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संस्कार

April 30, 2017 By प्रस्तुत करता - पवन कुमार Leave a Comment

इन्सान का व्यवहार एवं आचरण तथा उसके कर्म मिलकर उसकी जैसी छवि समाज में प्रस्तुत करते हैं वह उसके संस्कार कहलाते हैं । संस्कार इन्सान की अपनी तथा परिवारिक पहचान सहित उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा का आधार भी होते हैं । संस्कारों से इन्सान अपनी तथा अपने परिवार की श्रेष्ठता का स्तर प्रमाणित करता है । इन्सान के जैसे संस्कार होते हैं उसे समाज द्वारा उसी स्तर के सम्मान की प्रतिकिर्या प्राप्त होती है । संस्कार समाज में मौलिक पहचान के साथ इन्सान के मूल्य का आधार भी होते हैं क्योंकि किसी भी प्रकार की आवश्यकता होने पर संस्कारों के आधार पर ही समाज से सहायता प्राप्त होती है । संस्कारों के द्वारा इन्सान परिवार एवं समाज में अपना कितना भी ऊँचा स्थान प्राप्त कर सकता है ।

संस्कारों में सर्वप्रथम स्थान इन्सान के व्यवहार का होता है क्योंकि अव्यवहारिक इन्सान समाज में कभी संस्कारी नहीं माना जाता । व्यवहार इन्सान की वाणी में मधुरता एवं शब्दों की श्रेष्ठता तथा विचारों की महत्वता से प्रमाणित होता है । वाणी की मधुरता व्यवहार का स्तर प्रमाणित करती है तथा शब्दों का चयन भी व्यवहार का पैमाना होता है क्योंकि श्रेष्ठ शब्दों से श्रेष्ठता एवं ओछे शब्दों से इन्सान का ओछापन प्रमाणित होता है । इन्सान का कथन जितना स्पष्ट होता है उसके विचार भी उतने ही स्पष्ट होते हैं यह स्पष्टता इन्सान को स्पष्टवादी प्रमाणित करते हैं क्योंकि अस्पष्ट कथन से इन्सान फरेबी एवं धोखेबाज समझा जाता है । तानाकशी, बहस या आलोचना करना इन्सान को अव्यवहारिक बना देता है । व्यवहार का मुख्य आधार परिवार माना जाता है इसलिए तुच्छ व्यवहार परिवार को भी तुच्छ घोषित करवा देता है । अपने श्रेष्ठ व्यवहार के द्वारा ही इन्सान समाज में खुद को तथा अपने परिवार को सम्मानित करवा सकता है ।

आचरण इन्सान के चरित्र से सम्बन्धित विषय है इसलिए संस्कारों में आचरण को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त होता है । आचरण इन्सान के चरित्र का दर्पण भी कहलाते हैं जो उसकी मानसिकता को स्पष्ट करते हैं । अच्छा चरित्र उत्तम मानसिकता की निशानी होती है तथा अय्याशी एवं आवारागर्दी इन्सान के ओछे चरित्र को दर्शाते हैं जिसके कारण उसके आचरण घ्रणित समझे जाते हैं । जुआ, सट्टा खेलना, नशा करना, बकवास करना, अफवाह फैलाना, दूसरों की बुराई करना, आपस में फूट डालना इन्सान को तुच्छ मानसिकता की श्रेणी में पहुँचा देते हैं । आचरण इन्सान में परिवार तथा सोहबत से पनपते हैं जिसमे उत्तम आचरण परिवार द्वारा तथा ओछे आचरण सोहबत द्वारा बनते हैं परन्तु ओछे आचरणों की बदनामी का परिणाम फिर भी परिवार को ही भुगतना पड़ता है । आचरणों के विषय में इन्सान का मानना है कि यह उसके निजी हैं जिसका समाज से कोई सम्बन्ध नहीं है परन्तु आचरण ओछे या अनुचित होने पर समाज उन्हें सामाजिक गंदगी मानता है ।

