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साधू व संत

April 26, 2014 By Amit Leave a Comment

sadhu sant

इन्सान मंदिरों से व भगवान से निराश होकर साधू या संतों का सहारा लेता है कि शायद ये उसके दुखी जीवन में ख़ुशी प्रदान करेंगे , इंसान की नजर में साधू या संत तो ईश्वर की तरह होता है इस सच्चाई को जानने की आवश्यकता है कि साधू और संत का आधार क्या है अर्थात साधू या संत कैसे उत्पन्न होते हैं । जन्म से कोई साधू या संत नहीं होता । दो प्रकार से साधू या संत उत्पन्न होते हैं प्राकृतिक तथा अप्राकृतिक

प्राकृतिक: मनुष्य के जन्म के पश्चात सर्व प्रथम उसमें उत्पन्न होने वाला विकार (मोह) है एंव मोह के दो रूप हैं: भौतिक व देहिक

भौतिक मोह से (लोभ) उत्पन्न होता है जिसका बहूरूप भ्रष्टाचार है दैहिक मोह से (काम) जन्म लेता है जिसका विकराल रूप बलात्कार है । जब मनुष्य कुछ प्राप्त कर लेता है तो (अहंकार) पनपता है एंव अहंकार है तो (क्रोध) अवश्य उत्पन्न होगा ये पाँच विकार मनुष्य को पूर्ण रूप से सांसारिक बनाते है । किसी मनुष्य में संसारिक दुखों से द्रवित होकर जीवन के प्रति मोह भंग होने लगता है ऐसी स्थिति में लोभ व काम दम तोड़ने लगते हैं, तब उसके मन में वैराग्य उत्पन्न होने लगता है । मोह नहीं तो अपने व पराये में कोई भेद नहीं रहता । लोभ नहीं तो धन क्या जायदाद क्या । काम नहीं तो जवानी क्या बुढापा क्या स्त्री पुरुष सभी प्रकार के भेद समाप्त हो जाते हैं । वैराग्य की चरम सीमा अहंकार व क्रोध का समूल नाश कर देती है । अहंकार व क्रोध नहीं तो मान अपमान की सोच भी नहीं होती । तब सांसरिक इन्सान साधू बनता है ।

साधू जब अपने अंतर मन से विचारों का मंथन करते हुए सत्य की खोज में साधना करता है तो कभी-कभी किसी साधु को अध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है । तब वह साधू-संत में परिवर्तित हो जाता है, संत वह शक्ति है जो अपने ज्ञान से समाज को नई दिशा प्रदान करने की शक्ति रखता है , जैसे गौतम बुध द्वारा कठिन साधना से प्राप्त ज्ञान से जब उन्होंने उपदेश  दिए तो तब बौध धर्म का जन्म हुआ, जैसे महावीर स्वामी के ज्ञान से जैन धर्म को ठोस स्तम्भ मिला जैसे मोहम्मद साहब के ज्ञान से इस्लाम धर्म का जन्म हुआ, जैसे ईसा के ज्ञान से ईसाई धर्म स्थापित हुआ । संत कबीर के दोहे आज भी हमारे जीवन को ज्ञान की रोशनी प्रदान करते हैं जैसे गुरू नानक देव के ज्ञान से सिक्ख धर्म की स्थापना हुई, जैसे महर्षि दयानन्द सरस्वती के ज्ञान से आर्य समाज की स्थापना हुई । सदियों में कोई संत उत्पन्न होता है जो एक प्राकृतिक उपलब्धि है ।

अप्राकृतिक: जब कोई इन्सान संसारिक दुःखों से डर जाता है तथा वह कर्मों से भाग कर साधू का चोला धारण कर लेता है एंव हमारे शास्त्रों से कुछ ज्ञान प्राप्त करके अपनी अधूरी कामनाओं की पूर्ति हेतु समाज को मूर्ख बनाता है तथा समाज का भरपूर शोषण करता है । वह खुद को चाहे संत कहे या धर्म गुरू सब पांखड है । यह अंतर सांसारिक इन्सान तथा साधू व संत का है इसे हमारे समाज को स्वंय समझना पड़ेगा । ऐसा नही है कि सांसारिक इन्सान में ज्ञान कम है किसी-किसी मनुष्य में संतों से भी अधिक ज्ञान है, परन्तु पाँचो विकार मोह, लोभ, काम, क्रोध, अहंकार उसके ज्ञान को प्रभावित करते हैं जिसके कारण वह सत्य बोलने से भी डरता है ।

इन्सान की विकृत बुद्धि एवं उसके मन का अधिकार मानसिकता पर हो जाने से वह सच्चाई से दूर भागता है तथा बहस करता है । कभी कभी तो मनुष्य चिल्ला-चिल्ला कर बहस करके सच्चाई को दबाने का प्रयास करता है । लालची तथा अहंकारी साधू हो या संत के चोले में जो भी इंसान है वह कभी किसी का भला नहीं कर सकता । वह समाज में दुःखी इंसानों को ढूंढ कर अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहता है । संत कहे जाने वाले ये धन के लालची इन्सान अपनी लच्छेदार बातों से फंसा कर इंसानो को तन, मन व धन से लूट लेते हैं तथा इनके द्वारा लुटे हुए इन्सान शर्म से समाज में अपना मुँह खोलने से भी कतराते हैं कहीं समाज उन्हें मूर्ख न समझे यही हमारे समाज की वास्तविकता है ।

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जीवन सत्यार्थ

इंसान के जीवन में जन्म से मृत्यु तक के सफर में तृष्णा, कामना तथा बाधाएं उत्पन्न होकर मानसिकता में असंतोष तथा भटकाव की स्थिति उत्पन्न कर देते हैं जिससे जीवन कष्टदायक व असंतुलित निर्वाह होता है। जीवन सत्यार्थ ऐसा प्रयास है जिसके द्वारा सत्य की परख करके कष्टकारी मानसिकता से मुक्ति पाकर जीवन संतुलित बनाया जा सकता है। पढने के साथ समझना भी आवश्यक है क्योंकि पढने में कुछ समय लगता है मगर समझने में सम्पूर्ण जीवन भी कम हो सकता है और समझने से सफलता प्राप्त होती है।

प्रस्तुत कर्ता - पवन कुमार

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