किसी भी प्रकार जब मानसिक शांति प्राप्त होती है तथा पूर्ण तृप्ति का अहसास होता है वह सुख कहलाता है । सुख इन्सान के जीवन की सर्वप्रथम एवं सर्वश्रेष्ठ अभिलाषा है जिसके लिए वह जन्म से मृत्यु तक प्रयासरत रहता है तथा किसी भी प्रकार के उचित या अनुचित कार्य करके भी सुख की प्राप्ति की अभिलाषा रखता है । सुख की अभिलाषा में इन्सान ने आदिकाल से वर्तमान तक असंख्य अविष्कारों द्वारा संसार को आधुनिक रूप प्रदान किया है तथा भविष्य में और अधिक आधुनिक एवं सुखदायक बनाने की ओर अग्रसर है । इन्सान सुख के लिए कार्य करता है परन्तु दुःख उसको सताते रहते हैं क्योंकि संसार में जितने भी दुःख हैं उनका आधार किसी ना किसी प्रकार सुख ही होता है अर्थात सुख ही दुःख का जन्म दाता है । सुख की अभिलाषा में इन्सान ऐसे कार्य कर देता है जिसके कारण उसका जीवन कुछ सुखी और अधिक दुखी हो जाता है । सुख के लिए इन्सान की तीन प्रकार की मानसिकता किर्याशील रहती हैं मन, भावना एवं कल्पना । दुःख एवं समस्याओं के कारण ज्ञात करने एवं वास्तविक सुख प्राप्त करने के लिए सुख का प्रभाव एवं परिणाम समझना आवश्यक होता है ।
मन सुख की सर्वाधिक अभिलाषा रखने वाला मानसिक तन्त्र है जो सदैव पाँचों इन्द्रियों के आनन्द व तृप्ति के लिए प्रयासरत रहता है । सबसे मुख्य इंद्री अर्थात मुख इन्सान के लिए स्वाद प्राप्ति द्वारा आनन्द प्राप्त का आधार है । इन्सान के लिए स्वाद सबसे प्रिय सुख है इसलिए इन्सान जानवर की तरह भोजन पेट भरने एवं जीवित रहने के लिए नहीं स्वाद लेकर मन प्रसन्न करने की अभिलाषा अनुसार ग्रहण करता है । इन्सान के जीवन का आवश्यकता से कई गुना अधिक धन सिर्फ स्वाद पूर्ति के लिए खर्च होता है । स्वाद के साथ स्वास्थ्य का ध्यान रखकर भोजन करना जीवन को संतुलन प्रदान करता है परन्तु सिर्फ स्वाद की अभिलाषा में हानिकारक खाद्य पदार्थों को तथा ठूंस-ठूंस कर खाना दुःख का कारण बन जाता है । अधिकतर बीमारियाँ विषैले स्वादिष्ट भोजन का दुष्परिणाम होती है । स्वाद का सुख बीमारी का दुःख बनने के पश्चात गलतियों का अहसास होता है इसलिए स्वाद एवं स्वास्थ्य के मध्य संतुलन बनाकर रखना आवश्यक है । नशीले पेय एवं पदार्थों में सुख तलाशने वाले इंसानों का जीवन तो स्वाद का सुख प्राप्त करने वालों से भी बदतर हो जाता है ना धन बचता है और ना तन बचता है सिर्फ मन बचता है ।
स्वाद के सुख के पश्चात दृष्टि सुख मन की प्रथम अभिलाषा होती है । प्रत्येक पसंदीदा एवं अनोखी वस्तु या विषय के दृश्य देखने की अभिलाषा इन्सान की पहली पसंद होती है । इन्सान धार्मिक स्थलों एवं मनोरम दृश्य स्थलों पर भ्रमण में अपने जीवन में बहुत सा धन एवं समय खर्च करता है । आय से अधिक धन खर्च करके भ्रमण करना संतुलन खराब करके जीवन को अभावग्रस्त बना देता है । फ़िल्में देखना, टी वी पर नाटक या खेल देखना मन को सुख अवश्य प्रदान करता है परन्तु समय का नाश करने से कर्मों में बाधा उत्पन्न होती है जिससे अभाव एवं समस्या उत्पन्न होना स्वभाविक है । अश्लील फ़िल्में या अश्लीलता देखने की अभिलाषा रखने वालों का जीवन सदैव समस्याग्रस्त होता है क्योंकि धन के साथ सम्मान भी साथ छोड़ जाता है । दृष्टि सुख भी जीवन में आवश्यक है परन्तु समय एवं धन का संतुलन कायम रखते हुए अभिलाषा सम्पूर्ण हो तो जीवन सुखी एवं संतुलित रहता है ।
स्वाद एवं दृष्टि सुख के साथ श्रवण सुख भी इन्सान को बहुत अधिक पसंद होता है । मधुर संगीत, गीत एवं गाने सुनना एवं मनचाहे वार्तालाप तथा कहानियाँ सुनने से आरम्भ होकर आलोचनाओं में सम्मिलित होना सभी श्रवण सुख का हिस्सा होता है । श्रवण सुख में धन का कम परन्तु समय का अधिक नाश होता है । श्रवण सुख यदि लत बन जाए तो सुख ही दुःख में परिवर्तित होने लगता है । सबसे कम हानिकारक नासा सुख होता है क्योंकि सुगंध प्राप्ति के लिए अल्प धन खर्च अवश्य होता है परन्तु समय अथवा अन्य किसी प्रकार की हानि की संभावना नहीं होती ।