कर्म इन्सान के जीवन का सबसे महत्वपूर्ण विषय है जिसके द्वारा उसका तथा उसके परिवार का निर्वाह होता है । कर्म इन्सान के निजी अवश्य होते हैं परन्तु अनुचित या दुष्कर्मों का प्रभाव सम्पूर्ण समाज पर पड़ता है । साधारण इन्सान व्यापार अथवा नौकरी द्वारा कर्म करके अपना जीवन निर्वाह करते हैं । जो असाधारण प्रतिभा के इन्सान होते हैं वह कोई श्रेष्ठ कार्य अथवा किसी प्रकार का अविष्कार करके समाज के विकास तथा सम्मान वृद्धि में सहायक होते हैं । जो इन्सान दुष्कर्म या अपराध करते हैं वह समाज में गंदगी फ़ैलाने तथा सामाजिक पतन का कारण बन जाते हैं । चोरी, धोखेबाजी, लूट, भ्रष्टाचार, बलात्कार, हत्या आदि जैसे घ्रणित कर्म करने वाले ऐसे इन्सान होते हैं जिन्हें संस्कारों का अर्थ भी शायद मालूम नहीं होता तथा इन जैसे इंसानों को सम्मान या नैतिकता से किसी प्रकार का मतलब नहीं हो सकता । समाज का विकास जिन कर्मों से होता है वह ही अच्छे संस्कारों की श्रेणी में आते हैं ।

संस्कारों का निर्माण कर्ता इन्सान स्वयं होता है जो अपनी इच्छानुसार अच्छे या बुरे संस्कार अपना सकता है परन्तु यह समझना भी आवश्यक है कि इंसानों के संस्कार मिलकर ही किसी संस्कृति का निर्माण होता है । इन्सान को अपना सामाजिक मूल्य निर्धारित करने एवं समाज में अपनी पहचान स्थापित करने के लिए अपने संस्कारों का सहारा लेना ही पड़ता है । संस्कार इन्सान की सामाजिक कसौटी है जिससे परखकर इन्सान के व्यवहार, आचरण एवं कर्मों की पहचान होती है । सम्मान की इच्छा रखने वाले को संस्कारों का मूल्य ज्ञात करना आवश्यक है क्योंकि समाज में संस्कारी इन्सान को ईमानदार एवं सहृदय इन्सान माना जाता है । संस्कारों के विषय में यह समझना सबसे आवश्यक है कि संस्कारों से इन्सान के परिवार का सम्मान एवं परिवार की मर्यादा जुडी होती है इसलिए अपने परिवार की प्रतिष्ठा को ध्यान में रखकर ही संस्कारों के विरुद्ध कार्य करना चाहिए ।

प्रथा

September 13, 2014 By Amit Leave a Comment

जीवन निर्वाह तथा परिवारिक, समाजिक, सांस्कृतिक व धार्मिक कार्यों को समाजिक पद्धति एंव समाज द्वारा निर्धारित नियमों के अनुसार पालन करते हुए सम्पूर्ण करना प्रथा कहलाता है । संसार में जब इन्सान ने एकत्रित होकर सामूहिक रूप से बसना आरम्भ किया तब सर्वप्रथम समाज की स्थापना करी गई तथा समाज के द्वारा जीवन निर्वाह करने के नियम निर्धारित किए गए जो उस समय के अनुसार आवश्यक थे । निर्धारित नियमों के कारण ही सभ्यताएँ आरम्भ हो सकीं जिसके कारण इन्सान में विकास करने की जागरूकता उत्पन्न होकर इन्सान को जीवन में लक्ष्य प्रदान किए । जन्म से मृत्यु तक के सभी कार्यों के नियम निर्धारित हुए प्रत्येक कार्य पद्धति तथा नियम को प्रथा तथा जीवन की सम्पूर्ण शैली को धर्म कहा गया जिसे ना मानने वाले को अधर्मी तथा असमाजिक तत्व कहा जाता रहा है ।

प्रथा का निर्माण करते समय इन्सान की आवश्यकताओं तथा होने वाले प्रभाव और समाज में सुधार एंव विकास सभी कारणों को ध्यान में रखकर निर्धारित किया गया । व्यतीत समय अनुसार प्रथा का प्रभाव भी परिवर्तित होता रहता है जिसके नियमों का शुद्धिकरण भी आवश्यक होता है अन्यथा प्रथा रुढ़िवादी अथवा कुप्रथा बनकर रह जाती है । किसी प्रथा को अपनाने से पूर्व उस प्रथा के नियम व कारण तथा प्रभाव एंव महत्वता सभी को समझना आवश्यक होता है अन्यथा अपनाने वाला मूर्ख तथा रुढ़िवादी बनकर रह जाता है । वर्तमान में अनेकों प्राचीन प्रथाएँ समाज के लिए कुप्रथा व रूढ़ीवाद बनकर रह गई हैं जिससे समाज का बुनियादी ढांचा धीरे धीरे खोखला हो रहा है ।

