्वस्थ एवं सक्षम बनाने के कार्य हैं । मानसिकता को सक्षम बनाने के लिए विषयों का अर्थ समझकर शिक्षा प्राप्त करना एवं विवेक द्वारा मंथन करके ज्ञान उत्पन्न करना तथा अनुभव प्राप्त करना अनिवार्य है । एक सक्षम शरीर तथा सक्षम मानसिकता इन्सान को किसी भी कार्य में बुलंदियां प्राप्त करवाने में सक्षम होती है । जो इन्सान आलस्य एवं मनोरंजन में जीवन व्यतीत करते हैं वह वास्तव में खुद को कभी प्रेम नहीं करते उन्हें सिर्फ अपनी अभिलाषाओं से प्रेम होता है ।

खुद से वास्तविक प्रेम होने पर इन्सान अपनी सभी बुराइयों का त्याग कर देता है ताकि उसकी एवं उसकी प्रतिष्ठा की किसी भी प्रकार की हानि ना हो सके । बुरी आदतों का, बुरे व्यवहार का, अहंकार, क्रोध, ईर्षा, घृणा, शक, ज़िद इन जैसे विकारों का त्याग करके ही इन्सान खुद को श्रेष्ठ बना सकता है । जब कोई इन्सान वास्तविक प्रेम के समर्पण से खुद को श्रेष्ठ बना लेता है तो समाज में उसे सम्मान, सहयोग, सहायता एवं श्रेष्ठता सरलता से प्राप्त हो जाते हैं । खुद को वास्तविक प्रेम करने का अर्थ है कि इन्सान अपने लिए अत्यंत संवेदनशील एवं स्वाभिमानी है तथा जो इन्सान अपने लिए संवेदनशील होता है वह ही दूसरों के प्रति संवेदनशील हो सकता है । वास्तविक प्रेम इन्सान की श्रेष्ठता का प्रतीक है इसलिए जीवन में हो सके तो सबसे पहले खुद से वास्तव में प्रेम करना चाहिए तभी किसी के प्रति वास्तविक प्रेम उत्पन्न होता है ।

प्रेम

June 18, 2014 By प्रस्तुत करता - पवन कुमार Leave a Comment

prem

प्रेम ऐसा शब्द है जिसके सुनते ही मन पुलकित हो जाता है एवं इन्सान प्रेम पाने के लिए अधीर हो उठता है । किसी वस्तु या प्राणी के प्रति आकर्षण की अधिकता व जिसके समीप रहने से सुख की अनुभूति होती हो तथा मन प्रसन्न हो उठे वह प्रेम कहलाता है । प्रेम इन्सान को महान बनाता है तथा प्रेम करने वाला इन्सान सदैव अच्छे कार्य ही करता है इस पर संतों का एक दोहा याद आता है ।

पोथी पढ़ पढ़ जग मुहा पंडित भया न कोए ।

ढाई अक्षर प्रेम का पढ़े सो पंडित होए।।

अर्थात वेद, शास्त्र और ज्ञान व धर्म की पुस्तकों को पढ़कर कोई इन्सान विद्वान् नहीं बन जाता वह यदि प्रेम का पाठ पढ़ ले तो अवश्य विद्वान् बन जायेगा । यह संदेश संतजी ने किसी ईलू ईलू वाले प्रेम को करने के लिए नहीं कहा उन्होंने संसार से प्रेम करने का पैगाम दिया है क्योंकि जिस वस्तु या प्राणी से प्रेम हो जाता है उसका अनिष्ट करना तो दूर उसके किसी प्रकार के नुकसान का विचार भी मन में नहीं आता । जैसे इन्सान अपनी संतान से प्रेम करता है तथा जीवन भर उनके पालन पोषण के लिए अपने सुखों को त्याग कर मेहनत करता है एवं अपना सारा जीवन उन पर न्योछावर कर देता है । इसी प्रकार यदि इन्सान सभी प्राणियों से प्रेम करने लगे तो वह किसी को भी हानि पहुँचाने या उनके प्रति अपराध करने का विचार भी मन में नहीं लायेगा एंव यदि सम्पूर्ण संसार आपस में प्रेम करे तो संसार से शत्रुता, चोरी, लूट, हत्या जैसे अपराधों का समापन हो जाएगा ।

प्रेम करने के कई प्रकार हैं जैसे शरीरिक, भोतिक, भावनात्मक और अध्यात्मिक । इनमे सबसे उच्च कोटि का प्रेम अध्यात्मिक प्रेम होता है क्योंकि अध्यात्मिक प्रेम कुछ पाने अथवा सुख के लिए नहीं होता यह निश्छल व निस्वार्थ होता है तथा संसार में किसी से भी हो सकता है । अध्यात्मिक प्रेम में इन्सान जिस से भी प्रेम करता है उसे प्रत्येक प्रकार का सुख पहुंचाना तथा उसे प्रत्येक प्रकार से खुशहाल देखना चाहता है फिर चाहे वह ईश्वर, प्राकृति, वनस्पति, पशु, पक्षी या कोई इन्सान हो । अध्यात्मिक प्रेम में सिर्फ त्याग होता है प्राप्ति की कोई कामना नहीं होती है यही अध्यात्मिक प्रेम की महानता है ।