इन्सान के मन द्वारा सभी इन्द्रयों के सुख की अभिलाषा में काम सुख सबसे जटिल पहेली होता है क्योंकि कामवासना मन के साथ भावनाओं को भी प्रभावित करती है । इन्सान मन व भावना के संतुलित रूप में यदि काम वशीभूत किसी पर आकर्षित होता है तो यह प्रेम की उत्पत्ति होती है । प्रेम इन्सान के मन की सकारात्मक भूमिका है जिससे प्रभावित होकर वह अपने प्रिय पर पूर्ण न्यौछावर हो जाता है । प्रेम यदि मन को सुख प्रदान करता है तो किसी प्रकार प्रेम में धोखा होने पर जीवन कष्टदायक भी बना देता है । काम सुख में मन एवं भावना संतुलित ना हों तो वह कामाग्नि बन जाती है जिसके कारण इन्सान अय्याशी करने लगता है । कामाग्नि से पीड़ित इन्सान अय्याशी में धन, समय के साथ सम्मान भी दांव पर लगा देता है जिसके कारण उसका भविष्य अंधकारमय तथा जीवन कष्टदायक हो जाता है ।
मन के पश्चात भावनाओं का सुख जीवन को प्रभावित करता है । प्रेम, श्रद्धा, ईर्षा, घृणा आदि भावनाओं से उत्पन्न विकार हैं । इन्सान प्रेम व श्रद्धा में जितना अधिक सुख का अहसास करता है उतना ही अधिक दुःख भी उसे कष्ट पहुंचाता है । प्रेम व श्रद्धा इन्सान के विश्वास का प्रमाण होते हैं यदि विश्वास उसका अन्धविश्वास बन जाए तो सर्वाधिक धोखा एवं लूट का कारण भी प्रेम एवं श्रद्धा ही होते हैं । ईर्षा व घृणा भावनाओं का नकारात्मक प्रभाव होता है तथा जिस इन्सान को नकारात्मक भावनाएं जकड़ लेती हैं उसे ईर्षा व घृणा के कारण किसी का नुकसान करने में भी सुख प्राप्त होता है । अपने सुख के लिए किसी को हानि पहुँचाने का परिणाम भविष्य में हानिकारक ही होता है । भावनाओं में प्रेम व श्रद्धा का विश्वास हो या ईर्षा व घृणा का आक्रोश यदि संतुलन खराब हो जाए तो सभी सुख दुःख का कारण बन जाते है ।
अनुमान, जिज्ञासा, शक, सोच आदि इन्सान की कल्पनाशक्ति की किर्याएँ हैं क्योंकि किसी अप्रत्यक्ष का चित्रण करना सिर्फ कल्पनाशक्ति पर निर्भर करता है । इन्सान अपनी कल्पनाओं में सुखी भविष्य के सपने सजाकर पूर्ण करने में प्रयासरत रहता है। सुखी भविष्य के लिए परिश्रम में कभी-कभी वर्तमान कष्टदायक बन जाता है । सुखी भविष्य की अधिक चिंता इन्सान से अपराध करने या किसी को धोखा देने का कार्य भी करवा देती है जिसका परिणाम सदैव दुखद होता है । सुखी भविष्य के प्रति जागरूक होना भविष्य संवारता है परन्तु भविष्य की अधिक चिंता वर्तमान को कष्टदायक बना देती है । भविष्य के सपने संजोने के साथ यह सत्य ध्यान रखना भी आवश्यक है कि इन्सान अमर नहीं है मृत्यु कब दामन थाम ले निश्चित नहीं है इसलिए भविष्य के लिए वर्तमान को कष्टदायक बनाना उचित नहीं होता ।
सुख की अभिलाषा करना आवश्यक है क्योंकि अभिलाषा करने से ही पूर्ण करने का साहस उत्पन्न होता है जिसके वशीभूत इन्सान कर्म करता है । इन्सान द्वारा कर्म करना ही उसे कर्मयोगी बनाता है जो कर्म से भागते हैं उन्हें कर्महीन कहा जाता है । सुख आवश्यक नहीं है कि बहुमूल्य संसाधनों से ही प्राप्त हों इन्सान चाहे तो किसी भी वस्तु, विषय या सम्बन्धों में सुख प्राप्त कर सकता है । सुख वास्तव में मानसिक अनुभूति है तथा जब तक इन्सान अनुभूति का अहसास नहीं करना चाहता उसे सुख प्राप्त नहीं होता । जो वस्तु पसंद आती है वह सुख देती है तथा ना पसंद हो तो दुःख का कारण बन जाती है अर्थात जब तक प्राप्ति पर सब्र नहीं होता सुख प्राप्त होना असंभव होता है । सुख का आधार ही सब्र है बेसब्री दुःख का कारण है । सुख दिन रात की तरह होते हैं सुख के अंत से दुःख का आरम्भ है तथा दुःख के अंत से सुख का आरम्भ है । सुख के पीछे भागने से उत्तम दुखों का अंत करने का प्रयास करना अधिक श्रेष्ठ है क्योंकि दुखों का अंत होते ही सुख स्वयं जीवन में प्रवेश कर जाते हैं ।