आदिकाल से कुछ शताब्दी पूर्व तक समाज में दो चार प्रतिशत इन्सान ही शिक्षित होते थे तथा समाज के सभी कार्यों को शिक्षित इन्सान अपनी इच्छानुसार निर्धारित करके अशिक्षितों से कार्य करवाते थे । शिक्षित इन्सान दो वर्गों में बंटे हुए थे जिसमे एक वर्ग निरक्षरों व मजबूरों का पक्षधर था जो सदैव उनकी भलाई के कार्य करता था तथा दूसरा वर्ग निरक्षरों तथा मजबूरों पर सदैव दबाव बनाए हुए उनका शोषण करता तथा उनसे अपनी इच्छानुसार कार्य करवाता । शिक्षित दोनों वर्ग के इन्सान सामूहिक रूप से सभी प्रकार की प्रथाओं के नियम निर्धारित करते थे जिसमे अधिकतर स्वार्थी वर्ग का प्रभाव अधिक होता था । स्वार्थी वर्ग अपनी महत्वता को बनाए रखने के लिए अच्छी तथा बुरी सभी प्रथाओं को अपने लाभ की कसौटी पर परख का ही निर्धारित करते थे ।

ऋग्वेदिक काल में सर्वप्रथम कार्यों का वितरण करते समय कार्य अनुसार इन्सान को पुकारे जाने के लिए जाति प्रथा का जन्म हुआ। जाति इन्सान के कार्य की सूचक मात्र थी जिसे पुकारे जाने से इन्सान के द्वारा कार्य को अंजाम देने का परिचय प्राप्त होता था । सुविधाजनक व लाभप्रद कार्य करने तथा असुविधाजनक व अल्प लाभ के कार्य का त्याग करने के कारण समाज में सदा कार्यों में बाधा उत्पन्न हो जाती जिसका संतुलन बनाए रखने के लिए उत्तर वैदिक काल में कार्यों के त्याग व परिवर्तन पर प्रतिबंध लगाकर सदैव के लिए पैत्रिक थोप दिया गया । कार्य के पैत्रिक होते ही जाति भी पैत्रिक हो गई यदि उस समय कार्य को पैत्रिक ना किया जाता तो समाज के कार्यों में असंतुलन इन्सान के विकास में विघ्न उत्पन्न करता इसलिए यह निर्णय उस समय आवश्यक था । परन्तु वर्तमान में कार्यों का अभाव तथा कार्य करने वालों की भरमार है तथा वर्तमान में पैत्रिक जाति प्रथा अब कुप्रथा बनकर रह गई है जिसे समाप्त कर सभी इंसानों को कार्य के अनुसार सम्मान प्राप्त होना आवश्यक है ।

आदिकाल से ही अपना प्रभुत्व रखते हुए इंसानों द्वारा निर्मित समाज पुरुष प्रधान रहा है जिसमे स्त्री को असम्मान की दृष्टि से देखा गया तथा स्त्री के शोषण के लिए अनेकों कुप्रथाओं का निर्माण किया गया । स्त्रियों के लिए निर्मित प्रथाओं में दो मुख्य कुप्रथाएँ बाल विवाह तथा सती प्रथा थी । जन्म के समय से ही कन्या से घृणा करते हुए उसे शिक्षा से दूर रखा जाता तथा बाल्यावस्था में कन्या का विवाह करके परिवार से विदा कर दिया जाता । कन्या को शिक्षा सिर्फ ग्रहस्थ कार्यों की दी जाती थी तथा पति के परिवार द्वारा उससे दासी की तरह कार्य करवाए जाते । सन्तान उत्पन्न करने तथा ग्रह कार्य करने के अतिरिक्त स्त्री का समाज में कोई कार्य नहीं रहा है ।

पुरुष की मृत्यु के पश्चात स्त्री की जीविका के भार से मुक्ति के लिए सती प्रथा का निर्माण हुआ जिसमे पति के शव के साथ ही स्त्री को जीवित अग्नि के हवाले कर दिया जाता था । सती प्रथा समाज के जुल्म की पराकाष्ठा थी जिससे बच्चे अनाथ हो जाते तथा उनकी परवरिश का साधन भी समाप्त हो जाता था । सती प्रथा के कारण समाज में विभाजन होता रहा तथा विभिन्न धर्मों की उत्पत्ति होती रही जो भी सती प्रथा से मुक्ति की इच्छा रखता वह अपना धर्म परिवर्तित कर लेता था । बीसवीं सदी में बाल विवाह तथा सती प्रथा को समाप्त कर दिया गया जिससे स्त्री वर्ग को सदा के लिए मुक्ति प्राप्त हो गई । सती प्रथा संसार की सबसे जालिम तथा घृणित कुप्रथा थी जिसने स्त्रियों का भरपूर शोषण किया ।