अध्यात्मिक प्रेम के पश्चात भावनात्मक प्रेम इंसान के जीवन में सर्वाधिक महत्वपूर्ण होता है । भावनात्मक प्रेम में इन्सान अपनी भावनाओं में बहकर किसी के लिए भी समर्पित हो सकता है जिसमें अधिकतर सम्बन्ध जन्म के साथ ही उत्पन्न हो जाते हैं । भावनात्मक प्रेम का सबसे उत्तम रूप माँ की ममता है क्योंकि माँ अपनी सन्तान पर पूर्ण न्यौछावर होकर प्यार लुटाती है जिसमे किसी भी प्रकार का स्वार्थ नहीं होता ममता प्रेम का निस्वार्थ एंव निश्छल महान रूप है । ममता के पश्चात प्रेम का उन्नत रूप पिता, दादा, दादी का लाड व दुलार है यह भी निस्वार्थ होता है परन्तु माँ की ममता की तरह महान नहीं हो सकता । भाई, बहन, एंव परिवार के अन्य सदस्यों का आपसी प्रेम तथा पति, पत्नी व मित्रगणों के मध्य होने वाला प्रेम स्नेह होता है स्नेह में एक दूसरे के प्रति समर्पण के साथ कुछ स्वार्थ भी होता है जो इन्हें आपस में जोड़े रखता है । किसी पुरुष व स्त्री के मध्य भावनात्मक एंव शरीरिक आकर्षण के कारण होने वाला प्रेम प्रीत होती है जिसे इश्क व आशिकी भी कहा जाता है यह प्रेम का सबसे स्वार्थी रूप होता है क्योंकि इसमें प्राप्ति की अभिलाषा सम्मिलित होती है ।

prem

भोतिक प्रेम धन अथवा किसी धातु या धातु से निर्मित वस्तु एंव मकान या किसी साजो सामान व वाहन से भी हो सकता है । यह प्रेम इन्सान के लिए दुःख का कारण बनता है क्योंकि सभी वस्तुएं नश्वर होती हैं और इन्सान के उपयोग के लिए होती हैं इनसे प्रेम कर सहेज कर रख देने से न तो किसी काम आती हैं एवं ना ही सुरक्षित रह पाती हैं जो इन्सान के लिए दुःख का कारण बनती हैं ।

शरीरिक प्रेम अर्थात शरीरिक आकर्षण सदा हानि तथा दुःख का कारण ही बनता है । शरीरिक आकर्षण के दुष्परिणाम इन्सान के जीवन का सर्वनाश कर देते हैं क्योंकि इन्सान जिसके आकर्षण में फंसता है उसके गुणों और अवगुणों को परखना अथवा देखना भी आवश्यक नहीं समझता तथा यही कारण उसे जीवन में बर्बादी के रास्ते पर ले जाता है । शरीरिक आकर्षण के दुष्परिणाम इन्सान को जब मालूम पड़ते हैं जब तक वह अपना सब कुछ लुटा चुका होता है । इन्सान का शरीर के प्रति आकर्षण सच्चा प्रेम नहीं कामवासना की इच्छा उसे आकर्षित करती है तथा कामुकता में अँधा होकर इन्सान चाहे नर हो या मादा उसके प्रति पूर्ण रूप से समर्पित हो जाता है । यदि दूसरा इन्सान उसे मूर्ख बना कर लूट भी ले तो उसे महसूस भी नहीं होता क्योंकि कामुकता इन्सान के विवेक का सर्वनाश कर देती है ।

प्रेम त्रिकोण में तो हत्या जैसे जघन्य अपराध साधारण बात हो कर रह गये हैं । यदि दूसरा इन्सान मूर्ख न भी बनाए तो भी आपस में मन मुटाव अथवा लड़ाई झगड़ा अवश्य होता है क्योंकि शरीरिक आकर्षण कामवासना की कामुकता के कारण होता है और वासना पूर्ति के पश्चात जब मन शांत होता है तथा विवेक जागृत होता है तो आपस में विषयभोग के लिए उठाई गई परेशानियाँ तथा मांग पूर्ति के लिए खर्च किया गया धन सभी याद आते हैं एवं मन में घृणा उत्पन्न होने लगती है । यदि दोनों इंसानों ने शादी भी कर ली हो तो जब कामवासना का उन्माद समाप्त हो जाता है तब परिवार के घरेलू कार्य याद आते हैं तथा जीवन निर्वाह के कार्य भी याद आते हैं जिनको करने में व्यस्त होने तथा एक दूसरे को कार्य करने के लिए कहने पर क्रोध आना स्वभाविक होता है क्योंकि आकर्षण के समय दूसरे का कार्य स्वयं करने वाला अब उसे कार्य करने को कह रहा है जो कल तक उसके लिए नौकर की तरह कार्य करने को उपस्थित था वह उसे नौकर बना रहा है । यह झगड़े का मुख्य कारण होता है एवं यही शरीरिक आकर्षण का दुष्परिणाम भी होता है ।