जिस स्त्री के पति की मृत्यु के पश्चात उसका शव उपलब्ध नहीं हो पाता था जैसा कि युद्ध क्षेत्र में मारे गए सैनिकों के साथ होता था अथवा किसी कारण पति के शव के साथ उसे सती नहीं किया जा सकता था तो उसके लिए समाज द्वारा विधवा प्रथा का निर्माण किया गया था । विधवा प्रथा में सर्वप्रथम सती न हो सकने वाली स्त्री को मनहूस करार देकर उसका समाजिक बहिष्कार किया जाता था जिसमे उसे किसी के समक्ष आने तथा किसी समाजिक कार्यक्रम में शामिल होने की इजाजत नहीं थी । विधवा स्त्री द्वारा सुखों का त्याग करना एंव नियम निर्धारित जीवन व्यतीत करना आवश्यक होता था जिसमे स्त्री द्वारा श्रृंगार का त्याग एंव उसका सिर मुंडवाया जाता, बिस्तर का त्याग करके विधवा स्त्री द्वारा पृथ्वी पर चटाई बिछा कर सोना, स्वादिष्ट भोजन को त्याग कर सादा एंव रुखा सूखा भोजन वह भी सिमित मात्रा में, रंगीन वस्त्रों को त्याग कर सफेद एंव सूती वस्त्रों में जीवन निर्वाह करना जैसे नियम निर्धारित थे । विधवा स्त्री को किसी कार्य के लिए आवश्यकता होने पर भी किसी के समक्ष प्रस्तुत होने की इजाजत नहीं होती थी जिसका अनुसरण ना करने पर अपशगुन मानकर उसको अपशब्दों द्वारा प्रताड़ित करना समाज की स्वभाविक प्रथा थी जो स्त्री के प्रति समाज की धारणा को प्रमाणित करती है ।

आदिकाल में इन्सान द्वारा सभ्यता ग्रहण करने के साथ ही स्त्री पुरुष को ग्रहस्थ जीवन धारण करने के लिए विवाह प्रथा का निर्माण किया गया । समाज के आपसी सम्बन्धों के लिए एक बस्ती का पुरुष दूसरी बस्ती की स्त्री से विवाह करता जिसके लिए उसे अपनी बस्ती तथा समाज के महत्वपूर्ण इंसानों की आज्ञा लेनी पडती थी । आदिकाल में वाहन उपलब्ध ना होने के कारण वर को सम्मान प्रदान करने हेतु उसे घोड़ी पर बैठा कर वधु की बस्ती में परिचय के लिए नगाड़े बजाते हुए घुमाया जाता क्योंकि बस्ती में अपरिचित को लुटेरा समझकर हमला कर दिया जाता था । वर्तमान में उस प्राचीन प्रथा को अपनाकर इन्सान अपने रुढ़िवादी होने का प्रमाण प्रस्तुत करता है वह फूहड़ पद्धति अपनाना तथा अनावश्यक धन की बर्बादी करना नादानी का कार्य रह गया है ।

आमदनी के सिमित साधन होने के कारण विवाह के पश्चात ग्रहस्थी बसाने में होने वाले बोझ को कम करने के लिए वधु पक्ष द्वारा वर को कुछ राशी तथा ग्रहस्थी की आवश्यकता की वस्तुएं, बरतन, वस्त्र वगैरह दहेज के रूप में प्रदान की जाती थीं । वधु पक्ष अपना प्रभाव दिखाने के लिए समाज एकत्रित कर भोज का प्रबन्ध करता जिससे वधु का शोषण करने से पूर्व वर तथा उसका परिवार वधु के परिवार की समाजिक प्रतिष्ठा से भयभीत रहे । वर्तमान समय में वर पक्ष समृद्ध तथा वर ग्रहस्थ जीवन संचालन में सक्षम होने के उपरांत भी वधु पक्ष से दहेज की कामना करता है तथा भरपूर धन राशी विवाह में खर्च करवाने पर ही विवाह सम्पन्न करता है ।

कन्या के जन्म के पश्चात उसकी परवरिश तथा विवाह एंव दहेज खर्च व ससुराल में उसका शोषण इन कारणों से भयभीत कन्या की हत्या करने की प्रथा आदिकाल से प्रचिलित थी । मुख्य दहेज व शोषण के भय से कन्या के जन्म पर ही उसे मृत्यु के हवाले कर दिया जाता था जो वर्तमान में भी प्रचिलित है । वर्तमान में कन्या की हत्या गर्भ में ही कर दी जाती है जिसका मुख्य कारण विवाह पद्धति तथा दहेज प्रथा है । दहेज प्रथा समाज का सबसे बड़ा कलंक है क्योंकि सभी इन्सान अपनी कन्या को सुखी जीवन प्रदान करने के लिए अधिक से अधिक दहेज एकत्रित करना चाहते हैं । कन्या के दहेज के लिए इन्सान किसी भी प्रकार के भ्रष्टाचारी तथा अपराधिक कार्य को अंजाम देने से नहीं हिचकता समाज में जुर्म का एक बड़ा कारण दहेज प्रथा है । स्त्री के शोषण तथा उसके असम्मान का कारण विवाह पद्धति तथा दहेज प्रथा है जिसे समाप्त किया जाना अनिवार्य है । विवाह के पश्चात शगुन प्रथा निर्धारित है जिसमें जीवन भर कन्या पक्ष वर पक्ष को समय-समय पर शगुन के नाम पर धन एवं सामान भेंट करता रहता है यह भी कन्या पक्ष को लूटने एवं शोषण करने की प्रथा है जिसका भय कन्या भ्रूण हत्या करवाने में सहायक की भूमिका अदा करता है ।

आदिकाल से ही पुरुष वर्ग द्वारा अपना प्रभुत्व रखते हुए एक से अधिक विवाह करने की प्रथा थी जिसे धनवानों तथा राजाओं द्वारा अनेकों विवाह करके प्रमाणित किया जाता रहा है  । अपनी कामाग्नि शांत करने के लिए नगर वधु की प्रथा व गणिकाएं रखना जैसे घृणित कार्य किए जाते थे जो वर्तमान में भी वेश्यावृत्ति के आधुनिक तरीके अपनाकर सम्पन्न किए जाते हैं । अब भी एक पुरुष द्वारा एक से अधिक विवाह का समर्थन किया जाता है परन्तु पुरुष के अधिक विवाह का समर्थन करने वाला समाज स्त्री को एक से अधिक पति रखने की आज्ञा प्रदान करने की सोच से ही भयभीत हो सकता है । स्त्री को समान अधिकार देने की बातें समाज में सिर्फ अफवाहें हैं क्योंकि समाजिक कुप्रथाएँ स्त्री के सम्मान में सदैव अवरोध उत्पन्न करती रहेंगी ।

आदिकाल में इन्सान को शिक्षित करने के लिए किताबें अथवा किसी भी प्रकार के साधन उपलब्ध नहीं थे इस कारण समाज के बौद्धिक विकास के लिए सर्वप्रथम चित्रकला का सहारा लिया गया । चित्रों द्वारा आवश्यक बातों को समझाया जाता जिसके सार्थक परिणाम आने पर चित्रों को स्थाई रूप देने के लिए मूर्तियाँ निर्माण कर समाज के बौद्धिक विकास का प्रयास किया गया । ब्रह्मा की चौमुखी आकृति से समझाया जाता कि इन्सान को चारों ओर का ज्ञान प्राप्त करने पर ही वह ब्रह्मा की तरह संसार का निर्माण कर्ता बन सकता है । शिव आकृति स्थिरता व लग्न की व्याख्या तथा शिवलिंग काम इन्द्रियों को वश में रखने की शिक्षा प्रदान करते थे । विष्णु की मूर्ति द्वारा व्यहवारिकता तथा गणेश शांति तथा समृधि के प्रतीक थे इसी प्रकार प्रत्येक मूर्ति तथा चित्र की कहानियों द्वारा इन्सान में जागरूकता उत्पन्न करने के प्रयास किए गए । समयानुसार स्वार्थी इंसानों ने शिक्षा का माध्यम बनी मूर्तियों की पूजा आरम्भ करवा कर धन प्राप्ति का साधन उपलब्ध कर लिया जो पूर्णतया सफल हो रहा है ।