यदि इन्सान जीवन में प्रेम करता है तो वह महान कार्य कर रहा है परन्तु अपने विवेक द्वारा परखना भी आवश्यक होता है कि कहीं प्रेम उसके लिए जीवन की बर्बादी का कारण तो नहीं बनने जा रहा । जीवन को स्थापित करना तथा उसे सफल बनाना सबसे महत्वपूर्ण कार्य है एवं संसार व समाज में सम्मान और प्रतिष्ठा प्राप्त करना भी आवश्यक है जिसे सभी इंसानों से प्रेम व सद्भाव से ही प्राप्त किया जा सकता है । किसी की उच्च कोटि की मानसिकता तथा विचारों से प्रेम करना ही इंसानियत से प्रेम है । प्रेम एक विश्वास है जो इन्सान को समर्पित होने की प्रेरणा देता है एवं प्रेम का अंत शक के आरम्भ से होता है जितना अधिक शक बढ़ता है उतना ही प्रेम कम हो जाता है इसलिए प्रेम को जीवित रखने के लिए शक का समाधान करना आवश्यक होता है । प्रेम में जिस प्रकार विश्वास का मूल्य है उसी प्रकार अंध विश्वास का भी ध्यान रखना आवश्यक है क्योंकि अंध विश्वास सदैव हानिकारक ही होता है जिसका लाभ उठाकर कोई भी धोखा दे सकता है इसलिए प्रेम में विश्वास करना उत्तम है परन्तु अंध विश्वास करना मूर्खता है ।

मोह

April 26, 2014 By Amit Leave a Comment

moh

जिस प्रकार किसी मशीनी उपकरण के कार्य करते समय कोई खराबी उसके कार्य को प्रभावित करती है जैसे कम्प्यूटर में वायरस का होना उसी प्रकार इन्सान की सोच में आई खराबी जो उसे गलत सोचने एंव त्रुटियाँ करने पर मजबूर करती है उसे विकार कहा जाता है । इन्सान का मानसिक तन्त्र अनेक विकारों से भरा पड़ा है जिसके कारण यह संसार नर्क समान हो गया है जिससे संसार में हत्या, अपहरण, लूट, बलात्कार, चोरी जैसे जघन्य अपराध उत्पन्न हो गए हैं । वैसे तो विकार अनेक प्रकार के हैं परन्तु अनेक विकारों में मुख्य पांच प्रकार के विकार होते हैं मोह, लोभ, काम, क्रोध, अहंकार । इन पांच विकारों से ही बाकि सभी प्रकार के विकारों का प्रभाव मस्तिक पर होता है जो इन विकारों की देन है । पांचो विकारों में भी जन्म के पश्चात इन्सान में उत्पन्न होने वाला सबसे पहला विकार मोह है बाकि सभी विकार मोह के पश्चात उत्पन्न होते हैं अर्थात कहा जाए तो सभी विकार मोह के कारण ही उत्पन्न होते हैं । मोह सभी विकारों की जड़ है ।

मोह इन्सान के जीवन की स्वभाविक प्रक्रिया है परन्तु इसका असंतुलित होना अत्यंत हानिकारक होता है संतुलन में होने से अधिक प्रभाव नहीं होता । मोह ऐसा विकार है जिसकी अधिकता इन्सान के जीवन को संघर्ष पूर्ण एंव कष्टकारी बनाती है अर्थत जितना अधिक मोह होगा उतना अधिक कष्टदायक जीवन हो जाता है क्योंकि मोह के मद में इन्सान का विवेक कार्य नहीं करता और वह अपने मन एवं भावनाओं का गुलाम बन कर रह जाता है । जन्म के बाद सर्वप्रथम परिवार के सदस्यों के प्रति मोह उत्पन्न होता है तथा भोजन की वस्तुओं के मोह का आगमन भी होने लगता है फिर खेलों के सामान का मोह भी आरम्भ हो जाता है ।