मूर्तियों को स्वच्छ एंव शांत स्थल पर स्थापित करने के लिए मन्दिरों का निर्माण किया गया जहाँ पर इन्सान शांतिपूर्वक शिक्षा ग्रहण कर सके । मन्दिर के द्वार पर सिमित ऊँचाई पर घंटा लगाया जाता जिससे आने वाला उचककर बजाए जिसके परिणाम स्वरूप आंगतुक के उचकने से उसकी तंद्रा भंग हो तथा घंटे की ध्वनी मानसिक सक्रियता उत्पन्न करे । विचारों को त्याग कर शांत वातावरण में मूर्ति पर ध्यान केन्द्रित कर सिखाए गए मंत्र पाठ का उच्चारण करना यह मन्दिर निर्माण का कारण था । वर्तमान में मन्दिर की भीड़ तथा शोर एंव गंदगी के कारण इन्सान वहां किसी भी प्रकार की आराधना नहीं कर सकता तथा मन्दिर का अर्थ अब सिर्फ व्यवसायिक रह गया है । मूर्ति तथा मन्दिर प्रथा का निर्माण जिस कारण किया गया था वह कारण अब समाप्त हो चुका है अब सिर्फ स्वार्थपूर्ति के कारण इन्सान की मानसिकता का शोषण किया जा रहा है ।

समाज स्थापना के समय बुद्धिमान इंसानों को समाज संचालन का कार्य सोंपा गया जिससे समाज में संतुलन बना रहे तथा समाज विकास करता रहे । संचालन कर्ता के जीवन निर्वाह के लिए समाज के सभी इन्सान अपने सामर्थ्य अनुसार धन, वस्त्र एंव भोजन वगैरह संचालन कर्ता को भेंट करते थे जिसे दान कहा जाता था । किसी मजबूर इन्सान को सहायतार्थ मुफ्त दी गई वस्तु तथा राशी भीख कहलाती है तथा किसी अन्य इन्सान या कार्य के लिए सहायता मांगने को चंदा कहा जाता है परन्तु बिना मांगे सम्मान में दी गई वस्तु तथा राशी को दान कहा गया । दान प्रथा समाज के संचालन कर्ताओं के सम्मान में दी गई भेंट थी जिसे समय के साथ स्वार्थी इंसानों ने अनेकों आडम्बर रचकर लूटने का साधन बना लिया । दान का महत्व देने वाले की निस्वार्थ सेवा तथा लेने वाले की निस्वार्थ समाज संचालन की महानता थी जो अब मूर्ख बना कर लूटने का माध्यम हो गया है ।

जब समाज द्वारा अनेकों प्रकार के विकास करने के प्रयास आरम्भ हुए तभी साथ साथ अनेक प्रकार की भ्रांतियां भी उत्पन्न हुई जिनमे मुख्य भूत प्रेत जैसी अफवाहें जिनका निवारण करने वाले इंसानों को तांत्रिक कहा गया। तांत्रिक प्रथा सभ्यता के आरम्भ से ही उत्पन्न हुई जिसमे स्वार्थी इंसानों द्वारा कुछ रसायनों व पदार्थों का उपयोग करके पीड़ित का कुछ इलाज तथा मूर्ख बनाया जाता रहा है । आसमान की ऊँचाइयों को प्राप्त करने के पश्चात भी समाज में तांत्रिक प्रथा को समाप्त नहीं किया जा सका जो इन्सान की कमजोर मानसिकता को प्रमाणित करती है । नादान इंसानों की नासमझ का लाभ प्राप्त करके अनेकों तांत्रिक समाज में खुले घूमते हैं तथा अवसर प्राप्त ही अपना स्वार्थ सिद्ध कर लेते हैं ।

कुछ शताब्दी पूर्व तक इन्सान की सिमित आवश्यकताएँ थी जिनमें मुख्य भोजन, वस्त्र एंव घर बनाना रहा है । सिमित साधनों के साथ समय की अधिकता तथा मनोरंजन के साधनों की कमी के कारण समाज ने सामूहिक उत्सव मनाने की प्रथा को जन्म दिया । उत्सव के रूप में अनेकों त्यौहारों की मान्यता आरम्भ हुई जिसे समाज द्वारा मनोरंजन तथा शिक्षा के आधार पर आरम्भ किया गया तथा सामूहिक त्यौहारों का मुख्य कारण समाज में आपसी प्रेम तथा सद्भाव उत्पन्न करना था । वर्तमान में इन्सान द्वारा त्यौहार के कारण अवकाश प्राप्त करना समय की बर्बादी है क्योंकि त्यौहार का कारण ज्ञात हुए बगैर एंव मनोरंजन रहित त्यौहार मनाना निरर्थक कार्य एंव धन का नाश करना है । त्यौहारों की सीमा निर्धारित करना तथा उनके तरीकों में परिवर्तन से त्यौहार कुप्रथा की श्रेणी से बच सकते हैं ।