जिनमे खाने या खेलने के प्रति अधिक मोह होता है उनकी शिक्षा को ग्रहण लग जाता है क्योंकि खाने या खेलने में फंसा मन शिक्षा की तरफ ध्यान देने से मना करता है , खाने का मोह शरीर में वसा की मात्रा बढ़ा कर शरीर को आलसी बना देता है जिसके कारण शिक्षा प्राप्ति में बाधा उत्पन्न हो जाती है । जो खेलों के मोह में फंस जाते हैं उनकी बुद्धि और शरीर की थकावट के कारण वे शिक्षा से दूर हो जाते हैं । खाने और खेलों के मोह वाले इन्सान शिक्षा को बोझ समझकर उसे प्राप्त तो कर लेते हैं परन्तु अपने विषयों में विशेषता प्राप्त करना उनके वश का कार्य नहीं होता । परिवार के सदस्यों का मोह होना स्वभाविक है परन्तु मोह की अधिकता होने पर परिवार के दूसरे सदस्य उसका लाभ प्राप्त कर उसे इस्तेमाल करते हैं तथा कभी कभी तो उसके सभी हक एंव विरासत को हडप जाते हैं ।

इन्सान किसी बाहरी इन्सान के मोह में फंस जाए तो उसके दो प्रकार होते हैं कोई मित्र बन कर मोहित करता है तथा कोई शरीरिक आकर्षण अर्थात भिन्न लिंगी के चक्रव्यूह में फंस जाता है । मित्रता कोई बुरा विषय नहीं है क्योंकि जीवन में यदि सच्चा मित्र प्राप्त हो जाए तो जीवन व्यतीत करने में सरलता हो जाती है यदि कोई बुरा इन्सान मित्र के रूप में प्राप्त हो जाए तो वह कोई भयंकर नुकसान कर सकता है । मित्र का मोह संतुलित होगा तो वह अच्छा या बुरा हो अधिक नुकसान नहीं कर सकता परन्तु मोह की अधिकता में बुरा मित्र धन, इज्जत व जीवन तक कुछ भी लूट सकता है ।

शरीरिक आकर्षण का दुष्परिणाम तो अधिक भयंकर होता है क्योंकि काम वासना की कामाग्नि इन्सान की बुद्धि और विवेक को खा जाती है तथा रह जाता है सिर्फ मन जो अपने प्रिय के मोह में जान देने को तैयार रहता है । शरीरिक आकर्षण में फंसा इन्सान अपने जीवन का कोई भी गलत से गलत फैसला ले सकता है इसलिए इन्सान को किसी के मोह में फंसकर अपने विवेक और बुद्धि का प्रयोग करना नहीं छोड़ना चाहिए । मोह के अनेक रूप हैं जैसे धन का मोह, किसी भौतिक वस्तु का मोह, किसी वाहन का मोह, किसी जानवर का मोह वगैरह कोई भी मोह हो जीवन में दुःख अवश्य देगा क्योंकि संसार की प्रत्येक वस्तु व जीव सभी का समाप्त होना तय है । जिस से मोह हो जाए उसका विछोह इन्सान के दुखों का कारण बनता है ।

मोह से इन्सान के मन में भय उत्पन्न होता है क्योंकि जिससे मोह हो जाए उसके साथ किसी दुर्घटना की आशंका इन्सान को भयभीत करती है । यदि किसी इन्सान से मोह की अधिकता हो तो उसके द्वारा की गई गलतियों को नजर अंदाज करके स्वयं को मुसीबत में फंसाना यह इंसानी आदत है क्योंकि गलती करने पर समझाया न जाए या दंड न दिया जाए तो गलती करने की आदत में वृद्धि हो जाती है जिसका दुष्परिणाम अपराधिकता को बढ़ावा देना है तथा अपराधी का मोह मुसीबत का कारण ही बनता है । जीवन में मोह को समाप्त नहीं किया जा सकता परन्तु समझदार इन्सान मोह होने पर भी सदा अपने विवेक द्वारा ही सभी प्रकार के फैसले लेते है जिसके कारण मोह उनके जीवन का कलंक नहीं बनता ।

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जीवन सत्यार्थ

इंसान के जीवन में जन्म से मृत्यु तक के सफर में तृष्णा, कामना तथा बाधाएं उत्पन्न होकर मानसिकता में असंतोष तथा भटकाव की स्थिति उत्पन्न कर देते हैं जिससे जीवन कष्टदायक व असंतुलित निर्वाह होता है। जीवन सत्यार्थ ऐसा प्रयास है जिसके द्वारा सत्य की परख करके कष्टकारी मानसिकता से मुक्ति पाकर जीवन संतुलित बनाया जा सकता है। पढने के साथ समझना भी आवश्यक है क्योंकि पढने में कुछ समय लगता है मगर समझने में सम्पूर्ण जीवन भी कम हो सकता है और समझने से सफलता प्राप्त होती है।

प्रस्तुत कर्ता - पवन कुमार

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