भारतीय सभ्यता एंव संस्कृति की महानता का कारण भारतियों द्वारा अथिति सत्कार की परम्परा को जाता है क्योंकि अपरिचित अथवा परिचित किसी अथिति का सत्कार उसके मन में प्रेम भावना उत्पन्न करता है तथा अथिति सत्कार में आपसी सद्भावना की वृद्धि होती है । भारतीय समाज में अथिति सत्कार की प्रथा द्वारा प्रेम, सद्भावना व सम्मान देने की परम्परा आदिकाल से रही है जिसका धीरे धीरे अंत निकट आता जा रहा है । अथिति सत्कार की प्रथा अब सिर्फ स्वार्थ पूर्ति हेतु रह गई है स्वार्थ वश अथिति की भरपूर सेवा होती है अन्यथा उसे भगाने के लिए आवश्यक कार्य का बहाना बना दिया जाता है । अथिति सत्कार की प्रथा का अंत इन्सान की बढ़ती आवश्यकताएँ तथा स्वार्थ में आश्चर्यजनक वृद्धि के कारण है क्योंकि इन्सान की आवश्यकताओं में वृद्धि होने से उसकी समस्याओं में भी वृद्धि हो गई है ।

भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति की महानता का मुख्य कारण समाजिक एकता तथा सम्मिलित परिवार प्रथा का प्रचलन रहा है जो अब आहिस्ता आहिस्ता समाप्ति की तरफ चल रहा है । पश्चिमी देशों की आधुनिकता के आधार पर एकाकी जीवन व्यतीत करना भारत में भी फैशन बनता जा रहा है जिसके कारण युवा वर्ग परिवार से अलग अपनी ग्रहस्थी बसाने में लगे हैं । बिखरते परिवारों व सदस्यों द्वारा अलगाव के कारण आपसी प्रेम तथा सद्भावना में निरंतर कमी आ रही है तथा इन्सान के स्वभाव में क्रोध व खुदगर्जी की भावना में वृद्धि हो रही है । सम्मिलित परिवार प्रथा को बढ़ावा देने पर ही भारतीय संस्कृति तथा सभ्यता को बचाया जा सकता है जो वर्तमान में सरल कार्य नहीं रह गया है ।

इन्सान के जन्म पर नामकरण संस्कार से आरम्भ मृत्यु पर दाह संस्कार तक अनेकों प्रकार की अच्छी तथा बुरी प्रथाएँ हैं । समय की आवश्यकता अनुसार सभी प्रथाओं का नवीनीकरण तथा शुद्धिकरण आवश्यक है क्योंकि जिस प्रथा से इन्सान को हानि हो उसका समाप्त होना अथवा उसका शुद्धिकरण आवश्यक होता है । अच्छी प्रथाएँ जिनसे समाज का लाभ हो उन्हें बदावा देने तथा कुप्रथाओं को समाप्त करने पर ही समाज एकत्रित रहेगा अन्यथा समाज का बिखराव निश्चित है ।

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जीवन सत्यार्थ

इंसान के जीवन में जन्म से मृत्यु तक के सफर में तृष्णा, कामना तथा बाधाएं उत्पन्न होकर मानसिकता में असंतोष तथा भटकाव की स्थिति उत्पन्न कर देते हैं जिससे जीवन कष्टदायक व असंतुलित निर्वाह होता है। जीवन सत्यार्थ ऐसा प्रयास है जिसके द्वारा सत्य की परख करके कष्टकारी मानसिकता से मुक्ति पाकर जीवन संतुलित बनाया जा सकता है। पढने के साथ समझना भी आवश्यक है क्योंकि पढने में कुछ समय लगता है मगर समझने में सम्पूर्ण जीवन भी कम हो सकता है और समझने से सफलता प्राप्त होती है।

प्रस्तुत कर्ता - पवन कुमार

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